सोमवार, सितंबर 24, 2007

समाचार चैनलों पर हावी बाजार...

समाचार चैनलों पर बढ़ता बाजार का दबाव समाचार कार्यक्रमों की गुणवत्ता का पैमाना बन गया है. रेटिंग और बाजार तय कर रहा है समाचारों की परिभाषा और उनका चयन.

यह समाचार चैनलों की क्रांति का दौर है। जानेमाने राजनीति विज्ञानी और ७७ के बाद की पत्रकारिता का इतिहास लिखनेवाले रॉबिन जैफ्री के शब्दों को उधार लेकर कहें तो अस्सी और नब्बे के दशक की समाचारपत्र क्रांति के बाद भारत आज एक टीवी समाचार क्रांति से गुजर रहा है। दुनिया के इतिहास में ऐसी और कोई नजीर नहीं दिखायी पड़ती है जहां कुछ ही वर्षों के अंदर टीवी के चालीस से अधिक राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचार चैनल करोड़ों दर्शकों के ड्राइंगरूम तक इस तरह पहुंचे हों। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि समाचार चैनलों की इस क्रांति से देश को क्या मिला है ? कभी किसी ने कहा था कि एक अच्छे अखबार की सबसे बड़ी खूबी यह होती है कि उसके जरिए पूरा देश खुद से बात कर रहा होता है। लेकिन क्या यही बात उन दर्जनों समाचार चैनलों के बारे में भी कही जा सकती है कि हर रात देश खुद को देख और सुन रहा होता है?

कुछ मीडिया विशेषज्ञ अधिक से अधिक समाचार चैनलों की उपस्थिति को लोकतंत्र में विचारों की विविधता और बहुलता के लिए जरूरी मानते हैं। लेकिन क्या दर्जनों समाचार चैनलों की उपस्थिति से विचारों की बहुलता और विविधता बढ़ी है ? क्या लोग पहले से अधिक सूचित हुए हैं ? क्या उनके बीच प्रतियोगिता से समाचार और सम-सामयिक कार्यक्रमों की गुणवत्ता बढ़ी है?

समाचार चैनलों में प्रतियोगिता : नकल में ही अकल है
अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि नहीं। व्यवहार में इसके ठीक उल्टा होता दिखाई दे रहा है। समाचार चैनलों के बीच प्रतियोगिता बढ़ने से उनमें कुछ अलग, नया और बेहतर करने के बजाय एक-दूसरे का नकल करने और इस प्रक्रिया में एक जैसा होने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। एक-दूसरे से आगे रहने की होड़, व्यवहार में एक-दूसरे की नकल और एक-दूसरे की विकृत और हास्यास्पद अनुकृति बनते जाने में स्खलित होती जा रही है। व्यावसायिक रूप से सफल किसी भी कार्यक्रम या आइडिया की दूसरे मीडिया चैनल पर अनुकृति आते देर नहीं लगती है। क्राइम शो, सिनेमा और क्रिकेट पर आधारित कार्यक्रम लगभग सभी चैनलों पर एक ही समय और एक ही तरह से प्रस्तुत किए जाते है। सच पूछिए तो समाचार चैनलों की होड़ अंधानुकरण का पर्याय बनती जा रही है। इस प्रक्रिया में वे एक ढलान पर लगातार फिसलते जा रहे हैं। लोकहित और सुस्पष्ट समाचार मूल्य के आधार पर किसी समाचार का चयन करने के बजाय चयन और कवरेज का पैमाना यह हो गया है कि प्रतिद्वंद्वी चैनल उसे दिखा रहा है या वह उसे कहीं पहले न दिखा दे।

हालत यह हो गयी है कि समाचार चैनलों में किसी घटना को कवर करने का तर्क उसके समाचार मूल्य से कहीं अधिक प्रतिद्वंद्वी समाचार चैनल द्वारा उसे प्रमुखता देने से बन रहा है। उन्हें हमेशा यह भय सताता रहता है कि प्रतिद्वंद्वी चैनल हमसे पहले उस घटना को दिखा न दे। चाहे वह घटना वास्तव में लोकहित से जुड़ी हो या नहीं लेकिन प्रतिद्वंद्वी चैनल पर उसका आना काफी है। अमेरिकी टीवी समाचार चैनल सीबीएस के जानेमाने एंकर पत्रकार डान रादर ने इस दबाव को इन शब्दों में बयान किया है, ''इस समय देश के सभी समाचार कक्षों में एक भय हावी है। यह बिल्कुल दूसरे तरह का भय है। यह भय है कि अगर हमने इसे नहीं किया तो कोई और करेगा और जब वह करेगा तो वह हमारी तुलना में कुछ और पाठक या श्रोता या दर्शक बटोर ले जाएगा। समाचारों का हालीवुडीकरण काफी गहरा हो चुका है।`` डान रादर का यह अनुभव सिर्फ अमेरिका तक सीमित नहीं है। इसे भारतीय समाचार कक्षों में भी इस भय को हावी होते हुए देखा जा सकता है।

