अर्थव्यवस्था की बीमारी का इलाज उस दवा से नहीं होगा जो इस बीमारी की जड़ है
यही नहीं, अर्थव्यवस्था के लगातार खराब प्रदर्शन के बाद नए वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने इसे और घटाकर ५.५ फीसदी से ६ फीसदी रहने की उम्मीद जाहिर की थी लेकिन पहली छमाही के नतीजों को देखते हुए इस साल जी.डी.पी की ५.५ फीसदी की वृद्धि दर हासिल करना भी आसान नहीं दिख रहा है, ५.८ से लेकर ६ फीसदी की वृद्धि दर की तो बात ही दूर है.
अक्टूबर में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर ७.४५ फीसदी की ऊँचाई पर बनी हुई थी जबकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई की दर तो ९.७५ फीसदी के साथ आसमान छू रही थी.
खुद रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव मानते हैं कि मुद्रास्फीति की दर अभी भी काफी ऊँचाई पर बनी हुई है. यही कारण है कि उन्होंने वित्त मंत्री से लेकर उद्योग जगत के दबाव के बावजूद ब्याज दर में कटौती करने से इनकार कर दिया.
हालाँकि यू.पी.ए सरकार के प्रमुख आर्थिक मैनेजरों में से एक और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अब इससे नीचे नहीं गिरेगी और यह उसकी गिरावट का चरम था क्योंकि वह गड्ढे के तल तक पहुँच चुकी है, जहाँ से आगे उसमें सुधार ही होना है. ऐसा माननेवाले अहलुवालिया अकेले नहीं हैं. सरकार के अधिकांश आर्थिक मैनेजरों से लेकर निजी क्षेत्र के विश्लेषक भी ऐसी ही उम्मीद जता रहे हैं.
मनमोहन सिंह सरकार की रणनीति यह है कि निजी पूंजी और बाजार की ‘पशु प्रवृत्ति’ (एनिमल इंस्टिंक्ट) को प्रोत्साहित करके अर्थव्यवस्था में निवेश को प्रोत्साहित किया जाए. इसके लिए राजनीतिक विरोधों की परवाह किये बिना वह बाजार और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए हर कदम उठा रही है.
इससे अर्थव्यवस्था में तात्कालिक तौर पर एक कृत्रिम उछाल आ भी जाए तो उसके टिके रहने की उम्मीद बहुत कम है. यही नहीं, वैश्विक आर्थिक संकट खासकर यूरोपीय आर्थिक संकट को हल करने में इन नीतियों की नाकामी सामने आ चुकी है. इसके बावजूद यू.पी.ए सरकार कोई सबक लेने को तैयार नहीं है.
आश्चर्य नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट न सिर्फ गहराता जा रहा है बल्कि उसमें सुधार की उम्मीदें भी कमजोर पड़ती जा रही हैं. ऐसे में, इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट न सिर्फ लंबा खींच जाए बल्कि और पीड़ादायक होता जाए.
उस स्थिति में अर्थव्यवस्था में सुधार की प्रक्रिया तीव्र (वी आकार) तो छोडिये, धीमी (यू आकार) होने के बजाय धीमी-लंबी और सपाट (एल आकार) राह पकडती दिख रही है. अर्थव्यवस्था के लिए यह सबसे बड़ा और वास्तविक खतरा है.
('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 4 दिसंबर को प्रकाशित टिप्पणी)
भारतीय अर्थव्यवस्था से बुरी खबरों के आने का
सिलसिला जारी है. ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष १२-१३ की दूसरी
तिमाही (जुलाई-सितम्बर) में सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) की वृद्धि दर पिछले साल
के ६.७ प्रतिशत की तुलना में गिरकर मात्र ५.३ प्रतिशत रह गई.
यह पिछले दस साल में
अर्थव्यवस्था का सबसे बदतर प्रदर्शन है. यह इस साल की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) की
वृद्धि दर ५.५ फीसदी की तुलना में भी कम है. इस तरह चालू वित्तीय वर्ष की पहली
छमाही में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर मात्र ५.४ फीसदी रही जोकि पिछले वित्तीय वर्ष
की पहली छमाही में ७.४ फीसदी थी.
