शनिवार, सितंबर 29, 2007

मीडिया कंपनियां और हितों का संघर्ष

मीडिया की स्वतंत्रता से अधिक मीडिया के दुरूपयोग का मामला है इनाडु बनाम आंध्रप्रदेश सरकार का संघर्ष


आंध्र प्रदेश में राजशेखर रेड्डी के नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकार और सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले तेलुगु दैनिक 'इनाडु` समूह के मालिक रामोजी राव के बीच छिड़ी जंग और आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। राज्य सरकार का आरोप है कि रामोजी राव के मालिकाने वाली हिंदू संयुक्त परिवार (एचयूएफ) चिट फंड कंपनी-मार्गदर्शी फिनांसियर्स- कई तरह की अनियमितताओं में संलग्न है। राज्य सरकार द्वारा गठित रंगाचारी जांच समिति के अनुसार मार्गदर्शी की वित्तीय स्थिति इतनी कमजोर है कि वह अपने बचतकर्ताओं के एक रूपए में से सिर्फ ४९ पैसे लौटाने की स्थिति में है। इस रिपोर्ट के बाद राज्य सरकार के निर्देश पर आंध्र पुलिस की अपराध जांच शाखा (सीआईडी) ने एक स्थानीय अदालत से अनुमति लेकर मार्गदर्शी के तीन दफ्तरों पर छापे मारे और कई दस्तावेज जब्त कर लिए।

दूसरी ओर, 'इनाडु` समूह के मालिक रामोजी राव इसे प्रतिशोध की कार्रवाई बताते हुए राजशेखर रेड्डी सरकार पर प्रेस को दबाने और मुंह बंद करने का आरोप लगा रहे हैं। वे मार्गदर्शी चिट फंड कंपनी पर लगाए गए आरोपों को आधारहीन बताते हुए दावा कर रहे हैं कि बचतकर्ताओं का धन पूरी तरह से सुरक्षित है और अगर जरूरत पड़ी तो वे अपनी अन्य कंपनियों की परिसंपत्तियों से बचतकर्ताओं का पाई-पाई लौटा देंगे। रामोजी राव ने राज्य सरकार के रवैये के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में एक अपील भी दायर की जिसमें उन्हें 'द हिंदू` के संपादक एन राम और वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर का समर्थन भी मिला है। यही नहीं, राव के पक्ष में एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने एक सख्त बयान जारी करते हुए राज्य सरकार पर मार्गदर्शी के बहाने 'इनाडु` पर दबाव डालकर उसे खामोश करने की कोशिश का आरोप लगाया है।

कहने की जरूरत नहीं है कि एडीटर्स गिल्ड और प्रेस के एक बड़े हिस्से ने इस पूरे मामले को प्रेस यानी अभिव्यक्ति की आजादी परएक और हमले के उदाहरण की तरह पेश किया है। कहा जा रहा है कि राजशेखर रेड्डी सरकार 'इनाडु` के मालिक रामोजी राव के खिलाफ खुंदक में कार्रवाई कर रही है क्योंकि राव और उनका अखबार 'इनाडु` राज्य सरकार की आलोचना करने के साथ-साथ कई वरिष्ठ मंत्रियों के भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने में भी आगे रहा है। इस आरोप में काफी हद तक सच्चाई है। राजशेखर रेड्डी सरकार की 'इनाडु` से खुन्नस किसी से छिपी नहीं है। 'इनाडु` आंध्र प्रदेश का सर्वाधिक प्रसार वाला तेलुगु दैनिक है जिसकी प्रसार संख्या 11 लाख प्रतियां और पाठक संख्या 1.3 करोड़ है। 'इनाडु` को आमतौर पर कांगे्रस विरोधी और तेलुगु देशम समर्थक अखबार माना जाता है। आंध्र की राजनीति में कांग्रेस विरोधी एक लोकप्रिय राजनीतिक शक्ति के बतौर एनटी रामाराव के नेतृत्व वाले तेलुगु देशम की स्थापना और 1983 में कांग्रेस को बेदखल कर उसे सत्ता तक पहुंचाने में रामोजी राव और 'इनाडु` की अहम भूमिका थी। उसके बाद से ही रामोजी राव तेलुगु देशम और पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु के पक्ष में झुके रहे हैं।