समाचार चैनलों में इस भय का ही परिणाम है कि चैनलों के संपादकीय नियंता इस आधार पर फैसला कर रहे हैं कि अगर हमने 'ए बी सी` (जूली-मटुकनाथ, राखी सावंत-मीका, नाग-नागिन का पे्रम, प्रिंस आदि) नहीं दिखाया तो प्रतिद्वंद्वी चैनल दिखा देगा या किसी एक चैनल ने शुरूआत कर दी तो एक 'चेन-रिएक्शन` की तरह सभी चैनलों पर वह 'ए बी सी` छा जाता है। ऐसा लगता है कि पीछे रह जाने का यह डर संपादकीय विवेक तो दूर की बात है, कई बार सामान्य समझ और विवेक को भी लकवाग्रस्त कर देता है। कई बार जानते-समझते हुए भी 'पीछे रह जाने` का यह डर मूर्खताएं करने के लिए विवश कर देता है। जैसे चैनल के संपादक यह अच्छी तरह समझते हैं कि किसी ए बी सी सेलीब्रिटी की कवरेज के लिए एक-दूसरे पर गिरना-पड़ना मूर्खता है लेकिन इस मूर्खता से एक का अकेले निकलना मुश्किल है और अगर सब निकलने को तैयार न हों तो उसे जारी रहने से रोकना मुश्किल है।इस प्रवृत्ति का स्वाभाविक विस्तार यह है कि अगर प्रतिद्वंद्वी चैनल किसी 'घटना` पर आधारित 'खबर` (इसे परिभाषित करना लगभग मुश्किल हो गया है) से 'खेल` (चैनलों के अंदर इसी शब्द का इस्तेमाल किया जाता है) रहा है और उसे 'तानने` (यह भी चैनलों की आंतरिक संपादकीय शब्दावली का एक शब्द है जिसका तात्पर्य है किसी खबर को जरूरत से अधिक खींचना या फैलाना) में जुटा है तो दूसरा उसे और अधिक प्रमुखता और विस्तार से दिखाएगा या फिर उसी तरह की किसी दूसरी 'घटना` से 'खेलने` और उसे 'तानने` में जुट जाएगा।

इस तरह घटनाओं की प्रस्तुति में प्रतियोगिता का नतीजा एक दूसरे से ज्यादा सनसनीखेज, उत्तेजक, हल्केपन और दर्शकों के 'लोएस्ट कामन डिनॉमिनेटर` को सहलाने के रूप में सामने आ रहा है। समाचार चैनलों में घटनाओं को सनसनीखेज और उत्तेजक बनाने के लिए उन्हें ''जरूरत से कई गुना बढ़ाकर`` (ऑउट ऑफ प्रोपोर्शन) पेश किया जा रहा है। जाहिर है कि इसके लिए उन घटनाओं के प्रस्तुतिकरण में 'नाटकीयता` पर खासा जोर दिया जा रहा है। मशहूर फ्रेंच विचारक पियरे बोर्दू ने अपनी पुस्तक 'आन टेलीविजन` में इस प्रवृत्ति की और संकेत करते हुए लिखा है कि, ''टेलीविजन में नाटकीकरण की मांग की जा रही है। यह नाटकीकरण के दोनों ही अर्थों में देखी जा सकती है: वह किसी घटना को मंच पर उतार देता है और उसे छवियों/दृश्यों के रूप में सामने लाता है। ऐसा करते हुए वह उस घटना के महत्व, उसकी गंभीरता और उसके नाटकीय यहां तक कि उसके दुखांत (टै्रजिक) चरित्र को भी बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है।

समाचार चैनलों की ओर से बचाव में अक्सर तर्क दिया जाता है कि इसमें नया क्या है ? समाचार मीडिया में 'टैबलॉयडॉइजेशन` की प्रवृति बहुत पुरानी है। यह कहना काफी हद तक ठीक है लेकिन नयी बात यह है कि समाचार चैनल सार्वजनिक मसलों और प्रसंगों से हटकर अब लोगों के नितांत व्यक्तिगत जीवन, उसकी पीड़ा, संबंधों के निजी और असुविधाजनक पहलुओं और दुखों को निहायत ही असंवेदनशील, भोंडे और कई बार अश्लीलता की हद तक जाकर पेश कर रहे हैं।

समाचार चैनलों पर अक्सर शाम को आप स्टूडियो में पति, पत्नी, प्रेमिका ; पिता-पुत्र/पुत्री और सास-बहू-बेटा-भाई तथा अन्य रिश्तेदारों की तू-तू, मैं-मैं और रोना-धोना सुन सकते हैं।समाचार चैनलों की टीवी स्क्रीन एक तरह से पड़ोसी के घर में झांकने की खिड़की हो गयी है। लेकिन इस प्रक्रिया में टीवी के दर्शकों को 'दृश्यरतिक` (व्यॉय) में बदल दिया गया है जहां वे सेलिब्रिटी और कई बार अपने जैसे ही किसी आम आदमी की व्यक्तिगत पीड़ा, निजी शर्मिंदगी और अंतरंग संबंधों के चटपटे विवरणों की सार्वजनिक प्रदर्शनी में 'परपीड़क मनोरंजन` का आनंद लेने लगते हैं। इससे कौन सा उद्देश्य सधता है, कहना मुश्किल है और उससे भी मुश्किल है यह बता पाना कि चैनल इसके जरिए क्या संदेश देना चाहते हैं ?

