शुक्रवार, दिसंबर 28, 2012

जादू की छड़ी नहीं है डायरेक्ट कैश ट्रांसफर

असली 'गेम चेंजर' योजना खाद्य सुरक्षा कानून को होना था लेकिन वह कहाँ हैं?

भ्रष्टाचार और घोटालों के गंभीर आरोपों से घिरी और आसमान छूती महंगाई को काबू करने में नाकाम रही यू.पी.ए सरकार को आगामी चुनावों का डर सताने लगा है. इसलिए वह भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों को बदलने की हताशापूर्ण कोशिश कर रही है. इसी कोशिश के तहत उसने खूब जोर-शोर से सब्सिडी के नगद हस्तांतरण योजना (कैश ट्रांसफर) की घोषणा की है जो अगले साल जनवरी से देश के ५१ जिलों में लागू की जाएगी.

अगले साल के आखिर तक इसे देश के सभी ६४० जिलों में लागू करने की घोषणा की गई है. इस योजना के तहत शुरुआत में केन्द्र सरकार की २९ विभिन्न योजनाओं के तहत मिलनेवाली पेंशन और स्कालरशिप जैसी राशि सीधे लाभार्थी के बैंक एकाउंट में जाएगी.
वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का दावा है कि यह एक ‘खेल बदलनेवाली’ (गेम चेंजर) योजना है. इससे सरकारी सब्सिडी को गरीबों तक पहुंचाने में होनेवाले भ्रष्टाचार, लूट, अनियमितताओं और लालफीताशाही पर रोक लगेगी और लाभार्थियों को सीधा फायदा होगा. यह सुनिश्चित करने के लिए आधार कार्ड की मदद ली जाएगी और जिन लाभार्थियों के पास आधार कार्ड होगा, उन्हें ही कैश ट्रांसफर का फायदा मिलेगा.

यू.पी.ए सरकार को उम्मीद है कि इससे इन योजनाओं में फर्जीवाड़े पर रोक लगेगी, लालफीताशाही कम होने से सरकार पर सब्सिडी का बोझ भी कम होगा, वहीँ दूसरी ओर लाभार्थियों को भी बिना सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाये और सरकारी बाबुओं को घूस खिलाये सीधे पैसा मिलने लगेगा. यह भी कहा जा रहा है कि इस योजना के कारण सभी लाभार्थियों के बैंक खाते खुलेंगे जिससे करोड़ों लोगों को बैंकिंग सुविधाओं का लाभ मिल सकेगा.

हालाँकि वित्त मंत्री ने इस योजना से अभी पी.डी.एस राशन, खाद और किरोसीन-रसोई गैस सब्सिडी को बाहर रखने की बात कही है लेकिन यह संकेत दिया है कि आगे चलकर इन्हें भी कैश ट्रांसफर के तहत लाने पर विचार किया जाएगा.
साफ़ है कि देर-सवेर सरकार पी.डी.एस राशन, उर्वरक और किरोसीन सब्सिडी को भी कैश ट्रांसफर के दायरे में ले आएगी. असल में, यू.पी.ए सरकार का असली मकसद पी.डी.एस राशन, उर्वरक और किरोसीन सब्सिडी को कैश ट्रांसफर के तहत लाना है और इसके लिए बाकी योजनाओं की आड़ ली जा रही है.

तथ्य यह है कि अभी जिन २९ योजनाओं को कैश ट्रांसफर के तहत लाने की घोषणा की गई है, उनमें नया कुछ भी नहीं है. ये सभी योजनाएं पहले से ही कैश ट्रांसफर यानी लाभार्थी को सीधे नगदी मुहैया कराने की योजनाएं हैं. इसमें लाभार्थियों को पहले से ही कैश उनके बैंक खाते में पहुँचता रहा है.

यही नहीं, इन योजनाओं में भ्रष्टाचार और लूट की उतनी शिकायतें नहीं रही हैं, जितनी पी.डी.एस राशन और किरोसीन में रही हैं. इस मायने में यह किसी भी तरह से ‘गेम चेंजर’ योजना नहीं है. सच पूछिए तो यह अत्यंत विवादास्पद आधार पहचानपत्र योजना को बचाने और नया जीवन देने की योजना है. कैश ट्रांसफर को आधार के साथ जोड़कर उसे प्रासंगिक बनाने की कोशिश की गई है.

