सोमवार, फ़रवरी 24, 2014

नीडो की कुर्बानी

उत्तर पूर्व के साथ भेदभाव में मीडिया भी शामिल है

देश की राजधानी में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ होनेवाला नस्ली भेदभाव एक ऐसा बर्बर और कड़वा सच है जिसे जानते सब हैं लेकिन सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने के लिए कम ही तैयार होते हैं. चाहे पुलिस-प्रशासन हो या मीडिया या फिर सिविल सोसायटी- सब अलग-अलग कारणों से उससे आँख चुराते हैं या बहुत दबी जुबान में चर्चा करते हैं.
अफ़सोस की बात यह है कि दिल्ली और देश के अन्य राज्यों/शहरों में उत्तर पूर्व के लोगों को जिस तरह का नस्ली भेदभाव, उत्पीडन और अपमान झेलना पड़ता है, उसे मुद्दा बनाने और न्यूज मीडिया सहित नागरिक समाज की चेतना को झकझोरने के लिए अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानिया को अपनी जान देनी पड़ी.
अफ़सोस यह भी कि शुरू में कई चैनलों और उनके रिपोर्टरों ने पुलिस के तोते की तरह नीडो की मौत को ‘मामूली मारपीट और ड्रग्स के ओवरडोज’ जैसी स्टीरियोटाइप ‘स्टोरीज’ से दबाना-छुपाना चाहा.

लेकिन सलाम करना चाहिए उत्तर पूर्व के उन सैकड़ों छात्र-युवाओं और प्रगतिशील-रैडिकल छात्र संगठनों का जिन्होंने नीडो की नस्ली हत्या के बाद लाजपतनगर से लेकर जंतर-मंतर तक अपने गुस्से और विरोध का इतना जुझारू इजहार किया कि मीडिया से लेकर राजनीतिक पार्टियों-नेताओं और सरकार-पुलिस-प्रशासन को उसे नोटिस करना पड़ा. उन चैनलों/अखबारों का भी जिन्होंने पुलिस की प्लांटेड स्टोरीज को ख़ारिज करके इसे मुद्दा बनाया.

नतीजा, उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव का मुद्दा एक बार न्यूज मीडिया की सुर्ख़ियों में है. हालात कितने खराब हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि नीडो की हत्या के खून अभी सूखे भी नहीं थे कि राजधानी में मणिपुर की एक बच्ची के साथ बलात्कार और एक युवा पर जानलेवा हमले का मामला सामने आ गया.
ऐसा नहीं है कि इससे पहले ऐसी घटनाएं नहीं होती थीं लेकिन होता यह था कि या तो उन्हें दबा दिया जाता दिया जाता था या फिर उन्हें रुटीन अपराध के मामले मानकर निपटा दिया जाता था. नस्ली छींटाकशी और उपहास तो जैसे आम बात थी. 
लेकिन नीडो की मौत के बाद लगता है उत्तर-पूर्व के युवाओं का धैर्य जवाब देने लगा है. वे इसे और सहने के बजाय इससे लड़ने और चुनौती देने का मन बना चुके हैं. इससे चैनलों-अख़बारों से लेकर सिविल सोसायटी की अंतरात्मा भी जागी दिखती है. अगले लोकसभा चुनावों के कारण नेताओं का दिल भी फटा जा रहा है.

क्या स्थिति बदलेगी या फिर कुछ दिनों बाद फिर किसी नीडो को जान देनी पड़ेगी? यह सवाल पूछना इसलिए जरूरी है क्योंकि उत्तर पूर्व के लोगों के साथ लंबे समय से जारी नस्ली भेदभाव के लिए एक खास सवर्ण हिंदू राष्ट्रवादी-मर्दवादी-नस्लवादी मानसिकता जिम्मेदार है जिसकी जड़ें पुलिस-प्रशासन से लेकर मीडिया तक में फैली हुईं है. इसके शिकार सिर्फ उत्तर पूर्व के ही नहीं बल्कि सभी कमजोर वर्ग और अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम-सिख और आदिवासी आदि हैं.

यह इतनी आसानी से खत्म होनेवाला नहीं है. इससे लड़ने के लिए न सिर्फ इस मानसिकता को चुनौती और एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है बल्कि नस्लभेद के उन सभी दबे-छिपे रूपों और स्टीरियोटाइप्स को खुलकर नकारना और सार्वजनिक मंचों को ज्यादा से ज्यादा समावेशी बनाना होगा.
अपने न्यूज चैनलों को ही देख लीजिए, उनके कितने एंकर/रिपोर्टर उत्तर पूर्व के हैं? इन चैनलों पर उत्तर पूर्व की ख़बरों को कितनी जगह मिलती है? कितने चैनलों के उत्तर पूर्व में रिपोर्टर हैं? मनोरंजन चैनलों पर कितने धारावाहिकों के पात्र उत्तर पूर्व के हैं? उत्तर पूर्व को लेकर उपेक्षा, भेदभाव और स्टीरियोटाइप्स की यह सूची बहुत लंबी है.
क्या नीडो की मौत के बाद न्यूज मीडिया अपने अंदर भी झांकेगा? क्या इस ‘पब्लिक स्फीयर’ में भी हम कुछ बदलाव की उम्मीद करें?

('तहलका' के 28 फ़रवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)   


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