चैनलों का मुंबइयाकरण : सूचना नहीं, मनोरंजन
इस प्रवृत्ति का एक और पहलू है, खबरों या घटनाओं को मनोरंजक बनाकर पेश करने पर जोर। चाहे घटना कितनी ही गंभीर और दुखांत क्यों न हो, उसकी प्रस्तुति में मनोरंजन और मेलोड्रामा का तत्व जरूरी माना जाता है। इस मामले में समाचार चैनलों और टीवी के मनोरंजन चैनलों और यहां तक कि मुंबइया फिल्मों के बीच का अंतर तेजी से खत्म होता हो रहा है। यह क्या सिर्फ संयोग है कि टीवी समाचार चैनलों का वैकल्पिक न्यूज सेंटर मुंबई बनता जा रहा है। टीवी समाचार चैनलों के 'मुंबइयाकरण` का सीधा असर यह हुआ है कि गंभीर खबरों और मुद्दों से परहेज किया जाने लगा है और जब उन्हें बुलेटिन में शामिल भी किया जाता है तो सर्कस बनाकर। चुनाव की कवरेज 'कौन बनेगा मुख्यमंत्री` और 'चुनावी कव्वाली` में सीमित कर दी जाती है जबकि आर्थिक खबरों का मतलब सेंसेक्स का चढ़ना-गिरना हो गया है। घटनाओं के कवरेज में 'मेलोड्रामा` और मुंबइयाकरण की बढ़ती छाप का ही नतीजा है कि समाचार मीडिया के एजेंडे पर अपराध, सेलिब्रिटी, व्यक्तिगत अफेयर्स, नाइट पार्टीज, फैशन, लाइफ स्टाइल, खेल और तथाकथित 'ह्यूमन इंटरेस्ट स्टोरीज` का दबदबा बढ़ता जा रहा है। तर्क दिया जाता है कि दर्शक राजनीति से ऊब गए है और वे इससे इतर 'मानवीय रूचि` की खबरें देखना चाहते हैं। 'मानवीय रूचि` की परिभाषा और उसका अर्थ अपनी सुविधानुसार किया जाता है। 'मानवीय रूचि` को गंभीर राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक समस्याओं, सवालों और मुद्दों से जुड़ी खबरों से उलट और हल्की-फुल्की अराजनीतिक खबरों का पर्याय बना दिया गया है।

पियरे बोर्दू ने लिखा है, ''मानवीय रूचि के समाचार एक राजनीतिक शून्य पैदा करते हैं। वे अराजनीतिकरण और दुनिया में घट रही घटनाओं को स्कैंडल या किस्सों में सीमित कर देते हैं। ऐसा दर्शकों का ध्यान उन घटनाओं की ओर खींचकर या उनका ध्यान उसमें ही फंसाए रखकर किया जाता है जिनका कोई राजनीतिक प्रभाव नहीं होता है लेकिन उनका इस तरह से नाटकीकरण किया जाता है, जैसे उससे 'सबक लेने` की कोशिश की जा रही है या उसे 'सामाजिक समस्या` के एक उदाहरण के बतौर प्रस्तुत किया जाता है। यहीं पर, हमारे टीवी के 'दार्शनिकों` (विशेषज्ञों/जानकारों) को उन अर्थहीन किस्से-कहानियों या आकस्मिक घटनाओं को अर्थ देने के लिए बुलाया जाता है, जिन्हें कृत्रिम तरीके से मंच के केन्द्र में लाकर खास महत्व दे दिया जाता है।`` बोर्दू आगे लिखते है, ''सनसनीखेज खबरों और इसके जरिए व्यावसायिक सफलता की यह खोज उन समाचारों के चयन की ओर जाती है जो जनोत्तेजना (चाहे स्वत:स्फूर्त हो या जानबूझकर निर्मित) की बेलगाम रचना की खुली छूट देते हैं या जो निहायत ही आदिम भावनाओं और प्रेरणाओं को पुचकारते हुए जबरदस्त उत्तेजना पैदा करते हैं।`` इसी प्रवृत्ति का नतीजा है कि अपराध की खबरों को अधिक से अधिक उत्तेजक बनाने के लिए उस पूरी आपराधिक घटना की 'पुनर्प्रस्तुति` (रीइनेक्टमेंट) समाचार चैनलों के सर्वाधिक लोकप्रिय 'क्राइम शो` कार्यक्रमों की पहचान बन गयी है।

