रविवार, फ़रवरी 16, 2014

मोदीनोमिक्स की सच्चाई

गैर बराबरी बढ़ानेवाली नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार हैं मोदी  

हालिया चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में लोकसभा चुनावों में एन.डी.ए के सत्ता के करीब पहुँचने और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की बढ़ती संभावनाओं से भाजपा नेताओं और समर्थकों के बाद सबसे ज्यादा खुशी कारपोरेट जगत और मुंबई शेयर बाजार को हुई है.
आश्चर्य नहीं कि शेयर बाजार तुरंत उछलने लगा, कारपोरेट जगत ने अर्थव्यवस्था के लिए स्थिर सरकार की जरूरत बताते हुए संतोष जाहिर किया और गुलाबी अखबारों ने राहत की सांस ली. निश्चय ही, भारतीय अर्थव्यवस्था की कमजोर स्थिति के कारण अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी- मूडी की रेटिंग गिराने (डाउनग्रेड) की चेतावनी के बावजूद मोदी के सत्ता में आने की ‘खबर’ से उछलते शेयर बाजार की खुशी बहुत कुछ कहती है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और उसके कारपोरेट प्रतिनिधियों ने इस बार लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी पर दांव लगाया है और वे हर हाल में उन्हें प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं. इसकी वजह भी किसी से छुपी नहीं है.

घोषित तौर पर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को नरेन्द्र मोदी में एक “सख्त, निर्णायक और परिणामोन्मुखी” प्रशासक दिखाई पड़ रहा है जो अर्थव्यवस्था को मौजूदा “संकट” और “नीतिगत लकवे” की स्थिति से बाहर निकालकर पटरी पर ला सकता है. कार्पोरेट्स की मोदी में इस भरोसे की बड़ी वजह यह है कि गुजरात में मोदी ने यह करके दिखाया है.

असल में, कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी पूंजी को नरेन्द्र मोदी से बहुत उम्मीदें हैं. उसे लगता है कि मौजूदा परिस्थितियों में मोदी में ही वह राजनीतिक कौशल और क्षमता है कि वे कारपोरेट-परस्त नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों के हलक में उतार और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को और अधिक रियायतें और छूट दे सकते हैं.
कार्पोरेट्स को अच्छी तरह से पता है कि अगले दौर के आर्थिक सुधार आसान नहीं हैं और उन्हें लागू करने में कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार की नाकामी के बाद मोदी से ही उम्मीदें बची हैं. हैरानी की बात नहीं है कि नव उदारवादी अर्थशास्त्रियों से लेकर शेयर बाजार के सटोरियों तक और बड़ी पूंजी के मुखपत्र गुलाबी अखबारों से लेकर औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठनों जैसे फिक्की, सी.आई.आई आदि तक सभी खुलकर मोदी की वकालत कर रहे हैं.
दूसरी ओर, मोदी भी कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने में पीछे नहीं हैं. उदाहरण के लिए, पिछले महीने गांधीनगर में उद्योगपतियों के बड़े संगठन- फिक्की की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी ने कार्पोरेट्स की हर मांग पर मोहर लगाई.

कार्पोरेट्स ने मोदी के सामने श्रम सुधारों यानी श्रम कानूनों को ढीला करने, स्थाई नौकरियों की जगह कांट्रेक्ट व्यवस्था, हायर एंड फायर यानी जब चाहें भर्ती और जब चाहें छंटनी और यूनियनों को काबू में करने के अलावा रक्षा उत्पादन के निजीकरण की मांगें उठाईं. मोदी ने वायदा किया कि वे श्रम को राज्य विषय बना देंगे और निजी पूंजी निवेश को बढ़ाने के लिए सभी अनुकूल उपाय करेंगे.

लेकिन मोदी यहीं नहीं रुके. उन्होंने कहा कि वे सत्ता में आयेंगे तो ‘टैक्स आतंकवाद’ खत्म करेंगे. आखिर यह ‘टैक्स आतंकवाद’ क्या है? असल में, देशी-विदेशी कार्पोरेट्स पिछले कई महीनों से वोडाफोन, आई.बी.एम से लेकर नोकिया और दूसरी कई कंपनियों के मामले में आयकर विभाग द्वारा टैक्स नोटिस जारी करने को टैक्स आतंकवादबता रहे हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियाँ टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का चतुराई से फायदा उठाकर टैक्स देने से बचने से लेकर वास्तविक टैक्स से कम टैक्स देती रही हैं. मजे की बात यह है कि हर साल केन्द्र सरकार कार्पोरेट्स और अमीरों को साढ़े चार लाख करोड़ रूपये से अधिक की टैक्स छूट और रियायतें देती रही हैं.
इसके बावजूद कार्पोरेट्स वास्तविक टैक्स देने से बचने के लिए तीन-तिकडम करते रहे हैं. इससे हर साल सरकारी खजाने को हजारों करोड़ रूपये का चूना लगता है. उल्लेखनीय है कि वोडाफोन को ११ हजार करोड़ रूपये से ज्यादा का टैक्स भरने की नोटिस दी गई थी. ऐसे और कई मामले हैं लेकिन ये कम्पनियाँ इसे ज्यादती बताते हुए टैक्स भरने के लिए तैयार नहीं हैं.

तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने इन कंपनियों से टैक्स वसूलने के लिए टैक्स कानून में संशोधन करके पीछे से टैक्स वसूलने (रेट्रोस्पेक्टिव) का प्रावधान शामिल किया था. इसके अलावा टैक्स देने से बचने की तिकड़मों पर अंकुश लगाने के लिए गार नियम लाये गए थे लेकिन कार्पोरेट्स ने इन प्रावधानों पर खूब हंगामा किया, इसे निवेश विरोधी बताया और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को इन्हें ठंडे बस्ते में डालने के लिए मजबूर कर दिया.

कहने की जरूरत नहीं है कि कार्पोरेट्स इसी रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स प्रावधान और गार नियमों को ‘टैक्स आतंकवाद’ कहते हैं जिससे मोदी निजात दिलाने का वायदा कर रहे हैं. यह और बात है कि इससे टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का लाभ उठानेवाले कार्पोरेट्स को खुली छूट मिल जाएगी. भला ऐसे प्रधानमंत्री को कार्पोरेट्स क्यों नहीं पसंद करेंगे?
असल में, एन.डी.ए और उनके प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी की अर्थनीति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी यह कारपोरेट-परस्ती है जिसे वह छुपाने की कोशिश नहीं करते हैं. यहाँ तक कि कार्पोरेट्स को खुश करने के चक्कर में मोदी अपनी मातृ संस्था- आर.एस.एस की प्रिय अर्थनीति- स्वदेशी का भूल से भी जिक्र नहीं करते हैं.
याद रहे कि मोदी राजनीतिक तौर पर उस दक्षिणपंथी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो मुक्त बाजार आधारित अर्थव्यवस्था और निजी पूंजी और उद्यमशीलता को खुली छूट देनेवाली नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी की वकालत करती रही है.             

सच पूछिए तो इस मामले में भाजपा-नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस के आर्थिक दर्शन में कोई बुनियादी फर्क नहीं है. अगर कोई फर्क है तो सिर्फ उसके विभिन्न पहलुओं पर जोर और उसकी प्रस्तुति, पैकेजिंग और मार्केटिंग के तरीके में फर्क है.

उल्लेखनीय है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित या न के बराबर भूमिका और निजी पूंजी खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को अगुवा भूमिका देने की वकालत करती है.

यही नहीं, नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी मूलतः मुक्त बाजार पर आधारित भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण को आगे बढाती है और वह राज्य की कल्याणकारी भूमिका को भी सीमित करने यानी सब्सिडी आदि खत्म करने की पैरवी करती है.
लेकिन बुनियादी तौर पर मुक्त बाजारपर आधारित नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार होने के बावजूद जहाँ मोदी उसे सख्ती से लागू करने और उसके विरोध की हर आवाज़ को दबा देने के पक्षधर हैं वहीँ कांग्रेस थोड़ी नरमी बरतने और लोगों को उसकी मार से राहत देने और बदले में उनका समर्थन जीतने के लिए मनरेगा जैसी योजनाओं की वकालत करती है.
लेकिन देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को लगता है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की कांग्रेसी रणनीति अब अप्रभावी हो गई है. उसे इन सुधारों को सख्ती से आगे बढ़ाने वाले नेता की जरूरत है. मोदी के रूप में उसे मुंहमांगा नेता मिल गया है जो बिना किसी शर्म या हिचक के कार्पोरेट्स के एजेंडे को देश के ‘विकास और खुशहाली’ का एजेंडा बताने और उसे आमलोगों खासकर गरीबों-निम्न मध्यवर्ग में स्वीकार्य बनाने में कामयाब होता दिख रहा है.   

यह और बात है कि पिछले दो दशकों से देश में नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी पर आधारित आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाए जाने और जी.डी.पी के पैमाने पर आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत तेज गति के बावजूद गरीबों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है, आर्थिक गैर बराबरी तेजी से बढ़ी है और गरीबों, निम्न मध्यमवर्ग, छोटे-मध्यम किसानों, श्रमिकों, दलितों और आदिवासियों में असंतोष बढ़ा है.
इसकी मुख्य वजह यह है कि उन्हें आर्थिक सुधारों का कोई खास फायदा नहीं मिला है. उल्टे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है. सच यह है कि इन वर्गों के लिए आर्थिक सुधार एक कड़वी गोली की तरह साबित हुए हैं जिसे और निगलने के लिए वे तैयार नहीं हैं.
यहाँ तक कि इन आर्थिक सुधारों के लाभार्थी- मध्यम वर्ग में भी हाल के वर्षों में अवसरों के सीमित होने और याराना पूंजीवाद की अगुवाई में बेतहाशा भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ने से निराशा का माहौल है. इसके कारण नव उदारवादी आर्थिक सुधारों पर सवाल उठने लगे हैं और राजनीतिक तौर पर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आम लोगों के बीच स्वीकार्य बनाना एक बड़ी चुनौती बन गई है.

कांग्रेस के नेतृत्ववाले यू.पी.ए ने इसी चुनौती के मद्देनजर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसे मनरेगा जैसी योजनाओं की चाशनी में लपेट कर पेश करने और गरीबों, कृषि मजदूरों, दलितों और आदिवासियों का समर्थन जीतने की कोशिश की लेकिन शुरूआती सफलता के बाद यह रणनीति भी दस सालों में फीकी पड़ने लगी है.

('सबलोग' के फ़रवरी अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली क़िस्त। बाकी आप पत्रिका खरीद कर पढ़िए) 

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