मंगलवार, सितंबर 03, 2013

लुढ़कता रुपया संकेत हैं अर्थव्यवस्था के गहराते संकट का

आवारा विदेशी पूंजी पर अति निर्भरता की रणनीति अर्थव्यवस्था को बड़े संकट की ओर ढकेल रही है 

डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में तेज गिरावट का दौर जारी है. अकेले अगस्त के तीसरे सप्ताह में डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में ५.५ फीसदी से अधिक की गिरावट दर्ज की गई और वह लुढककर रिकार्ड ६४.६५ रूपये तक पहुँच गई. मुद्रा बाजार में घबराहट और अनिश्चितता का आलम यह है कि रूपया हर दिन गिरावट के नए रिकार्ड बना रहा है.
 
यह गिरावट पिछले ढाई-तीन महीनों से जारी है. इस कारण २२ मई के बाद से डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में रिकार्ड १६.५ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.
हालाँकि इस बीच ब्राजील, इंडोनेशिया, तुर्की, थाईलैंड, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका जैसे अधिकांश विकासशील देशों की मुद्राओं में भी भारी से लेकर मध्यम स्तर की गिरावट दर्ज की गई है लेकिन विश्लेषकों के मुताबिक इन सबमें ब्राजील के रियाल के बाद भारतीय रूपये का प्रदर्शन सबसे कमजोर रहा है.
उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि इस माहौल में रुपया किस हद और कहाँ तक गिरेगा, इसे लेकर अनिश्चितता और घबराहट का माहौल बना हुआ है. ड्यूश बैंक का कहना है कि रुपया अगले कुछ महीनों में डालर के मुकाबले गिरकर ७० रूपये तक पहुँच सकता है.

लेकिन दूसरी ओर बार्कलेज बैंक का दावा है कि चालू वित्तीय वर्ष के आखिर तक डालर के मुकाबले रूपया मजबूत होकर ६०-६१ रूपये के करीब रहेगा. डालर के मुकाबले रूपये की कीमत के ६५ रूपये से भी नीचे आ जाने के बाद खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का दावा है कि रूपये की कम कीमत लगाई जा रही है.

चिदंबरम ने रूपये को संभालने के लिए बाजार और विदेशी निवेशकों को भरोसा भी दिलाया है कि वे न सिर्फ चालू खाते और राजकोषीय घाटे को निर्धारित सीमा से बाहर नहीं जाने देंगे बल्कि विदेशी निवेश को लुभाने के लिए और कदम उठाएंगे.

लेकिन मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक अनिश्चितता और निराशा के माहौल में इससे रूपये की सेहत कितनी सुधरेगी, यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है. हाल के महीनों में वित्त मंत्री से लेकर रिजर्व बैंक के गवर्नर तक रूपये को चढ़ाने के लिए ऐसे दावे और वायदे कई बार कर चुके हैं लेकिन उनके दावों-वायदों का प्रभाव दो-तीन दिनों से ज्यादा नहीं रहता है.
इसकी वजह यह है कि रूपये का गिरना असली संकट नहीं है बल्कि यह सिर्फ संकट का लक्षण भर
है. असल में, यह अर्थव्यवस्था का संकट है जो रूपये की कमजोरी से लेकर शेयर बाजार में गिरावट तक में दिख रहा है. लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि रूपये की तेज गिरावट खुद भी एक संकट का रूप लेती जा रही है और पहले से डावांडोल भारतीय अर्थव्यवस्था को एक बड़े संकट की ओर ढकेल रही है.
आखिर डालर के मुकाबले रूपये की तेज गिरावट की वजह क्या है? ज्यादातर विश्लेषकों का कहना है कि रूपये की कमजोरी की कई वजहें हैं लेकिन सभी एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. रूपये में गिरावट की मुख्य वजह लगातार बढ़ते चालू खाते के घाटे और विदेशी निवेशकों के पलायन को माना जा रहा है. चालू खाते का घाटा व्यापार शेष (माल और सेवाओं के आयात को घटाकर निर्यात), निवल घटक आय (जैसे लाभांश और ब्याज) और निवल अंतरण भुगतान (जैसे विदेशी सहायता) का कुलयोग है जो मोटे तौर पर यह दिखाता है कि देश अपनी आय से कितना ज्यादा उपभोग कर रहा है.

यह चादर से बाहर पैर फ़ैलाने की तरह है. पिछले साल चालू खाते का घाटा ८८ अरब डालर तक पहुँच गया था जोकि जी.डी.पी का ४.८ फीसदी था. सरकार का दावा है कि चालू वित्तीय वर्ष में चालू खाते का घाटा बजट में अनुमानित ७० अरब डालर से कम रहेगा लेकिन कमजोर निर्यात के मद्देनजर बाजार और विदेशी निवेशकों को इस दावे पर भरोसा नहीं है.   