इसलिए कांग्रेस और रेड्डी सरकार की 'इनाडु` से नाराजगी को समझा जा सकता है। जाहिर है कि वह यह खुन्नस निकालने के लिए मौके की तलाश में थी और 'इनाडु` पर सीधा हमला करने के बजाय रामोजी राव की कोई और कमजोर नस खोज रही थी। वह 'इनाडु` पर सीधा हमला करने का जोखिम नहीं उठाना चाहती थी क्योंकि उस लड़ाई में मुद्दा प्रेस की आजादी बनाम राज्य सरकार की तानाशाही बन जाता और रेड्डी सरकार को मुंह की खानी पड़ती। इसलिए बहुत सुनियोजित तरीके से रामोजी राव के मालिकानेवाली चिट फंड कंपनी मार्गदर्शी फिनांसियर्स को निशाना बनाया गया ताकि राव को इस तरह घेरा जाए जिससे उन्हें प्रेस की आजादी को मुद्दा बनाने का मौका न मिले और उन्हें कठघरे में खड़ा करके 'इनाडु` समूह की विश्वसनीयता और साख को नुकसान पहुंचाया जा सके।

कहने की जरूरत नहीं है कि राजशेखर रेड्डी सरकार अपने मकसद में काफी हद तक कामयाब रही है। उसने रामोजी राव को बचाव की भूमिका में खड़ा कर दिया है। उन्हें मार्गदर्शी फिनांसियर्स की गतिविधियों और अनियमितताओं के लिए सफाई देनी पड़ रही है। हालांकि राव और मीडिया के एक हिस्से ने पूरे मामले को प्रेस का गला घोंटने का मुद्दा बनाने की कोशिश की है लेकिन वे एक हद से ज्यादा कामयाब नहीं दिख रहे हैं। इस विवाद के दौरान राज्य सरकार के एक आदेश (जीओ 338) से एकबार यह मुद्दा प्रेस यानी अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले का बनता हुआ दिखा लेकिन विरोध बढ़ता देख रेड्डी सरकार ने इसे वापस लेने में देर नहीं की। इस आदेश के जरिए राज्य सरकार ने इस मामले में समाचार और राज्य सरकार की आलोचना छापने पर रोक लगाने की कोशिश की थी।

हालांकि रेड्डी सरकार ने इस आदेश को तुरंत वापस ले लिया लेकिन इससे उसकी असली मंशा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। जाहिर है कि रेड्डी सरकार कोई दूध की धुली नहीं है और 'इनाडु` के हालिया खुलासों से बौखलाई हुई है। इसी बौखलाहट में वह रामोजी राव और उनकी चिट फंड कंपनी को निशाना बना रही है। लेकिन इस सच्चाई के बावजूद अगर राव को मीडिया के एक हिस्से को छोड़कर व्यापक जनतांत्रिक शक्तियों का वैसा खुला समर्थन नहीं मिल रहा है, जैसा आमतौर पर किसी मीडिया समूह पर सरकारी हमले/धौंस-धमकी के दौरान मिलता रहा है तो यह सोचने का समय आ गया है कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्या समाचार मीडिया अपनी साख और इस कारण जनसमर्थन खो रहा है? ध्यान देने की बात है कि इस मुद्दे पर स्थानीय मीडिया और मीडिया विश्लेषकों की राय बंटी हुई है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रो. बीपी संजय और मीडिया विश्लेषक टी शिव राम कृष्ण शास्त्री ने रामोजी राव की भूमिका पर कई सवाल उठाए हैं। उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

