बढ़ी अपेक्षाओं और उम्मीदों के बीच कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में नव गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एन.ए.सी) की पहली बड़ी परीक्षा का समय आ गया है. यह कोई मामूली परीक्षा नहीं है क्योंकि उसे आज़ादी के ६३ सालों बाद भी देश में फैले भूखमरी के व्यापक और पीड़ादायक साम्राज्य को खत्म करने और करोड़ों लोगों के लिए दोनों जून रोटी-भात सुनिश्चित करने के बारे में फैसला करना है.
एन.ए.सी को जल्दी ही यू.पी.ए–२ सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी योजना- खाद्य सुरक्षा कानून के स्वरुप के बारे में अपनी अंतिम राय बनानी है. खुद ने एन.ए.सी ने गठन के बाद अपनी पहली बैठक में खाद्य सुरक्षा कानून को अंतिम रूप देने को अपनी पहली और सबसे बड़ी प्राथमिकता बताया था.
ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर एन.ए.सी से काफी उम्मीदें की जा रही हैं. उससे यह अपेक्षा की जा रही है कि वह सभी नागरिकों के लिए भोजन का मुकम्मल अधिकार सुनिश्चित करने के वास्ते खाद्य सुरक्षा कानून का एक व्यापक, समावेशी और उदार मसौदा तैयार करेगी. इस अपेक्षा की वजह ये है कि पिछले आम चुनावों में वायदे के बावजूद खुद यू.पी.ए सरकार एक व्यापक और समावेशी खाद्य सुरक्षा कानून के हक में नहीं दिख रही है.
आश्चर्य नहीं कि इस साल मार्च में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के अधिकारप्राप्त समूह (ई-जी.ओ.एम) ने खाद्य सुरक्षा कानून के जिस मसौदे को मंजूरी दी थी, वह अत्यंत सीमित, आधा-अधूरा, विसंगतियों से भरा हुआ और खाद्य असुरक्षा बढ़ानेवाला कानून का मसौदा था. उसका असली मकसद लोगों को भोजन का अधिकार देना नहीं बल्कि खाद्य सब्सिडी को कम करना था.
जाहिर है कि खाद्य सुरक्षा कानून के उस मसौदे का व्यापक विरोध हुआ और हो-हंगामे के बाद यू.पी.ए अध्यक्ष सोनिया गांधी के हस्तक्षेप के कारण मनमोहन सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. उस समय यू.पी.ए अध्यक्ष ने सरकार को भोजन के सार्वभौम अधिकार के लिए आंदोलन कर रहे संगठनों और कार्यकर्ताओं की आपत्तियों के मद्देनजर विधेयक के मसौदे पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया था.
उसके बाद सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक को पुनर्विचार के लिए योजना आयोग को भेज दिया जो पिछले तीन महीनों से सरकारी प्रस्ताव और आंदोलनकारियों की मांगों के बीच संतुलन बैठाने की कसरत में लगा हुआ है. हालांकि इस कसरत से सिवाय कुछ रियायतों के अभी तक कुछ खास निकलता नहीं दिख रहा है.
लेकिन हाल में एन.ए.सी के पुनर्गठन से सामाजिक-राजनीतिक हलकों में यह उम्मीद जरूर पैदा हो गई है कि अब यू.पी.ए सरकार पर खाद्य सुरक्षा के नाम पर सब्सिडी में कटौती और भोजन के अधिकार का मजाक उड़ानेवाला कानून बनाने के बजाय एक मुकम्मल कानून बनाने का दबाव बढ़ेगा. यह उम्मीद इसलिए भी की जा रही है कि एन.ए.सी में भोजन के अधिकार का मुकम्मल कानून बनाने के पक्षधर ज्यां द्रेज, हर्ष मंदर, अरुणा रॉय, एन.सी.सक्सेना जैसे कई अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद हैं.
लेकिन इन बढ़ी हुई उम्मीदों के बावजूद सच यह है कि खाद्य सुरक्षा के एक मुकम्मल कानून का रास्ता इतना आसान नहीं है, खासकर जब यू.पी.ए-२ सरकार जोरशोर से सब्सिडी में कटौती और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने में लगी हुई है. इसका नतीजा हमारे सामने है. ऐसा लगता है कि एन.ए.सी भी सीमित खाद्य सुरक्षा के सीमित अधिकार को और सीमित करते हुए सिर्फ १५० सबसे गरीब जिलों में लागू करने के प्रस्ताव से सहमत हो जायेगी.