असल में, ‘गेम चेंजर’ योजना तो खाद्य सुरक्षा कानून हो सकती थी जिसे यू.पी.ए सरकार ने २००९ के आम चुनावों में वायदे के बावजूद न सिर्फ पिछले साढ़े तीन साल लटका रखा है बल्कि उसे सीमित, हल्का, आधा-अधूरा और कमजोर करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है.
उल्लेखनीय है कि कुछ महीनों पहले तक सरकारी हलकों में खाद्य सुरक्षा विधेयक को ‘गेम चेंजर’ बताया जा रहा था और दावे किये जा रहे थे कि यह कानून मनरेगा और कर्ज माफ़ी जैसी योजनाओं को भी पीछे छोड़ देगा. लेकिन जिस तरह से कैश ट्रांसफर योजना का शोर मचाया जा रहा है, उससे यह आशंका बढ़ती जा रही है कि यू.पी.ए सरकार खाद्य सुरक्षा कानून बनाने के वायदे से पीछे हटने या उसे और टालने का बहाना खोज रही है.
सवाल यह है कि क्या कैश ट्रांसफर योजना सचमुच में, हर मर्ज की दवा यानी ‘गेम चेंजर’ है? असल में, कैश ट्रांसफर योजना कोई ऐसी नई या नायाब योजना नहीं है और न ही देश में पहली बार लागू होने जा रही है. वृद्धावस्था, विधवा पेंशन, आंगनवाडी कर्मियों का मानदेय और छात्रवृत्ति आदि लाभार्थियों को पहले से ही बैंक में नगद या चेक के जरिये मिलती रही हैं.

इन सभी योजनाओं में भ्रष्टाचार और लालफीताशाही से ज्यादा बड़ा और असल मुद्दा यह रहा है कि उनका लाभ अभी भी सीमित लोगों को मिलता है और उसके तहत मिलनेवाली राशि बुनियादी जरूरतों की तुलना में बहुत ही ज्यादा कम है. उदाहरण के लिए, वृद्धावस्था पेंशन के तहत ३०० रूपये प्रति माह और विधवा पेंशन के तहत ३०० रूपये प्रति माह मिलते हैं.

साफ़ है कि कैश ट्रांसफर योजना को ‘गेम चेंजर’ बनाने के लिए यह जरूरी है कि न सिर्फ उसका दायरा बढ़ाया जाए यानी उसे सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों तक सीमित न किया जाए और दूसरे, उसके तहत दी जानेवाली राशि को कम से कम ५००० रूपये प्रति माह किया जाए. लेकिन साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार का ऐसा कोई इरादा नहीं है क्योंकि वह तो सब्सिडी कम करने पर तुली हुई है.
इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि यू.पी.ए सरकार ने राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने के लिए हाल में एक रोडमैप जारी किया है जिसमें दावा किया गया है कि राजकोषीय घाटे को चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) में जी.डी.पी के ५.३ फीसदी, अगले वर्ष १३-१४ में जी.डी.पी के ४.८ फीसदी, वर्ष १४-१५ में जी.डी.पी के ४.२ फीसदी, वर्ष १५-१६ में जी.डी.पी के ३.६ फीसदी और वर्ष १६-१७ में जी.डी.पी के ३ फीसदी तक कर दिया जाएगा.
सवाल है कि यह कैसे होगा क्योंकि पिछले वित्तीय वर्ष (११-१२) में राजकोषीय घाटा ५.९ फीसदी रहा था और इस साल इसके जी.डी.पी के ६.१ फीसदी रहने का अनुमान जाहिर किया जा रहा था? इसका उत्तर वित्त मंत्रालय द्वारा गठित केलकर समिति की उस रिपोर्ट में मिलता है जिसे पी. चिदंबरम ने वित्त मंत्रालय संभालने के तुरंत बाद राजकोषीय घाटे को काबू में करने के लिए सुझाव देने के वास्ते बनाया था.
इस समिति ने सुझाव दिया है कि राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए सरकार को सब्सिडी खासकर पेट्रोलियम, उर्वरक और खाद्य सब्सिडी में कटौती करना अनिवार्य है. समिति ने इसके लिए डीजल, किरोसीन, रसोई गैस, उर्वरकों और राशन से मिलनेवाले गेहूं-चावल आदि की कीमतों में बढ़ोत्तरी की सिफारिश की है और इस तरह इन सब्सिडी को जी.डी.पी के मौजूदा २.२ फीसदी से घटाकर चालू वित्तीय वर्ष १२-१३ में जी.डी.पी का २ फीसदी, १३-१४ में जी.डी.पी का १.७ और १४-१५ में १.५ फीसदी करने को कहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार ने इन सिफारिशों को मान लिया है और इसका सबूत यह है कि सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों से लेकर उर्वरकों की कीमतों में बढ़ोत्तरी की है. यही नहीं, खाद्य सुरक्षा विधेयक को किनारे कर दिया है. इसके अलावा खुद वित्त मंत्री ने एक प्रेस कांफ्रेंस में इन सिफारिशों को स्वीकार करने का एलान किया है.
साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार का असली इरादा सब्सिडी के ‘बोझ’ (वह इसे बोझ ही मानती है) को कम करने का है. कैश ट्रांसफर योजना इसी मकसद के साथ लाई गई है. असल में, इस साल मार्च में बजट से पहले पेश आर्थिक सर्वेक्षण में सब्सिडी के बढ़ते बोझ से निपटने के लिए कैश ट्रांसफर योजना को आगे बढ़ाने की सिफारिश की गई थी. यही नहीं, सर्वेक्षण में भी इसे ‘गेम चेंजर’ योजना बताया गया था.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार पिछले कई सालों से सब्सिडी में कटौती के उपाय के बतौर कैश ट्रांसफर योजना की जोरशोर से पैरवी करते रहे हैं. इसकी प्रेरणा उन्हें विश्व बैंक से मिली है जो वर्षों से न सिर्फ राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए भारत पर दबाव डालता रहा है बल्कि इसके लिए विनिवेश से लेकर सब्सिडी के बोझ को न्यूनतम करने पर जोर देता रहा है.