तथ्य यह है कि ऊँचे चालू खाते के घाटे के मामले में भारत इस समय दुनिया के चुनिंदा देशों में है और उससे अधिक चालू खाते का घाटा सिर्फ अमेरिका का है. आमतौर पर जी.डी.पी के २ फीसदी से कम चालू खाते के घाटे को सुरक्षित माना जाता है लेकिन भारत का चालू खाते का घाटा पिछले कई वर्षों से लगातार इस सुरक्षित सीमा से ऊपर रहा है.
चालू खाते के बढ़ने के पीछे सबसे बड़ी वजह कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें और बढ़ता घरेलू खपत, सोने और महंगे विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं का बढ़ता आयात है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए देश का अमीर और उच्च मध्यम वर्ग जिम्मेदार है जो चादर से बाहर पैर फैलाकर उपभोग कर रहा है. चाहे वह बड़ी कारों-एस.यू.वी में फूँकने वाला डीजल हो या सुरक्षित निवेश के लिए सोने का आयात या फिर महंगे विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं की ललक हो- देश के अमीर और उच्च मध्य वर्ग की भूख बढ़ती ही जा रही है.
लेकिन इस कारण बढ़ रहे चालू खाते के घाटे की भरपाई के लिए विदेशी मुद्रा यानी डालर चाहिए. इसके लिए विदेशी कर्ज या विदेशी निवेश या दोनों चाहिए और वह विदेशी निवेशकों को लुभाकर और उन्हें अधिक से अधिक छूट देकर ही संभव है.

कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले दो दशकों में जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाया गया है, उनके केन्द्र में किसी भी कीमत पर अधिक से अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने की रणनीति रही है.

इसके लिए विदेशी निवेशकों को उनकी शर्तें मानकर मुंहमांगी छूट-रियायतें दी गईं हैं. लेकिन इसके बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में स्थाई प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) की तुलना में अस्थाई विदेशी निवेश खासकर संस्थागत विदेशी निवेशकों (एफ.आई.आई) के जरिये शेयर और वित्तीय बाजार में आया है.

लेकिन यह आवारा पूंजी है जब उसे मुंहमांगा मुनाफा मिल रहा होता है, वह तेजी से और बड़ी मात्रा में आती है लेकिन जैसे ही मुनाफा कम होता है या किसी और देश की अर्थव्यवस्था में ज्यादा मुनाफे की सूरत दिखाई देती है, उसे देश छोड़कर निकलने में देर नहीं लगती है.
इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ भी यही हो रहा है. अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर लड़खड़ा रही है. औद्योगिक उत्पादन निराशाजनक है. निर्यात में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है. इस कारण कंपनियों के मुनाफे पर दबाव बढ़ रहा है.
दूसरी ओर, आयात में कोई खास कमी नहीं होने के कारण चालू खाते का घाटा बढ़ रहा है. जाहिर है कि इससे विदेशी निवेशकों में बहुत बेचैनी है और वे सुरक्षित विकल्प खोज में देश से निकल रहे हैं. 
इस बीच, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेतों के बीच वहां के केन्द्रीय बैंक ने अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए लाये गए ‘उत्प्रेरक पैकेज’ (स्टिमुलस पैकेज) और उसके तहत ‘इजी मनी’ की नीति को वापस लेने का एलान किया है जिसके कारण विदेशी निवेशक वापस अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ओर रूख कर रहे हैं. इससे डालर की मांग बढ़ गई है और रूपये की कीमत में तेज गिरावट दर्ज की जा रही है.

इसका फायदा सट्टेबाज भी उठा रहे हैं. रूपये की कीमत में तेज उतार-चढाव में देशी-विदेशी सट्टेबाजों
की भी बड़ी भूमिका है. लेकिन ऐसा नहीं है कि यह स्थिति आज पैदा हुई है. पिछले वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था की विदेशी पूंजी खासकर आवारा विदेशी पूंजी पर निर्भरता बढ़ती ही जा रही थी.

यह स्थिति आज भारतीय अर्थव्यवस्था की एक प्रमुख संरचनागत समस्या है जो सीधे तौर पर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का नतीजा है. इसने आय के असमान बंटवारे और गैर जरूरी उपभोग को बढ़ावा दिया है जिसका नतीजा चालू खाते के घाटे के रूप में सामने है.

लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था की तीव्र गति और अमेरिकी ‘इजी मनी’ के कारण डालर के तीव्र प्रवाह के बीच बढ़ते चालू खाते के घाटे की समस्या को यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजरों और नीति निर्माताओं ने लगातार नजरंदाज़ किया.
उल्टे उनके अति आत्मविश्वास का हाल यह था कि वे पूंजीगत खाते की परिवर्तनीयता (रूपये की पूर्ण परिवर्तनीयता) यानी पूंजी के प्रवाह पर से सारे नियंत्रण हटा लेने की बातें करने लगे थे. यही नहीं, पिछले कुछ वर्षों में रिजर्व बैंक और सरकार ने पूंजी के प्रवाह को उदार बनानेवाले फैसले भी किये. लेकिन वे भूल गए कि १९९७-९८ में दक्षिण-पूर्वी एशियाई टाइगरों के साथ क्या हुआ था?
यही नहीं, मौजूदा संकट के संकेत पिछले दो साल से दिखने लगे थे. चालू खाते के बढ़ते घाटे, वैश्विक आर्थिक संकट और धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था के कारण रूपये पर दबाव बढ़ता जा रहा था. हैरानी की बात नहीं है कि डालर के मुकाबले रूपये की कीमत अगस्त’२०११ में लगभग ४५ रूपये थी, वह गिरकर अगस्त’१२ में ५५ रूपये तक पहुँच गई और अब अगस्त’१३ में और गिरकर ६५ रूपये पर पहुँच गई है.

इस कारण यू.पी.ए सरकार पर अधिक से अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने और इसके लिए विदेशी पूंजी को और रियायतें देने का दवाब बढ़ता ही जा रहा था. इसी दबाव में पिछले साल वित्त मंत्री का पद दोबारा संभालने वाले पी. चिदंबरम ने खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी एफ.डी.आई से लेकर बैंक-बीमा और पेंशन क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और आवारा पूंजी यानी एफ.आई.आई को कई रियायतों का एलान किया.

यही नहीं, उन्होंने इस साल बजट पेश करते हर साफ़ तौर पर एलान किया कि तात्कालिक तौर पर चालू खाते के बढ़ते घाटे की भरपाई के लिए विदेशी पूंजी को आमंत्रित करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है.
कहने की जरूरत नहीं है कि वित्त मंत्री ने पिछले एक साल से विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं उठा रखा है. विदेशी पूंजी को रियायतें देने के अलावा वे दुनिया भर में घूम-घूमकर निवेशकों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं.
हालाँकि इस कोशिश में वे भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी पर और निर्भर बना रहे हैं. लेकिन मौजूदा उपभोग की भरपाई के लिए विदेशी पूंजी पर बढ़ती यह निर्भरता अर्थव्यवस्था को एक बड़े और गहरे संकट की ओर ढकेल रही है.
उदाहरण के लिए, भारत पर विदेशी कर्ज पिछले दो सालों में २७ फीसदी बढ़ गया है. भारत पर जो विदेशी कर्ज मार्च’११ में ३०६ अरब डालर (जी.डी.पी का १७.५ प्रतिशत) था, वह इस साल मार्च में बढ़कर ३९० अरब डालर (जी.डी.पी का २१.२ प्रतिशत) हो गया है.

यही नहीं, सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इसमें अल्पावधि के विदेशी कर्ज का अनुपात भी तेजी से बढ़ा है. रिपोर्टों के मुताबिक, कुल विदेशी कर्ज में अल्पावधि का कर्ज कुल विदेशी मुद्रा भण्डार के अनुपात में मार्च’११ के ४२ फीसदी से बढ़कर मार्च’१३ में ५९ फीसदी तक पहुँच गया है.

यह कर्ज ऐसे ही नहीं बढ़ा है, जब अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही थी तो अति आत्मविश्वास में सरकार ने देशी कारपोरेट समूहों को अल्पावधि के विदेशी कर्ज लेने की छूट दी.
 
हालाँकि आर्थिक-वित्तीय संकट में फंसे कई देशों की तुलना में भारत की स्थिति बेहतर है लेकिन जिस तरह से विदेशी पूंजी खासकर अल्पावधि का कर्ज बढ़ता जा रहा है, वह संकटग्रस्त देशों की दिशा में बढ़ने का संकेत है.

इससे न तो रूपये का संकट खत्म होनेवाला है और न ही अर्थव्यवस्था का संकट टलनेवाला है. विदेशी पूंजी को रियायतें और छूट देकर संकट टालने की रणनीति तात्कालिक तौर पर संकट से भले निजात दिला दे लेकिन वह अगले संकट की नींव तैयार करके जाती है.

आखिर अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्याओं को दूर किये बिना विदेशी पूंजी के कोरामिन से अर्थव्यवस्था को कब तक दौडाया जा सकता है?

(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के 5 सितम्बर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

कोई टिप्पणी नहीं: