गुरुवार, मई 30, 2013

कैसिनो अर्थतंत्र में क्रिकेट ही नहीं, सब कुछ है ‘फिक्स’

सट्टेबाजों के हवाले है शेयर बाजार और जिंस बाजार से लेकर क्रिकेट और आर्थिक नीतियाँ तक 

शुरू से ही पानी की तरह बहते पैसे, ग्लैमर, रंगीन पार्टियों, खिलाड़ियों की बोली और ‘हितों के टकराव’ के कारण विवादों में घिरी रही इंडियन प्रीमियर लीग (आई.पी.एल) एक बार फिर ‘मैच फिक्सिंग’ और ‘स्पाट फिक्सिंग’ के आरोपों के कारण सुर्ख़ियों में है. इस मामले में हर दिन नए खुलासे हो रहे हैं और उसके साथ ही कुछ बड़ी मछलियाँ भी पकड़ में आ गईं हैं.
इससे आई.पी.एल की चमक-दमक के पीछे छिपे बड़ी पूंजी, मनोरंजन उद्योग, कालेधन, सट्टेबाजी और माफिया गिरोहों के असली खेल पर से थोड़ा सा पर्दा हटा है लेकिन इससे ज्यादा की उम्मीद मत कीजिए क्योंकि इससे आगे वह ‘ब्लैक होल’ है जिससे यह पूरी व्यवस्था निकली और बनी है.   
इसलिए आई.पी.एल में ‘फिक्सिंग या स्पाट फिक्सिंग’ के खेल से बहुत हैरान होने की जरूरत नहीं है और न ही खिलाड़ियों से लेकर टीम प्रबंधकों/मालिकों के ‘फिक्सर’ में बदलने पर इतना चौंकने की जरूरत है. सच यह है कि राजनीति से लेकर अर्थव्यवस्था तक और खेलों से लेकर मीडिया तक हर जगह ‘फिक्सिंग’ और ‘फिक्सरों’ का बोलबाला है.

आश्चर्य नहीं कि आज बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के पक्ष में अर्थनीति ‘फिक्स’ की जा रही है, इस या उस कारपोरेट समूह के पक्ष में नीतियां ‘फिक्स’ की जा रही हैं, बड़े आर्थिक फैसले कंपनियों के हक में ‘फिक्स’ किये जा रहे हैं और यहाँ तक कि कोर्ट के फैसले भी ‘फिक्स’ करवाने के दावे किये जा रहे हैं.   

इन आरोपों को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि बड़ी पूंजी और कम्पनियाँ अपने अनुकूल नीतियों और फैसलों को प्रभावित करने के लिए बाकायदा लाबीइंग करके मंत्रिमंडल से लेकर नौकरशाही तक में अपने अनुकूल नेताओं और अफसरों को ‘फिक्स’ करवा रही हैं.
याद कीजिए, नीरा राडिया टेप्स को जिसमें नेता, उद्योगपति, अफसर और संपादक/पत्रकार किस तरह मंत्री से लेकर कोर्ट और नीतियों से लेकर फैसलों तक को अपने मुताबिक ‘फिक्स’ करने के लिए लाबीइंग करते सुनाई पड़ते हैं. उसके बाद पिछले कुछ सालों में स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला खदानों और हाईवे से लेकर एयरपोर्ट के ठेकों के आवंटन पर नजर डालिए, आपको ‘फिक्सिंग’ और लाबीइंग के बढ़ते दबदबे का अंदाज़ा हो जाएगा.      
हैरानी की बात नहीं है कि इनदिनों जब पूरा देश आई.पी.एल में ‘फिक्सिंग’ की सनसनी में डूबा हुआ है, उसी समय केन्द्रीय मंत्रिमंडल पेट्रोलियम मंत्रालय की सिफारिश पर प्राकृतिक गैस की कीमत ‘फिक्स’ करने पर विचार कर रहा है. प्रस्ताव यह है कि गैस की कीमतें ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू से २.५ डालर प्रति एम.बी.टी.यू यानी कोई ५९.५ फीसदी बढ़ाकर ६.७ डालर प्रति एम.बी.टी.यू कर दिया जाए.

वैसे सी.पी.आई सांसद गुरुदास दासगुप्ता का आरोप है कि पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली का प्रस्ताव इसे ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू से लगभग दुगुना बढ़ाकर पहले साल ८ डालर, दूसरे साल १० डालर, तीसरे साल १२ डालर और अगले दो सालों तक १४ डालर प्रति एम.बी.टी.यू करने की है ताकि मुकेश अम्बानी की रिलायंस को हजारों करोड़ रूपये का छप्परफाड मुनाफा हो सके.  