साफ है कि इस मुद्दे पर यू.पी.ए सरकार आसानी से पीछे हटनेवाली नहीं है. उसकी रणनीति बिलकुल स्पष्ट है. उसने मार्च में जानबूझकर खाद्य सुरक्षा के कानून के एक आधे-अधूरे मसौदे को मंजूरी दी थी ताकि उसके विरोध के बाद कुछ और दे-दिलाकर वह भोजन का मुकम्मल अधिकार देने से बच निकलेगी. इससे राजनीतिक तौर पर सोनिया गांधी की भी गरीबनवाज की छवि बनी रहेगी और मनमोहन सिंह सरकार की खाद्य सब्सिडी कम करने की मंशा भी कामयाब हो जायेगी.
इसके लिए सरकार के पास तर्क भी हैं. वह चाहे तो कह सकती है कि कांग्रेस ने चुनावों के दौरान गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे प्रत्येक परिवार को तीन रूपये प्रति किलोग्राम की दर से हर महीने २५ किलोग्राम गेहूं या चावल देने का वायदा किया था. इस कारण इससे अधिक की कोई मांग स्वीकार करने के लिए वह राजनीतिक-नैतिक रूप से बाध्य नहीं है.
हैरानी की बात नहीं है कि सरकारी हलकों से कभी खुलकर और कभी दबी जुबान में यह तर्क सामने भी आ रहा है. लेकिन अगर खाद्य सुरक्षा और भोजन के अधिकार के कानून को इस अत्यंत सीमित दायरे में बांधने की कोशिश की गई तो इसका अर्थ होगा कि करोड़ों लोगों को आगे भी न सिर्फ भूखे और आधे पेट सोने के लिए मजबूर होना पड़ेगा बल्कि उन्हें अभी जो मिल भी रहा है, उसे भी गंवाना पड़ेगा.
उल्लेखनीय है कि अभी अंत्योदय जैसी कई योजनाओं में गरीबों को हर माह न सिर्फ ३५ किलो अनाज मिलता है बल्कि उसकी कीमत भी २ रूपये किलो है. कई राज्य सरकारें भी विभिन्न योजनाओं में २ रूपये गेहूं और चावल दे रही हैं. इसलिए यू.पी.ए सरकार का यह तर्क कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि इससे खाद्य सुरक्षा के नाम पर करोड़ों गरीबों की भूख मिटाने के बजाय उसे और बढ़ाने का रास्ता साफ कर दिया जायेगा.
इसलिए एन.ए.सी को इस मुद्दे पर न सिर्फ बीच का रास्ता और संतुलन बैठाने के दबावों से बचना होगा बल्कि दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय भी देना होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि खाद्य सुरक्षा और भोजन के अधिकार जैसे जीवन-मरण के प्रश्न पर बीच का कोई रास्ता नहीं हो सकता है. आखिर इससे अधिक शर्मनाक और क्या हो सकता है कि आजादी के ६३ सालों बाद भी भारत में दुनिया के सबसे अधिक भूखे और कुपोषणग्रस्त लोग रहते हैं? दुनिया में अत्यधिक भूखमरी का शिकार हर पांचवां व्यक्ति भारतीय है. देश में ५० प्रतिशत से अधिक महिलाएं और बच्चे भूख और इस कारण गंभीर कुपोषण के शिकार हैं.
हालात कितने गंभीर है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वैश्विक भूख सूचकांक-ग्लोबल हंगर इंडेक्स- पर ८८ देशों की सूची में भारत निचले ६५ वें पायदान पर है जबकि पाकिस्तान उससे बेहतर स्थिति में ५८ वें स्थान पर है. यही नहीं, भूख से निपटने के मोर्चे पर बंगलादेश को छोड़कर दक्षिण एशिया में सभी देशों और यहां तक कि गरीबी,गृह युद्ध,आर्थिक ध्वंस आदि के बावजूद अफ्रीका के सहारा क्षेत्र के देशों का भी प्रदर्शन भारत से बेहतर है.