साफ़ है कि अर्थव्यवस्था की फिसलन जारी है. इस
कारण चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी की वृद्धि दर के बारे में सरकार के सभी
अनुमान गड़बड़ाते दिखाई दे रहे हैं. उल्लेखनीय है कि इस साल के बजट में तत्कालीन
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने जी.डी.पी की वृद्धि दर ७.६ फीसदी रहने का अनुमान
लगाया था जिसे बाद में रिजर्व बैंक ने घटाकर ५.८ फीसदी कर दिया था. यही नहीं, अर्थव्यवस्था के लगातार खराब प्रदर्शन के बाद नए वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने इसे और घटाकर ५.५ फीसदी से ६ फीसदी रहने की उम्मीद जाहिर की थी लेकिन पहली छमाही के नतीजों को देखते हुए इस साल जी.डी.पी की ५.५ फीसदी की वृद्धि दर हासिल करना भी आसान नहीं दिख रहा है, ५.८ से लेकर ६ फीसदी की वृद्धि दर की तो बात ही दूर है.
इस साल आर्थिक वृद्धि दर को ५.५ फीसदी से नीचे न
आने देने के लिए अगले छह महीनों में अर्थव्यवस्था को कम से कम ५.६ फीसदी की रफ़्तार
से बढ़ना होगा जबकि ५.८ फीसदी या ६ फीसदी की वृद्धि दर हासिल करने के लिए
अर्थव्यवस्था को कम से कम ६.२ फीसदी या फिर ६.६ फीसदी की अपेक्षाकृत तेज रफ़्तार
पकड़नी होगी.
अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों खासकर औद्योगिक क्षेत्र की मौजूदा
गिरावट को देखते हुए यह उम्मीद खुशफहमी ही दिखती है. उल्लेखनीय है कि
मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर इस साल दूसरी तिमाही में मात्र ०.८ प्रतिशत
और पहली छमाही में एक फीसदी से कम रही है जिससे पता चलता है कि अर्थव्यवस्था का
संकट किस हद तक गहराता जा रहा है.
चिंता की बात यह भी है कि एक ओर अर्थव्यवस्था की
वृद्धि दर लगातार गिर रही है, मैन्युफैक्चरिंग की वृद्धि दर गिरकर नगण्य हो गई है,
गिरते निर्यात के साथ व्यापार और चालू खाते का घाटा बढ़ता जा रहा है लेकिन दूसरी
ओर, मुद्रास्फीति की दर बेकाबू बनी हुई है. अक्टूबर में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर ७.४५ फीसदी की ऊँचाई पर बनी हुई थी जबकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई की दर तो ९.७५ फीसदी के साथ आसमान छू रही थी.
खुद रिजर्व बैंक के गवर्नर डी. सुब्बाराव मानते हैं कि मुद्रास्फीति की दर अभी भी काफी ऊँचाई पर बनी हुई है. यही कारण है कि उन्होंने वित्त मंत्री से लेकर उद्योग जगत के दबाव के बावजूद ब्याज दर में कटौती करने से इनकार कर दिया.
कहने की जरूरत नहीं है कि अर्थव्यवस्था के इस
संकट का सीधा असर आम आदमी पर पड़ने लगा है. पिछले तीन साल से आसमान छूती महंगाई की
मार झेल रहे लोगों को अब अर्थव्यवस्था के संकट की मार भी झेलनी पड़ रही है.
यह कई
रूपों में सामने आ रही है. अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ़्तार के कारण न सिर्फ नई
नौकरियां नहीं बढ़ रही हैं बल्कि अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों में छंटनी-ले आफ,
तालाबंदी से लेकर वेतनवृद्धि पर रोक और कटौती की खबरें भी आ रही हैं.
दूसरी ओर,
यू.पी.ए सरकार संकट में फंसी अर्थव्यवस्था को उससे बाहर निकालने के नामपर आमलोगों
पर नए-नए बोझ डालती जा रही है. इससे लोगों में बेचैनी बढ़ रही है.
लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि अँधेरी
सुरंग में फंसती जा रही अर्थव्यवस्था के लिए न तो सुरंग का आखिरी मुहाना दिख रहा
है और न ही उम्मीद की कोई साफ़ किरण नजर आ रही है. हालाँकि यू.पी.ए सरकार के प्रमुख आर्थिक मैनेजरों में से एक और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अब इससे नीचे नहीं गिरेगी और यह उसकी गिरावट का चरम था क्योंकि वह गड्ढे के तल तक पहुँच चुकी है, जहाँ से आगे उसमें सुधार ही होना है. ऐसा माननेवाले अहलुवालिया अकेले नहीं हैं. सरकार के अधिकांश आर्थिक मैनेजरों से लेकर निजी क्षेत्र के विश्लेषक भी ऐसी ही उम्मीद जता रहे हैं.