लेकिन इस विवाद में सबसे चौंकानेवाली टिप्पणी उच्चतम न्यायालय की ओर से आई है। रामोजी राव और उनके अखबार 'इनाडु` की स्वामी कंपनी उशोदया इंटरप्राइजेज की ओर से दाखिल एक स्पेशल लीव पेटीशन की सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति रवीन्द्रन ने टिप्पणी की कि 'जब मुख्यमंत्री कोई गलती करते हैं, आप उसे उठाते हैं। इसी तरह से जब आपने गलती की तो राज्य सरकार ने कार्रवाई की। आपके मुवक्किल (रामोजी राव) ने एक साथ दो जिम्मेदारियां संभाल रखी हैं। एक समाचारपत्र के मालिक की और दूसरी चिट फंड कंपनी के मालिक की।` यही नहीं, इस याचिका में हस्तक्षेपकर्ता के बतौर एन राम और कुलदीप नैयर की दलीलों पर टिप्पणी करते हुए मुख्य न्यायाधीश ने साफ कहा कि 'इस मामले का प्रेस की स्वतंत्रता से कोई लेना-देना नहीं है। यह केवल एक वित्तीय धंधे का मामला है।` उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में कोई आदेश नहीं दिया और याचिकाकर्ताओं को आंध्र प्रदेश उच्च न्यायलय के पास जाने के लिए कहा।

हालांकि उच्चतम न्यायालय ने कोई फैसला नहीं दिया लेकिन उसकी टिप्पणियों ने बड़े मीडिया समूहों के उस पहलू की ओर इशारा करके एक जरूरी बहस की जमीन तैयार कर दी है जिसे अब तक न सिर्फ स्वाभाविक माना जाता रहा है बल्कि उसे बहस और विचार का विषय भी नहीं समझा जाता है। सवाल बहुत सीधा और स्पष्ट है कि क्या किसी मीडिया कंपनी के मालिक की उन गतिविधियों या कारोबार पर देश के कानून इसलिए लागू नहीं होंगे कि वे किसी अखबार/समाचार चैनल आदि के मालिक हैं? क्या किसी समाचार मीडिया कंपनी के स्वामी को देश के कानूनों से मुक्ति मिली हुई है और वे किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं? अगर किसी मीडिया कंपनी के मालिक अन्य धंधों और कारोबार में लगे हों तो क्या उस धंधे या कारोबार की जांच-पड़ताल या उसके खिलाफ कार्रवाई को मीडिया यानी प्रेस की आजादी पर हमला माना जाएगा?

इन सवालों का उत्तर खोजना बहुत जरूरी है क्योंकि 'इनाडु` के रामोजी राव बनाम आंध्र प्रदेश सरकार के टकराव का मुद्दा न तो ऐसी पहली घटना है और न ही आखिरी। भारत में जैसे-जैसे मीडिया उद्योग का विकास और विस्तार हो रहा है, वैसे-वैसे छोटी और मध्यम आकार की मीडिया कंपनियां न सिर्फ बड़ी हो रही हैं बल्कि एक बड़ी कारपोरेट कंपनी के बतौर मीडिया के अलावा अन्य उद्योग-धंधों और कारोबार में भी कदम रख रही हैं। यही नहीं, मीडिया उद्योग के विस्तार और उसमें बढ़ते मुनाफे के कारण ऐसी कई कंपनियां भी इस क्षेत्र में कदम रख रही हैं जिनका मुख्य कारोबार कुछ और है। लेकिन इसके साथ ही, यह भी सच है कि जहां मीडिया कंपनियां अन्य उद्योग-धंधों में प्रवेश के लिए अपने प्रभाव और लॉबीइंग की शक्ति का इस्तेमाल कर रही हैं, वहीं अन्य उद्योग-धंधों से जुड़ी कंपनियां मीडिया कारोबार में इसलिए भी प्रवेश कर रही हैं क्योंकि इससे उनके राजनीतिक प्रभाव और लॉबीइंग की ताकत में इजाफा होता है। इनका सीधा लाभ उनके मुख्य कारोबार को होता है।