यह इसलिए और भी शर्मनाक है क्योंकि देश पिछले डेढ़-दो दशकों से लगातार औसतन ६ से ८ प्रतिशत की वृद्धि दर के साथ बढ़ रहा है. इसके कारण आर्थिक समृद्धि खूब बढ़ी है और देश को दुनिया की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति बनाने के दावे खूब हो रहे हैं.
लेकिन इस सबके बीच भूख का लगातार फैलता और गहराता साम्राज्य भी एक ऐसी कडवी सच्चाई है जिसे अब शासक वर्गों के लिए भी और नजरंदाज कर पाना मुश्किल होता जा रहा है. यही कारण था कि शाइनिंग इंडिया के नारों के बीच भूख से मौतों की खबरों ने सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर कर दिया. कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में भोजन के अधिकार को संविधान में अनुच्छेद २१ के तहत प्रदत्त जीवन के बुनियादी अधिकार का अनिवार्य हिस्सा माना.
इस कारण भोजन का अधिकार भी मौलिक अधिकार का हिस्सा बन चुका है और यह केंद्र और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे हर नागरिक को भरपेट और पोषणयुक्त भोजन मुहैया कराएं. यही नहीं, पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग हिस्सों में भोजन के अधिकार की मांग को लेकर आंदोलन भी तेज हो गए हैं.
दरअसल, इसी दबाव में यू.पी.ए सरकार आधे-अधूरे मन से भोजन के अधिकार का कानून ले आने के लिए मजबूर हुई है लेकिन दूसरी ओर, वह नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के व्यामोह को भी छोड़ नहीं पा रही है जिसका नारा है- ‘यहां मुफ्त में भोजन नहीं मिलता है’(देयर इज नो फ्री लंच). इस कारण वह जहां तक संभव हो सके, खाद्य सब्सिडी में कटौती करना चाहती है.
आश्चर्य नहीं कि एक ओर यू.पी.ए सरकार राष्ट्रपति के अभिभाषण में खाद्य सुरक्षा का कानून लाने की घोषणा कर रही थी तो दूसरी ओर, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी चालू वित्तीय वर्ष के बजट में खाद्य सब्सिडी के मद में पिछले वर्ष की तुलना में लगभग पांच सौ करोड़ रूपये की कटौती कर रहे थे.
यही नहीं, पिछले कुछ महीनों से वित्त मंत्रालय और योजना आयोग खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय खाद्य सब्सिडी में कटौती के नए-नए उपाय ढूंढने में लगे हुए हैं. यही कारण है कि पिछले एक साल में खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों के बावजूद यू.पी.ए सरकार ने गोदामों से गेहूं-चावल निकालने में जबरदस्त कंजूसी की. हैरानी नहीं कि इस समय सरकारी गोदाम अनाजों से अटे पड़े हैं. एक ओर लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं और दूसरी ओर, सरकार सबसे बड़ी जमाखोर बन गई है.
यहां तक कि गोदामों में अनाज सड़ रहा है लेकिन सरकार उसे भूखे लोगों को इसलिए मुहैया करने के लिए तैयार नहीं है कि इससे सब्सिडी बढ़ जायेगी. कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार की इस जमाखोरी के कारण ही बाज़ार में मुनाफाखोरों और जमाखोरों की चांदी है जो कृत्रिम किल्लत पैदा करके लोगों का खून चूसने में लगे हैं.
यू.पी.ए सरकार की इस कंजूसी और जमाखोरी का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि बफर स्टाक के नियमों के मुताबिक अगली एक जुलाई को सरकारी गोदामों में १७१ लाख टन गेहूं और ९८ लाख टन चावल होना चाहिए लेकिन ३१ मई को सरकारी गोदामों में दो गुने से भी ज्यादा ३५१ लाख टन गेहूं और ढाई गुने से भी ज्यादा २५२ लाख टन चावल पड़ा था.
असल में, मौजूदा खाद्य सब्सिडी का बड़ा हिस्सा इस अनाज के भंडारण और रख-रखाव पर खर्च होता है. लेकिन विडम्बना देखिये कि सरकार अनाज के सड़ने-बर्बाद होने और उसके रखरखाव का खर्च उठाने को तैयार है लेकिन गरीब और भूखे लोगों को उनकी जरूरत का सस्ता अनाज मुहैया कराने के लिए तैयार नहीं है.