एक मोटे अनुमान के मुताबिक, गैस की कीमतों में प्रति एक डालर की बढ़ोत्तरी से जहाँ उर्वरक कारखानों पर ३१५५ करोड़ रूपये और बिजलीघरों पर १००४० करोड़ रूपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा, वहीँ गैस कंपनियों को हजारों करोड़ का अतिरिक्त मुनाफा होगा.
सवाल यह है कि सरकार गैस की कीमतें ‘फिक्स’ करने के लिए इतनी बेचैन क्यों हैं? हालाँकि मोइली का दावा है कि इससे सरकारी टेक कंपनियों को सबसे ज्यादा फायदा होगा लेकिन तथ्य यह भी है कि इससे रिलायंस का मुनाफा कई गुना बढ़ जाएगा.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि रिलायंस पिछले एक-डेढ़ साल से गैस की कीमतें बढ़ाने के लिए जबरदस्त लाबीइंग कर रहा है. आरोप है कि रिलायंस के दबाव के आगे झुकने से इनकार करने के कारण पूर्व पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी को कुर्सी गंवानी पड़ी.
लेकिन गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी के लिए चल रही लाबीइंग कोई अपवाद नहीं है. यह सिर्फ एक उदाहरण है फैसलों और नीतियों की ‘फिक्सिंग’ का. असल में, जब पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था ही कैसिनो अर्थतंत्र में बदल दी गई है जहाँ पैसे से पैसा बनानेवाले सट्टेबाज ही नीतियां और फैसले तय कर रहे हों, वहां लाबीइंग और फिक्सिंग अपवाद नहीं रह गए हैं बल्कि नियम बन गए हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि आज अर्थतंत्र के सबसे बड़े सूचक- शेयर बाजार से लेकर जिंस बाजार तक सट्टेबाजों के कब्जे में हैं और आर्थिक नीतियों से लेकर बजट तक पर उनका दबाव साफ़ देखा जा सकता है.

लेकिन बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की अगुवाई में चल रही इस संगठित और कानूनी सट्टेबाजी को अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी माना जाता है और इन सट्टेबाजों को खुश करने के लिए वित्त मंत्री से लेकर पूरी सरकार तक क्या-क्या नहीं करते हैं?  

ऐसे में, आई.पी.एल में ४० हजार करोड़ रूपये की सट्टेबाजी पर इतना हाय-तौबा क्यों मचाया जा रहा है? जबकि यह सिर्फ कानूनी सट्टेबाजी बाजार का विस्तार और वास्तव में, उसका अंडरवर्ल्ड है. लेकिन ‘अंडरवर्ल्ड’ की गुंजाइश वहीँ पैदा होती है जहाँ उसका खुला बाजार भी हो. कंसल्टिंग फर्म- के.पी.एम.जी के मुताबिक, देश में कोई तीन लाख करोड़ रूपये का गैरकानूनी सट्टा बाजार है.
लेकिन यह शेयर बाजार से लेकर मुद्रा-जिंस बाजार और रीयल इस्टेट तक फैले लाखों करोड़ रूपये के कानूनी सट्टेबाजी बाजार का बहुत छोटा हिस्सा है. इस कानूनी सट्टेबाजी के बाजार का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अकेले मुंबई शेयर बाजार में शेयरों के वायदा कारोबार का दैनिक टर्नओवर २८६५४ करोड़ रूपये का है. वर्ष २०१२-१३ में शेयरों के वायदा कारोबार का कुल टर्नओवर ७१६३५७६ करोड़ रूपये रहा.
यही नहीं, एन.एस.ई में करेंसी के वायदा कारोबार का दैनिक टर्नओवर लगभग २०१४० करोड़ रूपये रहा और वर्ष १२-१३ में दिसंबर तक उसका कुल टर्नओवर ३७२५८४२ करोड़ रूपये तक पहुँच गया.

लेकिन जिंस बाजार ने सबको पीछे छोड़ दिया है जहाँ वर्ष ११-१२ में कुल १४०२६ सौदे हुए जिनकी कीमत १,८१,२६,१०४ करोड़ रूपये थी जबकि वर्ष १२-१३ (१ अप्रैल से ३० दिसंबर तक) में कुल १०११९ सौदे हुए जिनकी कीमत १,१६,२६,८४२ करोड़ रूपये थी.

इसमें वास्तविक सौदे कम और सट्टेबाजी के जरिये पैसे से पैसे बनानेवाले सौदे ज्यादा थे. इस सट्टेबाजी का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष ११-१२ में एम.सी.एक्स में ७३ करोड़ टन (कुल कीमत २४,६३३ अरब रूपये) के कच्चे तेल के वायदा सौदे हुए लेकिन इसमें एक बैरल कच्चे तेल की भी डिलीवरी नहीं हुई.