ऐसा लगता है जैसे समाचार चैनल बिल्कुल वास्तविक यथार्थ (रीयलिटी) को प्रस्तुत कर रहे हैं लेकिन जैसा कि बोर्दू ने लिखा है ''यथार्थ को उसकी पूरी स्वाभाविकता के साथ प्रस्तुत करने से कठिन काम कुछ भी नहीं है।`` ब्रेकिंग न्यूज और एक्सक्लूसिव : देर से दुर्घटना भली! समाचार चैनलों में एक प्रवृत्ति और जोर पकड़ रही है कि वे एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हमेशा 'एक्सक्लूसिव` और 'बे्रकिंग न्यूज` की तलाश में रहते हैं। 'एक्सक्लूसिव` और 'ब्रेकिंग न्यूज` का दबाव इस हद तक बढ़ गया है कि हास्यास्पद स्तर तक एक जैसी खबरें और इंटरव्यू सभी चैनलों पर 'एक्सक्लूसिव` शीर्षक से एक ही साथ चलते हुए देखे जा सकते हैं। सच पूछिए तो ब्रेकिंग न्यूज और एक्सक्लूसिव एक तरह के मजाक से हो गए हैं और वे अपना वास्तविक अर्थ खो चुके हैं।

वरिष्ठ पत्रकार पी साईंनाथ का यह कहना बहुत हद तक सही है कि समाचार चैनलों पर बे्रकिंग न्यूज का तात्पर्य यह है कि वह 'खबर` चैनल पर पहली बार आई है। एक्सक्लूसिव का अर्थ है कि चैनल का संवाददाता वास्तव में घटनास्थल पर पहुंचा था। आखिर समाचार चैनलों के स्क्रीन पर हमेशा बे्रकिंग न्यूज और एक्सक्लूसिव क्यों चलाया जाता है ? इसकी वजह यह है कि समाचार चैनल दर्शकों को अपने साथ रोककर रखने के लिए अपने स्क्रीन पर हमेशा कुछ नया और उत्तेजक घटने का आभास देते रहना चाहते हैं। टीवी के २४ घंटे के समाचार चैनलों के आने के बाद हमेशा कुछ नया और वह भी पहले (बे्रकिंग न्यूज) दिखाने का दबाव इतना अधिक बढ़ गया है कि चैनलों के संपादकीय कक्ष की आधी से अधिक उर्जा खबर को 'ब्रेक` करने में ही जाया हो जाती है।

बोर्दू ने लिखा है कि, ''चैनल वाले किसी भी घटना को सबसे पहले दिखाने और पेश करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। एक दूसरे से आगे रहने की होड़ का नतीजा यह हो रहा है कि सभी एक-दूसरे की नकल कर रहे हैं और सभी वही करते हुए दिखाई दे रहे हैं। एक्सक्लूसिव की खोज जो अन्य जगहों पर मौलिकता और अपूर्वता की ओर ले जाती है, यहां एकरूपता और घिसे-पीटे रूप में सामने आती है।`` यही नहीं, सबसे तेज की जल्दबाजी में पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों जैसे खबर देने से पहले कम से कम दो स्रोतों से उसकी सत्यता की पुष्टि का ध्यान नहीं रखा जा रहा है। सबसे पहले और सबसे तेज के चक्कर में कई बार खबरे बिना पुष्टि के चलती हैं और इस तरह खबर और अफवाह के बीच का फर्क समाप्त हो जाता है।

ऐसा लगता है जैसे चैनलों के लिए अफवाह भी खबर बन गई है। शायद यही कारण है कि बाद में गलत और अपुष्ट खबरों के लिए माफी मांगने और सच्चाई बताने की भी जरूरत नहीं समझी जाती। यह सामान्य समझ से परे है कि अगर पुष्ट और सही खबर घंटे/आधे घंटे देर से भी मिले तो दर्शकों का क्या बिगड जाएगा? लेकिन नहीं, चैनलों के लिए देर से दुर्घटना भली है।

