सोमवार, मई 20, 2013

मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की मुहिम में लगा है कार्पोरेट मीडिया

मोदी की बारीक छवि पुनर्निर्मिति (इमेज मेकओवर) में जुटा है मीडिया
दूसरी क़िस्त
लेकिन साथ में ही बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स यह भी चाहते हैं कि संसदीय विपक्ष का स्थान (स्पेस) भी उनके हाथ से नहीं निकल पाए और विपक्ष में कांग्रेस रहे. यही नहीं, वह एक ऐसे करिश्माई नेता की खोज में है जो न सिर्फ नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति प्रतिबद्ध हो बल्कि अपने करिश्मे से लोगों को झांसा देने और इन आर्थिक नीतियों के लिए आम लोगों खासकर गरीबों का समर्थन जुटाने में भी माहिर हो.
कहने की जरूरत नहीं है कि शासक वर्गों खासकर बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स को भाजपा नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी में वह सम्भावना दिख रही है. मोदी ने गुजरात में हिंदुत्व और कारपोरेट विकास का ऐसा नशीला काकटेल तैयार किया है जहाँ न सिर्फ देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों को मुंह-मांगी रियायतें/छूट मिली हुई है बल्कि उन्हें कोई राजनीतिक चुनौती भी नहीं है क्योंकि जनता का बड़ा हिस्सा हिंदुत्व के नशे में खोया हुआ है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि कारपोरेट विकास के इस मोदी माडल का देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स में जबरदस्त आकर्षण है. वे मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक संकट और गतिरोध से बाहर निकालने के लिए मोदी को सबसे बेहतर दाँव मान रहे हैं.

आश्चर्य नहीं है कि मोदी इस समय कार्पोरेट्स के सबसे चहेते नेता हैं और अगले आम चुनावों से पहले बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स का बड़ा हिस्सा मोदी के पीछे गोलबंद होता जा रहा है. इसे अनदेखा करना मुश्किल है कि पिछले कुछ महीनों में बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स और उनके लाबी संगठनों ने जिस तरह खुलकर मोदी को मंच दिया है और उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर मुहर लगाया है, वैसा इससे पहले शायद ही कभी दिखाई पड़ा हो.

यही नहीं, बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स अपनी व्यापक रणनीति के तहत विपक्ष की जगह को भी अपने मातहत रखने और भविष्य के विकल्प के बतौर कांग्रेस और उसके नेता राहुल गाँधी को रेस में बनाए रखने की भी कोशिश कर रहे हैं. इस तरह बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स दोनों हाथों में लड्डू रखने की कोशिश कर रहे हैं.
उदार पूंजीवादी लोकतंत्रों में बड़ी पूंजी की यह भूमिका बहुतों से छुपी नहीं है लेकिन नई बात यह है कि वह अब पर्दे के पीछे से नहीं बल्कि खुलकर अपनी राजनीतिक पसंद बता रही है, उसे आगे बढ़ा रही है और उसके सामने अपना एजेंडा रख रही है.
इसका सबूत है, पिछले कुछ सप्ताहों में कारपोरेट लाबी संगठनों- एसोचैम, फिक्की और सी.आई.आई
के सम्मेलनों में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के एजेंडे के तहत मोदी और राहुल को पेश करना और राजनीतिक बहस को कारपोरेट विकास के इर्द-गिर्द सीमित करने की कोशिश.        
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें कारपोरेट न्यूज मीडिया खासकर चैनलों में ‘मोदी बनाम राहुल’ की बहस को देखा-समझा जाना चाहिए. असल में, कारपोरेट न्यूज मीडिया और उसके चैनल बुनियादी तौर पर कार्पोरेट्स के ही विस्तारित हाथ या ‘वैचारिक उपकरण’ हैं, इसलिए आश्चर्य नहीं कि वे न सिर्फ द्विदलीय व्यवस्था की वकालत में जुटे हैं बल्कि लोगों के लोकतांत्रिक चयन को ‘मोदी बनाम राहुल’ में सीमित करने और उसमें भी मोदी को वरीयता देने के अभियान में सक्रिय हैं.

कारपोरेट मीडिया की इस अभियान में गहरी संलग्नता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वे न सिर्फ कहीं दबे-कहीं खुले नरेन्द्र मोदी को आगे बढ़ाने में जुटे हैं बल्कि ‘आजतक’ और ‘हेडलाइंस टुडे’ (इंडिया टुडे समूह) और ‘आई.बी.एन-७’ और ‘सी.एन.एन-आई.बी.एन’ (टीवी-१८ समूह) जैसे चैनलों ने तो मोदी की मेजबानी करने में भी संकोच नहीं किया.