इस तरह शेयर बाजार से लेकर करेंसी बाजार और फिर जिंस बाजार तक हर जगह वायदा कारोबार में लाखों करोड़ रूपये की सट्टेबाजी हो रही है. इसमें बड़े देशी-विदेशी निवेशक सभी शामिल हैं और यह पूरी तरह से कानूनी है.
सच पूछिए तो शेयर बाजार आज मुट्ठी भर बड़े देशी और खासकर विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) की धुन पर ही नाचता है. वे उसे जब चाहते हैं, चढाते हैं, जब चाहते हैं, गिराते हैं और इस तरह वह एक कैसिनो में बदल चुका है.
इसका अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि वास्तविक निवेश के लिए वित्तीय वर्ष १२-१३ में दिसंबर तक आई.पी.ओ के जरिये शेयर बाजार से सिर्फ ६०४३ करोड़ रूपये ही जुटाया जा सका.         
लेकिन मामला सिर्फ शेयर बाजार या जिंस बाजार और उसमें जारी सट्टेबाजी तक सीमित नहीं है बल्कि उसकी बढ़ती ताकत और आर्थिक नीतियों को प्रभावित करने की लगातार बढ़ती क्षमता का है. आज स्थिति यह हो गई है कि अर्थनीति शेयर बाजार को देखकर और उसके मुताबिक बनती है. बाजार के बड़े खिलाड़ियों के प्रतिनिधि के बतौर रेटिंग एजेंसियां सरकार पर बड़ी पूंजी के हितों के अनुकूल सुधारों को आगे बढ़ाने का दबाव बनाए रखती हैं.

सरकारों का तर्क है कि उनकी बात स्वीकार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. वे उनको नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकती हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले साल यू.पी.ए सरकार ने इसी बहाने खुदरा कारोबार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर बीमा और पेंशन कारोबार में विदेशी पूंजी का हिस्सा बढ़ाने और उसकी इजाजत देने जैसे कई फैसले किये थे.

क्या ये फैसले ‘फिक्स’ नहीं थे? बड़ी पूंजी समर्थित आर्थिक सुधारों को आगे न बढ़ाने पर रेटिंग एजेंसी देश की निवेश की रेटिंग गिराने की धमकी दे, कारपोरेट मीडिया उसे लेकर देश में घबराहट का माहौल पैदा करे और सरकार ‘कोई विकल्प नहीं है’ का तर्क देते हुए ‘राष्ट्रहित’ में उसे मान ले, इससे ज्यादा ‘फिक्स’ और क्या हो सकता है?
लेकिन ऐसे ‘फिक्सरों’ की कमी नहीं है. यह एक संगठित उद्योग बन चुका है. इन्हें राजनीतिक पार्टियों से लेकर लाबीइंग कंपनियों तक में देखा जा सकता है. सत्ता के गलियारों में उनकी पैठ बहुत ऊपर तक है.
यहाँ तक कि वे सरकार के थिंक टैंक तक में बैठे हुए हैं. लेकिन मूल बात यह है कि ये सभी बिना किसी अपवाद के इस या उस कारपोरेट समूह के हितों को आगे बढ़ाने में जुटे रहते हैं. उनमें से कई विश्व बैंक और मुद्रा कोष की सेवा कर चुके हैं और कई का बड़े कारपोरेट समूहों से परोक्ष या सीधा संबंध है.
जाहिर है कि आई.पी.एल आसमान से नहीं टपका है और न ही धरती फाड़कर पैदा हुआ है. यह इसी राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था की पैदाइश है जिसमें अर्थतंत्र एक बड़े कैसिनो में बदल चुका है और जिससे हर साल लाखों करोड़ रूपये का काला धन निकल रहा है. आखिर वह काला धन कहाँ जाएगा?

दोहराने की जरूरत नहीं है कि आई.पी.एल इसी कालेधन को खपाने और सट्टेबाजी के एक संगठित अंडरवर्ल्ड को एक लोकप्रिय प्लेटफार्म उपलब्ध कराने के लिए शुरू किया गया है. सट्टेबाजी उसकी मूल संरचना में निहित है. वह खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों से ज्यादा फिक्सरों का टूर्नामेंट है.

उसमें वही हो रहा है जिसके लिए उसे शुरू किया गया था. उसपर अब हैरानी और चिंता क्यों? अगर चिंता ही करनी है तो गैस की कीमतें जिस तरह से ‘फिक्स’ हो रही हैं, उसपर कीजिए.

('शुक्रवार' के नए अंक में प्रकाशित टिप्पणी)                 

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