हालांकि यह कोई नयी प्रवृत्ति नहीं है। पहले भी मीडिया कंपनियां अपने अन्य धंधों और कारोबार को संरक्षण देने के लिए अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल करती रही हैं। यही नहीं, सरकार, राजनेता और अफसर भी मीडिया कंपनियों की ऐसी गतिविधियों को नजरअंदाज करते रहे हैं जहां अखबार की आड़ में अनुचित और कई बार कानूनों का उल्लंघन भी होता रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह यह थी कि सरकार में बैठे राजनेता और अफसर भी दूध के धुले नहीं थे और मीडिया कंपनियों से पंगा लेने के बजाय चुप रहना बेहतर समझते थे। इसी तरह, यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि मीडिया कंपनियों की इस ताकत, प्रभाव और लॉबीइंग शक्ति का दुरूपयोग मालिकों के साथ-साथ संपादकों और पत्रकारों के एक छोटे ही सही समूह ने भी किया है। जिला और ब्लॉक स्तर से लेकर राज्य और राष्ट्रीय स्तर तक 'प्रेस` लिखी गाड़ियों का प्रभाव और उनके कारनामे किसी से छुपे नहीं हैं।

हालांकि यह कहने का तात्पर्य कतई नहीं है कि सभी मीडिया कंपनियां, उनके मालिक और उनसे जुड़े पत्रकार इस गोरखधंधे में शामिल हैं और अखबार/समाचार चैनल की आड़ में कारोबार में अनुचित तौर-तरीकोंऔर गैरकानूनी उपायों का सहारा ले रहे हैं। लेकिन इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि तालाब में अब सिर्फ एक नहीं बल्कि कई गंदी मछलियां मौजूद हैं और तालाब को गंदा कर रही हैं। यहीं नहीं, इन मछलियों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है और कई मामलों में तो मीडिया कंपनियां विशुद्ध ब्लैकमेलिंग भी कर रही हैं। उनके खिलाफ कार्रवाई करना लगातार कठिन होता जा रहा है क्योंकि वे उसे तुरंत मीडिया की स्वतंत्रता पर हमले का मामला बना देती हैं। आपसी प्रतिद्वंद्विता के बावजूद ऐसे मौकों पर ये कंपनियां एकजुट हो जाती हैं और प्रशासन को पीछे हटना पड़ता है। दूसरी ओर, भ्रष्ट और खुद अनियमितताओं में लिप्त प्रशासन भी मीडिया कंपनियों की अनुचित और अवैध धंधों या तौर तरीकों के खिलाफ आवाज उठाने का नैतिक साहस नहीं दिखा पाता है।

इस तरह मीडिया के अलावा अन्य प्रकार के कारोबार में अनुचित तौर-तरीकों और गैरकानूनी उपायों का सहारा लेनेवाली मीडिया कंपनियों और भ्रष्ट शासन-प्रशासन के बीच एक अवैध किस्म का अघोषित गठजोड़ बन गया है। यही कारण है कि इस प्रवृत्ति के जोर पकड़ने के बावजूद 'इनाडु` से जुड़े मार्गदर्शी फिनांसियर्स जैसे मामले कम ही सामने आ पाते हैंं। लेकिन पिछले एक दशक में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जब किसी मीडिया कंपनी ने अपने दूसरे कारोबारों और अनुचित गतिविधियों की जांच पड़ताल और उसके खिलाफ कार्रवाई रोकने के लिए उसे मीडिया की स्वतंत्रता पर हमले का मुद्दा बना दिया। 'द टाइम्स ऑफ इंडिया` (बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड) समूह के मालिक स्वर्गीय अशोक जैन के खिलाफ जब फेरा के तहत कार्रवाई शुरू हुई तो समूह के अखबारों ने न सिर्फ इसे मानवाधिकार हनन का मुद्दा बनाकर अभियान शुरू कर दिया बल्कि फेरा कानून को अतार्किक, उत्पीड़क और अप्रासंगिक कानून बताते हुए उसे खत्म करने की मुहिम छेड़ दी। इसी तरह, 'आउटलुक` (रहेजा बिल्डर्स) समूह के मालिकों पर छापे की कार्रवाई को मीडिया पर हमले की कार्रवाई घोषित करते हुए आसमान सिर पर उठा लिया गया।