सरकार की यह बेदर्दी इसलिए और भी शर्मनाक है क्योंकि हाल में ही आई संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दि विकास रिपोर्ट के अनुसार अनाजों की कीमतों में भारी उछाल और वित्तीय संकट के कारण दक्षिण एशिया में भूखे लोगों की तादाद १९९० के स्तर पर पहुंच गई है. तात्पर्य यह कि पिछले दो दशकों में तेज वृद्धि दर से पैदा हुई आर्थिक समृद्धि के कारण गरीबी और भूख के दायरे से बाहर निकले करोड़ों लोग फिर से उसी हालत में पहुंच गए हैं.
जाहिर है कि इसके लिए खाद्य सब्सिडी में कटौती का जिद लेकर गोदामों में अनाज दबाए बैठी सरकार की नीतियां मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं. अफसोस की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार अभी भी अपनी गलतियों से सबक लेने को तैयार नहीं है. इसीलिए वह एक मुकम्मल, समावेशी और सार्वभौम भोजन के अधिकार का कानून बनाने के बजाय उसे सीमित और लक्षित रखने पर जोर दे रही है.
अब फैसला एन.ए.सी और उससे बढ़कर सोनिया गांधी को करना है. उन्हें तय करना है कि वह देश के सभी नागरिकों को खाद्य सुरक्षा और भोजन का अधिकार देने के हक में हैं या जैसाकि यू.पी.ए सरकार चाहती है कि यह सिर्फ बी.पी.एल परिवारों और अधिकतम ३५ किलो गेहूं-चावल तक सीमित रहे. यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि सभी नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा और भोजन का अधिकार सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है और मौजूदा ए.पी.एल और बी.पी.एल जैसे कृत्रिम विभाजन सिर्फ भ्रष्टाचार बढ़ानेवाले और लोगों को उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित करनेवाले हैं.
यही नहीं, इस अधिकार को सिर्फ ३५ किलो गेहूं-चावल तक सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि इसका अर्थ यह होता है कि पोषण के लिए जरूरी मानकों के मुताबिक परिवार के प्रत्येक बालिग सदस्य को प्रति माह दो रूपये किलो की दर से न्यूनतम १२ किलो और बच्चों को ६ किलो अनाज यानी पांच सदस्यी परिवार को ४२ किलो अनाज के अलावा १० रूपये प्रति किलो की दर से कम से कम ५ किलो दालें, २० रूपये प्रति लीटर की दर से कम से कम २ लीटर खाद्य तेल और ५ किलो चीनी आदि भी मिलना चाहिए.
संभव है कि यह प्रस्ताव बहुत लोगों को इस आधार पर अटपटा और लागू करने योग्य न लगे कि इससे सरकार का सब्सिडी बोझ बहुत बढ़ जायेगा या इतना अनाज कहां से आएगा लेकिन याद रहे कि इससे कुछ भी कम खाद्य सुरक्षा का नहीं बल्कि खाद्य असुरक्षा और यथास्थिति को बनाए रखने का कानून होगा. आखिर इसे लागू करने पर कितना खर्च आएगा? इसपर सबसे उदार अनुमानों के मुताबिक ८२ हजार करोड़ से लेकर एक लाख करोड़ रूपये सालाना का खर्च आ सकता है जोकि जी.डी.पी का सिर्फ २ प्रतिशत है.
यही नहीं, इससे न सिर्फ महंगाई को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी बल्कि इस कानून को लागू करने के लिए सरकार किसानों से अनाज खरीदेगी जो उन्हें उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रेरित करेगा. इसके लिए मजबूरी में ही सही, सरकार को कृषि और किसानों की ओर ध्यान देना पड़ेगा. सवाल है कि क्या देश आजादी के ६३ सालों बाद अपने सभी नागरिकों को दोनों जून भरपेट भोजन मुहैया कराने के लिए अपनी जी.डी.पी का दो प्रतिशत भी खर्च करने के लिए तैयार है या नहीं?
क्या सोनिया गांधी सुन रही हैं?
(जनसत्ता में जून में छपे लेख का थोडा संशोधित रूप )