समाचार चैनलों पर 'रीयलिटी शो` : कंगारू अदालत से लेकर स्टूडियो यथार्थ तक समाचार चैनलों में नाटकीयता और मनोरंजन के प्रति आकर्षण रीयलिटी शो तक पहुंच गया है। ये रीयलिटी शो कंगारू अदालत से लेकर स्टूडियो में रचे गए कृत्रिम और आभासी यथार्थ के कॉकटेल के बतौर सामने आ रहे हैं। दरअसल, चैनलों के समाचार एजेंडे में गुड़िया प्रकरण के बाद 'रीयलिटी शो` आयोजित करने आकर्षण बहुत बढ़ गया है। इस प्रकरण ने वस्तुत: समाचार चैनलों को भविष्य की पारिवारिक/सामुदायिक पंचायतों या अदालतों की तरह पेश करने का रास्ता खोल दिया। इससे अत्यंत प्रतिक्रियावादी, स्त्रीविरोधी और जाति/गोत्रवादी पंचायतों और पंडितों-मौलवियों की धार्मिक अदालतों को एक नयी वैधानिकता और मान्यता मिली है। आश्चर्य की बात नहीं है कि गुड़िया प्रकरण के कुछ ही दिन बाद हरियाणा की एक जातीय/गोत्र पंचायत के फैसले को टीवी समाचार चैनलों ने ऐसे दिखाया जैसे उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया हो। यही नहीं, ऐसी जाति/गोत्र/धार्मिक पंचायतों के फैसलों को जिस तरह से बिना किसी आलोचना के 'सम्मान` के साथ उछाला जा रहा है, उससे इन पंचायतों को नयी स्वीकृति और सक्रियता मिली है। यह कोई अच्छा संकेत नहीं है। ऐसी पंचायतों के मध्ययुगीन सोच और क्रियाकलापों को प्रोत्साहन देने का नतीजा बहुत घातक और खतरनाक हो सकता है। स्त्रियों, कमजोर वर्गों, अल्पसंख्यकों और दलितों को इन पंचायतों के क्रूर और बर्बर फैसलों का खामियाजा भुगतना पड़ेगा। इसी तरह रीयलिटी शो का एक और रूप उन पारिवारिक झगड़ों खासकर पति, पत्नी और प्रेमी/प्रेमिका (फिल्मी त्रिकोण) के बीच के विवाद या मां-पिता और बच्चों के बीच के व्यक्तिगत विवादों और झगड़ों को स्टूडियो में खींच लाने के रूप में सामने आ रहा है। मटुकनाथ-जूली और मिका-राखी सावंत जैसे प्रसंगों को चटखारे लेते हुए नैतिकता का सार्वजनिक प्रश्न बना दिया जाता है। स्टूडियो में फैसले होने लगते हैं। इससे उन्हीं स्टीरियाटाइप छवियों को और मजबूत होने का मौका मिलता है जो आमतौर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों, स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों को लेकर पहले से बनी होती है। चिंता की बात यह है कि ऐसी घटनाओं या समस्याओं के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक एंगल को अनदेखा करके उसके 'व्यक्तिगत पक्ष` को उछाला जाता है।

चैनलों में 'डंबिंग डाउन : प्रक्रिया नहीं, घटना पत्रकारिता
इस तरह, अत्यंत जटिल घटनाओं और राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से उनके संबंधों को नजरअंदाज करते हुए उनके प्रस्तुतिकरण में सरलीकरण और अति सरलीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावाा दिया जा रहा है। इसका सीधा संबंध खबरों को 'हल्का` और 'मूक-बधिर` (डबिंग डाउन) बनाने की प्रवृत्ति से है जो सभी किस्म के समाचार मीडिया पर एक दर्शन की तरह छा गया है। दरअसल, समाचार लेखन और प्रस्तुति में जिन छह ककारों-क्या, कब, कहां, कौन, कैसे और क्यों- को शामिल करने पर जोर दिया जाता रहा है, उनमें से खबरों को 'हल्का` बनाने की प्रक्रिया में 'कैसे और क्यों` को गायब कर दिया गया है और पूरा जोर 'क्या और कौन` पर केन्द्रित कर दिया गया है।

जाहिर है कि कोई घटना 'क्यों` हुई, इसकी गहराई से जांच-पड़ताल नहीं की जाती या फिर 'आधिकारिक सूत्रों` या 'प्रभावशाली सूत्रों` के स्पष्टीकरण को बिना किसी आलोचनात्मक जांच-पड़ताल के खबर के साथ नत्थी कर दिया जाता है। दरअसल, समाचार चैनलों में घटनाओं पर आधारित साउंड बाइट पत्रकारिता इस हद तक हावी हो गई है कि उन घटनाओं के पीछे की प्रक्रिया को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है। चैनल एक घटना से दूसरी घटना के बीच दौड़ते रहते हैं और यह बताने की कभी जरूरत नहीं समझते कि ऐसा क्यां हो रहा है ? वैसे भी टेलीविजन में विजुअल्स पर अतिरिक्त जोर समाचार चैनलों में घटनाओं के कवरेज के प्रति अत्यधिक झुकाव के रूप में सामने आता है। घटनाओं के पीछे की प्रक्रिया विजुअल्स से परे होने के कारण समाचार चैनलों के लिए भी अंजानी बन जाती है।