मीडिया को ढाल की तरह इस्तेमाल करने के ये मामले अपवाद नहीं है। 80 के दशक के उत्तरार्ध और 90 के दशक में कई चिट फंड कंपनियों (सहारा, जेवीजी, कुबेर आदि) ने बचतकर्ताओं से जमा लेने के अलावा बड़े जोरशोर से अखबार-पत्रिकाएं और टीवी चैनल शुरू किए। उनमें से कई कंपनियां डूब गयीं और उनके साथ ही लाखों निवेशकों की गाढ़ी कमाई भी डूब गयी। लेकिन मीडिया के प्रभाव का नतीजा था कि जब तक ये कंपनियां डूब नहीं गयीं, सरकार और प्रशासन ने सब जानते-समझते हुए भी उस ओर से आंखें मूंदे रखीं। आज भी ऐसी कई कंपनियों के आगे उनकी मीडिया कंपनियां ढाल बनकर खड़ी हैं। मामला सिर्फ चिट फंड कंपनियों तक सीमित नहीं है बल्कि पिछले कुछ वर्षों में कई बड़ी मीडिया कंपनियों ने रीयल इस्टेट, शॉपिंग मॉल-इंटरटेंमेंट कारोबार, सुगर मिल, शराब जैसे धंधों में प्रवेश किया है। या इसके उलट इन क्षेत्रों की कंपनियां धड़ल्ले से मीडिया कारोबार में आ रही हैं।

खासकर पिछले दो-तीन वर्षों के अंदर रीयल इस्टेट के धंधे में सक्रिय कई बिल्डरों ने मीडिया कारोबार में प्रवेश किया है। जाहिर है कि यह उनके लिए सिर्फ एक और धंधा नहीं बल्कि उससे अधिक मूल कारोबार को संरक्षण देने का एक विश्वसनीय, सक्षम और सम्मानजनक तरीका है। हालांकि यह तर्क दिया जा सकता है कि अगर कोई मीडिया कंपनी किसी अन्य कारोबार में हाथ आजमाना चाहती है या किसी अन्य कारोबार से जुड़ी कोई कंपनी मीडिया कारोेबार में आना चाहती है तो इसमें किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए? कानूनन इस पर कोई प्रतिबंध नहीं है और यह पूरी तरह से वैध है। यही नहीं, मीडिया भी किसी अन्य कारोबार की तरह ही एक और कारोबार है, इसलिए जैसे रीयल इस्टेट, उसी तरह मीडिया बिजनेस।

लेकिन क्या यह इतना सीधा और सपाट रिश्ता है? जाहिर है कि नहीं, क्योंकि अगर मीडिया भी किसी अन्य कारोबार या धंधे की तरह सिर्फ एक और कारोबार हैं तो मीडिया कंपनियों के मालिक अपने और अपनी कंपनी के साथ विशेष व्यवहार और कानूनी संरक्षण की मांग क्यों करते हैं? किसी भी अन्य कंपनी की तुलना में वे मीडिया कंपनी के लिए विभिन्न रियायतें (जमीन/भवन आवंटन से लेकर पानी, बिजली और टैक्स) क्यों मांगते हैं? यही नहीं, किसी भी अन्य कंपनी की तरह मीडिया कंपनियां स्वयं को सार्वजनिक और प्रशासनिक छानबीन और जांच पड़ताल के लिए प्रस्तुत क्यों नहीं करती हैं? किसी भी जांच पड़ताल के संकेत मात्र से ही वे 'मीडिया की स्वतंत्रता` पर हमले का शोर मचाना क्यों शुरू कर देती हैं? स्पष्ट है कि मीडिया कारोबार मूलत: कारोबार होते हुए भी अन्य सभी कारोबारों से कई मायनों में अलग है।

दरअसल, एक उदार पूंजीवादी लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका कई कारणों से बहुत महत्वपूर्ण है। लोकतंत्र में मीडिया नागरिकों को सूचित करने के अलावा उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम भी है। एक गतिशील लोकतंत्र के लिए व्यापक रूप से सूचित नागरिकों का होना बहुत जरूरी है। नागरिकों के लिए सूचनाएं खासकर सरकार के कामकाज और विभिन्न रांजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक हलचलों और मुद्दों से परिचित होना जरूरी है, अन्यथा वे अपने विभिन्न लोकतांत्रिक अधिकारों खासकर वोट देने और अपने प्रतिनिधि तथा सरकार चुनने के अधिकार का सही तरीके से प्रयोग नहीं करर पाएंगे। लोगों को सूचित करने और अपने समय के मुद्दों और उससे जुड़े विभिन्न पक्षों और उनके विचारों से अवगत कराने का काम काफी हद तक मीडिया करता है। मशहूर समाजवैज्ञानिक जर्गेन हैबरमास के अनुसार मीडिया लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए जरूरी 'सार्वजनिक मंच` (पब्लिक स्फेयर) का निर्माण करता है जिसपर राजनीतिक रूप से महत्व के मुद्दों पर नागरिक बहस-मुबाहिसा करते हैं और जहां नागरिकों के सामुदायिक जीवन में सक्रियता और भागीदारी के लिए जरूरी सभी सूचनाएं मुहैया कराई जाती हैं।

जैसाकि हम जानते हैं कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नागरिक जिस 'सार्वजनिक मंच` के जरिए भागीदारी करते हैं, उसमें उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबसे बुनियादी शर्त है। मीडिया की स्वतंत्रता इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से निसृत होती है जो कि नागरिकों के जानने के अधिकार से जुड़ी हुई है। स्पष्ट है कि मीडिया की ताकत का आधार सूचित और सक्रिय नागरिक हैं। लेकिन हैबरमास के अनुसार लोकतंत्र का प्राण वायु 'सार्वजनिक मंच` तभी सबसे प्रभावी तरीके से काम करता है जब वह संस्थागत रूप में राज्य और समाज की ताकतवर आर्थिक शक्तियों से स्वतंत्र होता है। तात्पर्य यह कि मीडिया की स्वतंत्रता सिर्फ राज्य के नियंत्रण और वर्चस्व से मुक्ति तक सीमित नहीं है बल्कि उसे निजी बड़ी पूंजी के दबाव से भी पूरी तरह मुक्त होना चाहिए। लेकिन दुनिया के अधिकांश उदार पूंजीवादी लोकतंत्रों की तरह भारतीय लोकतंत्र में भी ऐसे उदाहरण अपवाद सरीखे हैं जहां मीडिया संस्थान राज्य या निजी पूंजी के वर्चस्व या दबावों से पूरी तरह स्वतंत्र हों।

