शनिवार, फ़रवरी 23, 2013

चिदंबरम की प्राथमिकता सूची में कहाँ है शिक्षा?

शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण की देश को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है

वित्त मंत्री पी. चिदंबरम इसबार जब आम बजट पेश करने को खड़े होंगे तो उनके मन में क्या चल रहा होगा? अगर उनके हालिया बयानों को ध्यान में रखें तो उनकी सबसे बड़ी चिंता राजकोषीय घाटे को कम करने और अर्थव्यवस्था की गिरती वृद्धि दर को बढ़ाने की होगी. उनपर आगामी चुनावों के मद्देनजर एक लोकलुभावन बजट पेश करने का दबाव भी होगा.
वे बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को लुभाने के उपाय भी सोच रहे होंगे. उनकी निगाह शेयर बाजार पर भी होगी. लेकिन इन सबके बीच उनकी प्राथमिकताओं की सूची में शिक्षा का मुद्दा किस पायदान पर होगा? क्या शिक्षा का सवाल उनकी चिंताओं में होगा?
इस सवाल का उत्तर तो बजट में ही मिलेगा लेकिन उनके हालिया बयानों, साक्षात्कारों और भाषणों पर गौर करें तो लगता नहीं है कि बजट बनाते हुए वे शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने और इसके जरिये उसके समतामूलक विस्तार और उसकी गुणवत्ता को बेहतर बनाने जैसे मुद्दे उनके एजेंडे पर प्राथमिकता में हैं.

ऐसा नहीं है कि चिदंबरम शिक्षा के महत्व को नहीं जानते हैं. आज भारत जनसांख्यकीय लाभांश की जिस बेहद अनुकूल लेकिन नाजुक स्थिति में खड़ा है, उसमें शिक्षा और स्वास्थ्य में अधिक से अधिक निवेश की जरूरत और उसके महत्व से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है.

उल्लेखनीय है कि भारत की जनसँख्या में इस समय लगभग ५० फीसदी आबादी २५ वर्ष से कम की उम्र की है. भारत आज दुनिया के चुनिन्दा सबसे जवान देशों में से एक है. जनसांख्यकीय तौर पर यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें कोई देश अगर अपनी युवा आबादी की शिक्षा में अपेक्षित निवेश करे तो वह आर्थिक-सामाजिक विकास के मामले में तेजी से छलांग लगा सकता है.
दुनिया के विकसित देशों का इतिहास इसका सबूत है. लेकिन अगर शिक्षा और स्वास्थ्य खासकर शिक्षा में प्राथमिकता के आधार अपेक्षित निवेश नहीं किया गया तो जनसांख्यकीय लाभांश की यह स्थिति न सिर्फ व्यर्थ चली जाती है बल्कि उसके जनसांख्यकीय आपदा में बदलने के खतरे पैदा हो जाते हैं.
भारत भी इसका अपवाद नहीं है. देश में शिक्षा और स्वास्थ्य की अनदेखी, उसके निजीकरण-व्यवसायीकरण और रोजगार के घटते अवसरों के बीच पिछले कुछ वर्षों में युवाओं की बढ़ती बेचैनी को देखते हुए यह आशंका बढ़ती जा रही है कि भारत जनसांख्यकीय लाभांश को गंवाने की ओर बढ़ रहा है.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में एक के बाद दूसरी सरकार ने शिक्षा के विस्तार, उसे समावेशी बनाने और उसमें गुणवत्ता सुनिश्चित करने के बजाय उसे बाजार के हवाले करने पर ज्यादा जोर दिया है.

इसका नतीजा यह हुआ है कि पिछले डेढ़ दशक में शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्र और राज्य सरकारों के पीछे हटने से जहाँ सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका घटती गई है, वहीँ शिक्षा के समावेशी चरित्र और उसकी गुणवत्ता की कीमत पर बाजार और निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ती गई है. उदाहरण के लिए ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (२००७-१२) के दौरान उच्च शिक्षा के विस्तार में सबसे बड़ी भूमिका निजी क्षेत्र की रही.
याद रहे कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना को खुद प्रधानमंत्री ने शिक्षा योजना घोषित किया था लेकिन २००६-०७ से २०११-१२ के बीच उच्च शिक्षा में पंजीकरण में ५३.११ लाख की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई लेकिन इसमें केन्द्र सरकार का हिस्सा मात्र २.५३ लाख और राज्य सरकारों का हिस्सा २३.७२ लाख रहा जबकि निजी क्षेत्र में इन दोनों से ज्यादा २६.८६ लाख पंजीकरण हुए.
हैरानी की बात नहीं है कि ग्यारहवीं योजना के आखिरी वर्ष आते-आते उच्च शिक्षा के क्षेत्र में छात्रों के कुल पंजीकरण में निजी क्षेत्र का हिस्सा बढ़कर ५८.९ फीसदी हो गया है. इसकी तुलना में उच्च शिक्षा में पंजीकरण के लिहाज से केन्द्र का हिस्सा मात्र २.६ फीसदी और राज्य सरकारों का हिस्सा ३८.५ प्रतिशत रह गया है.