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि ‘इंडिया टुडे समूह’ में आदित्य बिरला समूह ने पिछले दिनों २७ फीसदी शेयर ख़रीदे हैं और ‘टीवी-१८ समूह’ में मुकेश अम्बानी ने १७०० करोड़ रूपये का निवेश किया है. दरअसल, मोदी को मीडिया की बहुत जरूरत है क्योंकि शासक वर्गों खासकर कार्पोरेट्स की पहली पसंद होने के बावजूद २००२ के गुजरात नरसंहार के धब्बे के कारण मोदी की राजनीतिक स्वीकार्यता अभी भी एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पा रही है.
जाहिर है कि मोदी को एक बड़े और बारीक छवि पुनर्निर्मिति (इमेज मेकओवर) जरूरत है. कारपोरेट मीडिया इसी काम में लगा है और बहुत बारीकी से मोदी की छवि को एक ‘विकासपुरुष’ के रूप में गढ़ने की कोशिश कर रहा है.
इसके लिए उसने मोदी के नेतृत्व में गुजरात में पिछले दस सालों में हुए ‘विकास’ की आधी सच्ची-आधी झूठी कहानियों को मध्यवर्ग और उसके जरिये आमलोगों के बीच न सिर्फ जोरशोर से ‘बेचने’ (मार्केट) करने की कोशिश की है बल्कि उन कहानियों को एक तरह की विश्वसनीयता देने की मुहिम को भी आगे बढ़ाया है.

आश्चर्य नहीं कि पिछले कुछ महीनों में विभिन्न मंचों पर मोदी के ‘विकास’ के बड़े-बड़े दावों और विचारों को कारपोरेट न्यूज मीडिया खासकर चैनलों ने बिना किसी आलोचनात्मक जांच-पड़ताल और छानबीन के आगे बढ़ाया है. जैसे न्यूज मीडिया का काम सिर्फ पोस्ट-आफिस और डाकिये का हो जो संदेशों को बिना जांचे-परखे एक-दूसरे तक पहुंचाता है.

तथ्य यह है कि मोदी के अधिकांश दावे अर्धसत्य और कुछ तो पूरी तरह से झूठे हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि कारपोरेट मीडिया बड़ी पूंजी का भोंपू बन गया है. यही नहीं, चैनलों ने लगातार मोदी के ‘विकास’ के आधे सच्चे-आधे झूठे दावों और आइडियाज को बहस और चर्चा का मुद्दा बनाकर उसे एक विश्वसनीयता भी प्रदान की है.
यह सही है कि इन चर्चाओं में मोदी माडल के आलोचकों को भी जगह दी जाती है लेकिन अंततः इससे मोदी के ‘विकास’ को ही एक तरह की वैधता और विश्वसनीयता मिलती है. इसी तरह मोदी के विकल्प में राहुल को पेश करके एक तरह से मोदी को एक तुलनात्मक बढ़त दी जाती है.
यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि मोदी के छवि निर्माण में देश-विदेशी पी.आर कंपनियों और स्पिन डाक्टरों की संगठित टीम का भी इस्तेमाल किया जा रहा है. इस छवि निर्माण अभियान पर सैकड़ों करोड़ रूपये खर्चे जा रहे हैं. इसमें चैनलों से लेकर सोशल मीडिया के प्लेटफार्म का भी संगठित और योजनाबद्ध तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है.

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस इन तौर-तरीकों का इस्तेमाल नहीं कर रही है या उसके पास पी.आर कंपनियों-सोशल मीडिया टीमों की कमी है. उसका और यू.पी.ए सरकार का प्रचार बजट मोदी से कम नहीं है. मजे की बात यह है कि कारपोरेट मीडिया ‘मोदी बनाम राहुल’ के कृत्रिम टकराव का इस रूप में भी लाभार्थी है कि उसे दोनों के प्रचार बजट का बड़ा हिस्सा मिल रहा है.
 
कहने की जरूरत नहीं है कि मंदी से जूझती अर्थव्यवस्था और घटते कारपोरेट विज्ञापनों के बीच चुनाव उसके लिए बड़ी उम्मीद बन कर आया है. चुनावों के लिए उसकी जल्दबाजी की वजह यह भी है कि उसे ‘मोदी बनाम राहुल’ की ऊँचे दांवों की लड़ाई में अपने लिए छप्पर-फाड़ मुनाफे की उम्मीद दिखाई दे रही है.

यह और बात है कि इस प्रक्रिया में अमीर होते कारपोरेट न्यूज मीडिया के बीच भारतीय लोकतंत्र की दरिद्रता कुछ और बढ़ जाएगी.

('कथादेश' के मई'13 के अंक में प्रकाशित स्तंभ की दूसरी और आखिरी क़िस्त)

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