इसलिए जरूरी है कि 'इनाडु` और इस तरह के दूसरे प्रकरणों में मीडिया स्वतंत्रता पर हमले को मुद्दा बनाने के बजाय इसे निजी पूंजी द्वारा मीडिया स्वतंत्रता के दुरूपयोग के मामले के बतौर देखा जाए। मीडिया की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए जरूरी है कि मीडिया कंपनियों के कामकाज में न सिर्फ पारदर्शिता को बढ़ाया जाए बल्कि उनके अन्य आर्थिक हितों और कारोबार को मीडिया संस्थान से अलग रखा जाए। दरअसल, जब कोई मीडिया कंपनी किसी अन्य कारोबार से जुड़ती है या कोई अन्य कारोबार करने वाली कंपनी मीडिया कारोबार में प्रवेश करती है तो उससे 'हितों के टकराव` का मामला भी बनता है। यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि जिस मीडिया कंपनी के आर्थिक और कारोबारी हित किसी अन्य व्यवसाय या धंधे से जुड़े हुए हैं तो वह उस व्यवसाय से संबंधित सरकारी नीतियों और फैसलों को प्रभावित करने के मकसद से पूर्वाग्रहपूर्ण रिपोर्टिंग करेगी या उस व्यवसाय में अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों को अनुचित तरीके से निशाना बनाने की कोशिश करेगी अथवा अपने उत्पाद/सेवा को प्रतिद्वंद्वी के उत्पाद/सेवा की तुलना में बेहतर साबित करने की कोशिश करेगी।

यह कोई काल्पनिक आशंका नहीं है। ऐसे कई मामले हाल के दिनों में दिखाई पड़े है। 'द टाइम्स ऑफ इंडिया` समूह ने एक प्राइवेट ट्रीटी के नाम से योजना शुरू की है। इस योजना के तहत टाइम्स नगद भुगतान करके किसी नई या पुरानी कंपनी के शेयर खरीद लेती है। बदले में वह कंपनी टाइम्स को विज्ञापन और अपने प्रचार प्रसार के लिए भुगतान के बतौर वह रकम लौटा देती है। इस प्रक्रिया में जब उस कंपनी के शेयर बाजार में अच्छे भाव पर पहुंच जाते है तो टाइम्स उसे बेचकर मुनाफा वसूल लेती है। जाहिर है कि इससे टाइम्स के साथ-साथ उस कंपनी को भी काफी फायदा होता है। लेकिन इसके लिए टाइम्स को निश्चय ही, अपनी संपादकीय स्वतंत्रता के साथ समझौता करना पड़ता है क्योंकि टाइम्स समूह जिस भी कंपनी के साथ प्राइवेट ट्रीटी करता है, बाजार में उसका भाव चढ़ाने के लिए उसे सकारात्मक और बढ़ा-चढ़ाकर कवरेज देनी पड़ती है। इस तरह पाठकों को बिना बताए टाइम्स न सिर्फ उन्हें अंधेरे में रखता है बल्कि अपनी संपादकीय स्वतंत्रता और निष्पक्षता को भी अपने आर्थिक हितों के लिए दांव पर लगा रहा है।

जाहिर है कि यह प्रवृत्ति सिर्फ टाइम्स समूह तक सीमित नहीं है। माना जाता है कि टाइम्स समूह जो आज करता है, अन्य मीडिया समूह उसे कल करते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि अन्य मीडिया समूहों में भी यह प्रवृत्ति इस या अन्य दूसरे रूपों में बढ़ रही है। यह देश में एक स्वस्थ, स्वतंत्र, विविधतापूर्ण, बहुलतावादी और लोकतांत्रिक मीडिया के विकास के लिहाज से बुरी खबर है। इस मामले में इनाडु प्रकरण एक खतरे की घंटी है। मीडिया संस्थानों को इस बारे में गंभीरता से विचार और फैसला करना होगा कि मीडिया की स्वतंत्रता के दुरूपयोग को रोकने के लिए क्या ठोस कदम उठाए जाएं। अगर इस मुद्दे पर तत्काल कदम नहीं उठाये गए तो राजशेखर रेड्डी जैसी सरकारों को मीडिया की विश्वसनीयता और साख पर सवाल उठाने के साथ-साथ उन पर हमला करने और उनका मुंह बंद करने का मौका मिल जाएगा। कहने की जरूरत नहीं है कि यह उससे कहीं बड़ा खतरा है। लेकिन इस खतरे को रोकने के लिए मीडिया कंपनियों को खुद ही पहल करनी पड़ेगी।

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