बीबीसी के जानेमाने पत्रकार जॉन बर्ट के शब्दों में कहें तो टेलीविजन समाचारों में विजुअल्स पर अतिरिक्त जोर समझदारी के खिलाफ एक पूर्वाग्रह के रूप में सामने आता है। समाचारों को हल्का बनाने की प्रक्रिया का ही विस्तार है- समाचारों को अपराध, सेलिब्रिटी, लाइफ स्टाइल, फैशन, गॉसिप और महानगरों तक सीमित कर देना। इस मामले में टीवी और अखबारों में कोई बुनियादी फर्क नहीं रह गया है। सच तो यह है कि जैसे टीवी के समाचार चैनलों के बीच प्रतियोगिता अंधी दौड़ और एक-दूसरे के नकल में तब्दील होती जा रही है, वैसे ही अखबारों और टीवी समाचार चैनलों की होड़ में अखबार अधिक-से-अधिक टीवी की नकल (खासकर अन्तर्वस्तु के मामले में) बनते जा रहे हैं। गुड़िया से लेकर मटुकनाथ-जूली तक के मामले में अखबारों और टीवी के कवरेज में कोई बुनियादी फर्क नहीं था।

चैनलों का अर्थशास्त्र : टीआरपी का, टीआरपी के लिए और टीआरपी के द्वारा
सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? जाने-माने मीडिया समीक्षक बेन बैगडिकियन ने लिखा है कि, ''गंभीर कार्यक्रम दर्शकों को याद दिलाते हैं कि जटिल मानवीय समस्याएं किसी नए पाउडर या डिओडरेंट के इस्तेमाल से नहीं सुलझती हैं।`` लेकिन समाचार चैनलों का पूरा अर्थशास्त्र पाउडरों, डिओडरेंट, साबुनों और टूथपेस्टों आदि पर टिका हुआ है। समाचार मीडिया अपने कार्यक्रमों के जरिए दर्शक बटोरकर उन विज्ञापनदाताओं को बेच देता है जिनका मकसद अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए दर्शकों को लुभाना और उकसाना होता है। अधिकांश समाचार चैनलों में बड़ी पूंजी खासकर देशी-विदेशी बड़े निवेशकों की पूंजी लगी हुई है। उन्हें मीडिया कंपनियों से हर हाल में मुनाफा चाहिए और यह मुनाफा किसी आईटी, ऑटोमोबाइल, फार्मास्युटिकल कंपनी के मुनाफे से कम नहीं होना चाहिए। चैनलों के अर्थशास्त्र की यह सबसे बड़ी सीमा या समस्या है कि वे किसी लोकहित के लिए नहीं बल्कि अपने देशी-विदेशी निवेशकों के मुनाफे के लिए काम करते हैं।

पूंजीवादी मीडिया के साथ यह समस्या शुरू से रही है। लेकिन समाचार चैनलों के मामले में यह समस्या इसलिए एक संकट में बदल गई है क्योंकि निवेशकों की मुनाफे की भूख लगातार बढ़ती जा रही है। इस कारण समाचार चैनलों के प्रबंधन और संपादन पर अधिक से अधिक मुनाफा बनाने का दबाव बढ़ता जा रहा है। जाहिर है कि यह मुनाफा मुख्यत: विज्ञापनों और कुछ हद तक पे चैनलों के लिए दर्शकों के सब्सक्रिप्शन से आता है। यह दोनांे दर्शकों की संख्या और उनकी क्रयशक्ति पर निर्भर करते हैं। समाचार चैनल अपने दर्शकों को नागरिक नहीं बल्कि उपभोक्ता मानकर व्यवहार करते हैं। नागरिक और उपभोक्ता में फर्क होता है। इस कारण उनकी सूचना जरूरतें भी अलग होती हैं। चैनलों को नागरिक नहीं, उपभोक्ता चाहिए जिन्हें बटोरकर वे विज्ञापनदाताओं को बेच देते हैं। इस कारण आज समाचार चैनलों के बीच प्रतियोगिता कार्यक्रमों की गुणवत्ता और उनके स्तर को लेकर नहीं है बल्कि अधिक से अधिक दर्शक बटोरने की है जिसका बाजार की ओर से निश्चित एकमात्र पैमाना टीआरपी है। टेलीविजन में टीआरपी के प्रति जितनी संवेदनशीलता है, उतनी किसी भी चीज के लिए नहीं है। बोर्दू के अनुसार, ''रेटिंग पत्रकारों के लिए अंतिम फैसले की तरह हो गयी है।`` कार्यक्रमों की गुणवत्ता और उसकी स्तरीयता का एकमात्र पैमाना टीआरपी रेटिंग हो गयी है। हालत यह हो गई है कि टीवी समाचार चैनलों के संपादकीय कक्ष में समाचारों के चयन, प्रस्तुति और कार्यक्रमों की संरचना का निर्णय करते हुए जिस एक कारक को सबसे अधिक ध्यान में रखा जा रहा है, वह समाचार मूल्य, लोकहित, संतुलन और वस्तुनिष्ठता जैसे मूल्य या पैमाने नहीं हैं बल्कि टीआरपी रेटिंग है। चिंता की बात यह है कि रेटिंग की होड़ में आगे रहने का यह दबाव चैनलों के अंतर्वस्तु में कई तरह की विकृतियां को जन्म दे रहा है।