इसके लिए वे इन्फ्रास्ट्रक्चर के आठ बुनियादी
क्षेत्रों में अक्टूबर महीने में ६.५ फीसदी की वृद्धि दर और शेयर बाजार के १९ हजार
अंकों से ऊपर चढ़ जाने को शुरूआती संकेत की तरह पेश कर रहे हैं. लेकिन यह खुशफहमी
से अधिक कुछ भी नहीं है.
सच यह है कि आठ बुनियादी क्षेत्रों के किसी एक माह के
आंकड़ों के आधार पर औद्योगिक विकास में सुधार की उम्मीद करना जल्दबाजी होगी. दूसरे,
शेयर बाजार में मौजूदा उछाल के पीछे सबसे बड़ी वजह विदेशी संस्थागत निवेशकों
(एफ.आई.आई) की सट्टेबाजी है. एफ.आई.आई ने इस साल शेयर बाजार में अब तक १९.०८ अरब
डालर (लगभग एक लाख करोड़ रूपये) का निवेश किया है जोकि उनके द्वारा किसी भी एक वर्ष
में किये गए निवेश का रिकार्ड है.
लेकिन इसका कोई ठिकाना नहीं है. यह आवारा पूंजी
है और इसके भरोसे अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने की उम्मीद पालना सबसे बड़ी बेवकूफी
होगी.
यह ठीक है कि यू.पी.ए सरकार ने पिछले कुछ महीनों
में अर्थव्यवस्था की गिरावट को रोकने के लिए खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश (एफ.डी.आई)
की इजाजत देने से लेकर पेंशन और बीमा में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने जैसे नव
उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले कई बड़े नीतिगत और प्रशासनिक फैसले किये
हैं. मनमोहन सिंह सरकार की रणनीति यह है कि निजी पूंजी और बाजार की ‘पशु प्रवृत्ति’ (एनिमल इंस्टिंक्ट) को प्रोत्साहित करके अर्थव्यवस्था में निवेश को प्रोत्साहित किया जाए. इसके लिए राजनीतिक विरोधों की परवाह किये बिना वह बाजार और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए हर कदम उठा रही है.
यहाँ तक कि विदेशी पूंजी का विश्वास जीतने के लिए
वह अलोकप्रियता का खतरा उठाकर भी पेट्रोलियम उत्पादों की सब्सिडी कम करने जैसे
फैसले करने में संकोच नहीं कर रही है. लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था
पटरी पर आ जायेगी?
इसके आसार अभी नहीं दिखाई पड़ रहे हैं. उल्टे अर्थव्यवस्था की
मौजूदा कमजोरी के लंबा खींचने की आशंका बढ़ती जा रही है. इस आशंका को अनदेखा नहीं
किया जा सकता है कि अर्थव्यवस्था आनेवाले महीनों में न सिर्फ और नीचे गिर सकती है
बल्कि उसके मुद्रास्फीति-जनित मंदी (स्टैगफ्लेशन) में भी फंसने का खतरा है.
यही नहीं, बाजार और निजी पूंजी को खुश करने के
उपायों से अर्थव्यवस्था में थोड़ी हलचल हुई और उछाल आया भी तो उसके स्थाई होने को
लेकर कई सवाल हैं. इसकी वजह यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था जिन नव उदारवादी आर्थिक
सुधारों के कारण संकट में फंसी है, उन्हीं में उसका समाधान खोजने की कोशिश की जा
रही है. इससे अर्थव्यवस्था में तात्कालिक तौर पर एक कृत्रिम उछाल आ भी जाए तो उसके टिके रहने की उम्मीद बहुत कम है. यही नहीं, वैश्विक आर्थिक संकट खासकर यूरोपीय आर्थिक संकट को हल करने में इन नीतियों की नाकामी सामने आ चुकी है. इसके बावजूद यू.पी.ए सरकार कोई सबक लेने को तैयार नहीं है.
आश्चर्य नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट न सिर्फ गहराता जा रहा है बल्कि उसमें सुधार की उम्मीदें भी कमजोर पड़ती जा रही हैं. ऐसे में, इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट न सिर्फ लंबा खींच जाए बल्कि और पीड़ादायक होता जाए.
उस स्थिति में अर्थव्यवस्था में सुधार की प्रक्रिया तीव्र (वी आकार) तो छोडिये, धीमी (यू आकार) होने के बजाय धीमी-लंबी और सपाट (एल आकार) राह पकडती दिख रही है. अर्थव्यवस्था के लिए यह सबसे बड़ा और वास्तविक खतरा है.
('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 4 दिसंबर को प्रकाशित टिप्पणी)
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