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की बढ़ती भागीदारी का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि ग्यारहवीं योजना के दौरान देश में निजी क्षेत्र ने ९८ विश्वविद्यालय, १७ डीम्ड विश्वविद्यालय, ७८१८ कालेज और ३५८१ डिप्लोमा संस्थान खोले. हाल ही में कर्नाटक विधानसभा के एक झटके में निजी क्षेत्र में तेरह नए विश्वविद्यालयों को खोलने की मंजूरी देने वाला विधेयक पारित किया है.

लेकिन प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से घुसपैठ कर रहा निजी क्षेत्र किसी दयानतदारी के भाव से नहीं बल्कि शिक्षा के तेजी से बढ़ते बाजार को कब्जाने और उससे अधिक से अधिक मुनाफा बनाने के इरादे से आ रहा है.
हालाँकि शिक्षा क्षेत्र में मुनाफा कमाने यानी शैक्षिक संस्थान से हुई कमाई को संस्थान से बाहर ले जाने की इजाजत नहीं है लेकिन किसी से छुपा नहीं है कि यह नियम सिर्फ कागजों में है और प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में घुसे भांति-भांति के कारोबारी इसे धता बताते हुए जमकर मुनाफा बना रहे हैं.
इस मुनाफे के लालच में ही छोटे-बड़े कारोबारियों से लेकर राजनेता, पूर्व नौकरशाह, प्रापर्टी डीलर, ठेकेदार और कोचिंग इंस्टीच्यूट चलानेवाले शिक्षा और छात्रों की कीमत पर मोटी कमाई कर रहे हैं.  
लेकिन शिक्षा के इस बढ़ते बाजार पर अब बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट समूहों की नजर लगी हुई है. औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन – एसोचैम के मुताबिक, भारत में अभी शिक्षा का बाजार लगभग २५ अरब डालर (१३७५ अरब रूपये) का है जो २०१५ तक बढ़कर लगभग ५० अरब डालर (२७५० अरब रूपये) का हो जाने का अनुमान है.

यही नहीं, शिक्षा को एक मंदीमुक्त कारोबार माना जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि कारपोरेट समूह इसमें घुसने के लिए बेचैन हैं और वे यू.पी.ए सरकार पर इसे पूरी तरह से खोलने यानी मुनाफा कमाने और उसे की इजाजत देने की मांग कर रहे हैं.

ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार कारपोरेट समूहों को यह इजाजत देने का मन बना चुकी है. बारहवीं पंचवर्षीय योजना (२०१२-१७) के दस्तावेज में इसकी वकालत की गई है. इसलिए आशंका यह है कि राजकोषीय घाटा कम करने की आड़ में वित्त मंत्री न सिर्फ शिक्षा के बजट में अपेक्षित बढ़ोत्तरी न करें बल्कि संभव है कि उसकी भरपाई के नामपर शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी निजी पूंजी को बढ़ावा देने की कोशिश भी करें.
यही नहीं, अगर वे शिक्षा के बजट आवंटन में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी नहीं करते हैं तो परोक्ष रूप से यह शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण के लिए रास्ता खोलने की तरह ही होगा क्योंकि शिक्षा में सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार के अभाव का सबसे अधिक फायदा निजी क्षेत्र ही उठा रहा है.
लेकिन निजी क्षेत्र ने शिक्षा में समता और गुणवत्ता की कीमत पर जिस तरह से उसे दुधारू गाय की तरह से दोनों हाथों से दुहना शुरू कर दिया है, उसके कारण भारत जनसांख्यकीय लाभांश की स्थिति गंवाता जा रहा है. देर-सबेर देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में २२ फरवरी को प्रकाशित टिप्पणी)        

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