चैनलों में पत्रकारीय उसूलों और स्थापित मान्यताओं के बरखिलाफ समाचार 'गढ़ने` में भी संकोच नहीं हो रहा है। उदाहरण के लिए सबसे तेज चैनल ने अपनी अव्वल रेटिंग बनाए रखने के लिए एक शाम सभी और खबरें रोककर करीब छह घंटे तक बिना ड्राइवर की कार का ड्रामा रचा। छह घंटे तक पूरे देश को बेवकूफ बनाया गया। क्या जो सच्चाई छह घंटे बाद सामने लाई गई, उसे पहले नहीं पता किया जा सकता था ? यह पत्रकारिता का बुनियादी सिद्धांत है कि किसी समाचार के प्रकाशन/प्रसारण से पहले उसकी जांच-पड़ताल और पुष्टि कर ली जाए। चौंकानेवाली बात यह है कि उससे एक दिन पहले ही मालेगांव में बम विस्फोट में दर्जनों लोग मारे गए थे और देश ताजा स्थिति जानना चाहता था। लेकिन सबसे तेज चैनल के लिए बिना ड्राइवर की कार की तुलना में इसका कोई समाचारीय महत्व नहीं था। सच यह है कि कार तो बिना ड्राइवर के नहीं चल रही थी लेकिन ऐसा लगता है कि चैनल जरूर बिना संपादकों के चल रहा है। आखिर संपादकों की भूमिका क्या है ? इसे एक बार का भटकाव (एबरेशन) भी नहीं माना जा सकता है। उसी चैनल ने उसके अगले ही सप्ताह फिर एक शाम प्राइम टाइम पर एक बच्चे के पीछे पड़ी नागिन को नाटक रचा। हालांकि उस शाम हवाना में मनमोहन सिंह और जनरल मुशर्रफ की महत्वपूर्ण मुलाकात हो रही थी। भले ही देश उस मुलाकात के बारे में जानने को उत्सुक था लेकिन चैनल के लिए 'नागिन का बदला` ड्रामा कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण था। ऐसी घटनाओं की सूची लंबी है और यह जोड़ना भी जरूरी है कि कुछेक अपवादों को छोड़कर इस प्रवृत्ति से कोई भी चैनल अछूता नहीं बचा है। ऐसा लगता है कि बिना किसी अपवाद के सारे समाचार चैनल क्षणजीवी हो गए हैं। उनका सारा ध्यान हर सप्ताह शुक्रवार को आने वाली टीआरपी पर केंद्रित रहता है। वे उस एक सप्ताह से आगे देखने में मानसिक रूप से अक्षम हो गए हैं। उनपर एक तरह से 'सेल` की मानसिकता हावी रहती है कि चाहे जैसे हो, बेचो और निकलो। इस हफ्ते अगर टीआरपी रेटिंग में चैनल पहले स्थान पर है तो समाचार कक्षों और बोर्डरूम में पार्टियां होती हैं और लोकप्रियता की जंग में जीत के सार्वजनिक दावे किए जाते हैं।

इसे देखकर लगता ही नहीं है कि वे उस हफ्ते के बाद भी चैनल चलाने वाले हैं। लेकिन क्या उन्हें यह पता नहीं है कि आप अपने दर्शकों को एक बार, दो बार, तीन बार, चार बार.....बेवकूफ बना सकते हैं लेकिन कभी न कभी तो आपकी धोखाधड़ी पकड़ी जाएगी। समाचार चैनल और रेटिंग : टीआरपी से आगे जहां और भी है हैरानी की बात यह है कि जिस रेटिंग के आधार पर यह तय होता है, वह स्वयं में इतनी विवादास्पद, अवैज्ञानिक, अंतर्विरोधी, पक्षपातपूर्ण और गड़बड़ियों से भरी है कि उसे 'लोकप्रियता' का पैमाना मानना भी एक बड़ी भूल है। लेकिन बाजार उसी रेटिंग से समाचार मीडिया को हांक रहा है और कहीं कोई सवाल नहीं उठाया जा रहा है। यही नहीं, सवाल उठानेवालों का यह कहकर मजाक उड़ाया जाता है कि उन्हें माध्यम की समझ नहीं है या उन्हें कुंठित बताकर नजरअंदाज करने की कोशिश होती है। ऐसा नहीं है कि चैनलों के अंदर संवेदनशील और समझदार संपादक और पत्रकार नहीं हैं। वे भी कम बेचैन नहीं हैं लेकिन समाचार चैनलों के कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया में उस संपादकीय विवेक और साहस को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया गया है जिसे राज्य दमन भी नहीं झुका पाया।

मशहूर मीडिया आलोचक रॉबर्ट मैक्चेस्ने ने अमेरिकी मीडिया के कारपोरेटीकरण के परिणामों की ओर इशारा करते हुए लिखा है कि मीडिया कंपनियों के कारपोरेट टेकओवर के बाद संपादकों और दूसरे पत्रकारों की तनख्वाहों में भारी वृद्धि करके उन्हें प्रबंधकों के बराबर ला खड़ा किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि पत्रकारों के लिए मोटी तनख्वाहों की नौकरियों को छोड़ना दिन-पर-दिन मुश्किल होता चला गया। परिणाम जिन पत्रकारों को राज्य दमन नहीं झुका पाया, उन्हें मोटी तनख्वाहों ने झुकने के लिए मजबूर कर दिया है। यह अमेरिकी अनुभव बहुत हद तक भारतीय समाचार चैनलों पर भी लागू होता है।

क्या आपने पिछले कुछ महीनों या सालो में किन्हीं नीतिगत मतभेदों के कारण किसी चैनल संपादक या पत्रकार को इस्तीफा देते हुए सुना है ? आखिर वह संपादकीय विवेक और साहस कहां गया जिसे इमरजेंसी दबा नहीं पायी और गोयनका झुका नहीं पाए। कुछ लोगों को ये सवाल बेमानी लग सकते हैं लेकिन सच यह है कि इन सवालों का संबंध व्यापक जनतांत्रिक मुद्दों और सवालों से है। समाचार चैनल सिर्फ मनोरंजन के साधन नहीं हैं। जनतंत्र में उनकी पहली भूमिका लोगों को सूचित करना है। लोग जितने बेहतर सूचित होंगे, लोकतंत्र उतना ही गतिशील और मजबूत होगा। सवाल यह है कि समाचार चैनल लोगों को कितना सूचित कर रहे हैं ? अगर सूचनाओं के लिए समाचार चैनलों पर निर्भर रहने वाले लोगों के बीच सार्वजनिक और जनहित से जुड़े मुद्दों पर उनकी जानकारी का स्तर जांचने के लिए एक सर्वेक्षण किया जाए तो यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि नतीजा क्या निकलेगा ?

सवाल सिर्फ सूचना और जानकारियों के स्तर का नहीं है बल्कि जनतंत्र में समाचार मीडिया के राष्ट्रीय एजेंडा तय करने की उस भूमिका से भी जुड़ा हुआ है जो जनतांत्रिक राजनीति की दशा और दिशा तय करती है। समाचार चैनल अगर हर दिन इस या उस जूली-मटुकनाथ और मीका-राखी जैसे प्रसंगों को 'तानने` में जुटे रहेंगे, तो उससे सबसे अधिक खुशी मनमोहन सिंह को होगी। उन्हें रात में नींद अच्छी आएगी क्योंकि अगर चैनलों ने विदर्भ के किसानों की आत्महत्या जैसे मुद्दों को एजेंडा बनाना शुरू कर दिया तो वे चैन से कैसे सो सकेंगे ? समाचार चैनल जनतंत्र में वह 'पब्लिक स्फेयर` बनाते हैं जहां देश अपने जीवन-मरण के गंभीर सवालों पर सार्वजनिक चिंता और बहस-मुबाहिसा कर सकता है। इससे ही राष्ट्रीय एजेंडा बनता है। सत्ता में बैठे लोगों की जिम्मेदारी ओर जवाबदेही तय होती है। उन्हें हरकत में आना पड़ता है। जवाब देना पड़ता है। लेकिन जब चैनल मीका-राखी या क्रिकेट-क्रिकेट खेलने लगते हैं तो वे अपनी इस भूमिका का समर्पण कर देते है।

जाहिर है कि समाचार चैनलों को उस टीआरपी से आगे देखने की जरूरत है जो उनकी जनतांत्रिक भूमिका को खत्म करने पर तुली हुई है। निराशा के बीच अच्छी खबर यह है कि पिछले दिनों समाचार चैनलो के संपादकांे ने इस दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए एक साथ मिल बैठकर बातचीत करने का फैसला किया है। देर से ही सही लेकिन यह एक अच्छी शुरूआत हो सकती है। इससे कुछ उम्मीद बनती है। कहना मुश्किल है कि यह पहल किस हद तक चैनलों की उस गलाकाट व्यावसायिक प्रतियोगिता के अवरोध को पार कर पाएगी जिसने समाचार कक्षों को पागलखाने में तब्दील कर दिया है। यह पहल चाहे जहां पहुंचे, उसे हमारी शुभकामना लेकिन समाचार चैनलों पर नीचे से भी एक सामाजिक नियंत्रण और दबाव बनाने का समय आ गया है। जनतांत्रिक संगठनों, नागरिक समाज के संगठनों और बुद्धिजीवियों को भी इस सवाल को अपने एजेंडे पर लाना होगा। उन्हें दर्शकों के मीडिया साक्षरता के लिए पहल करनी होगी। दर्शकों में समाचार मीडिया के बारे में एक आलोचनात्मक समझ पैदा करनी होगी ताकि वे उसके निष्क्रिय दर्शक उपभोक्ता बने रहने के बजाय एक सक्रिय नागरिक के रूप में अपने सूचना के हक की मांग करें।

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