इसके लिए विश्व बैंक की ओर से दिए अनेक सुझावों में एक सुझाव कैश ट्रांसफर का भी रहा है. लेकिन इसका मुख्य उद्देश्य न तो सामाजिक सुरक्षा के दायरे को बढ़ाना और उसे प्रतीकात्मक के बजाय वास्तविक बनाना रहा है और न ही सब्सिडी वितरण में भ्रष्टाचार-धांधली खत्म करना और उसे वास्तविक लाभार्थियों तक पहुंचाना है.

इसके उलट इसका असली मकसद सब्सिडी में कटौती है. उदाहरण के लिए कैश ट्रांसफर योजना को ही लीजिए जिसे हर मर्ज की दवा की तरह पेश किया जा रहा है. आखिर इससे क्या बदलनेवाला है? कैश ट्रांसफर के साथ आधार कार्ड को जोड़ देने से क्या बदल जाएगा?
असल में, आधार कार्ड सिर्फ एक पहचानपत्र भर है जो किसी भी व्यक्ति की पहचान बताता है. लेकिन अधिकांश सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के साथ असल समस्या यह है कि वे लक्षित समूहों खासकर गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों तक सीमित हैं. लेकिन असली मुद्दा और विवाद तो इस गरीब रेखा की परिभाषा और गरीबों की पहचान का है. पिछले साल योजना आयोग की ओर से दी गई गरीब और गरीबी की परिभाषा एक त्रासद मजाक से ज्यादा नहीं थी.
मुश्किल यह है कि योजना आयोग की उस गरीबी रेखा के आधार पर ही विभिन्न योजनाओं के लाभार्थियों की पहचान की जा रही है. साफ़ है कि आधार कार्ड गरीबों की पहचान नहीं करेगा क्योंकि गरीबों की पहचान तो राज्य सरकारें करेंगी और उनके लिए योजना आयोग ने हर राज्य में एक कृत्रिम सीमा बाँध दी है.

इस कारण आधार कार्ड कोई जादू की छड़ी नहीं बनने जा रही है जिससे गरीबों की सही-सही पहचान हो जाए. राज्य सरकार और जिला प्रशासन जिसे गरीब घोषित करेगा, उसे उसकी आधार कार्ड की पहचान के आधार पर इन योजनाओं का सीमित लाभ मिलेगा.

यही नहीं, आगे चलकर सरकार का इरादा राशन और उर्वरक सब्सिडी को भी इसके तहत लाने का है जिसका मतलब होगा कि पी.डी.एस की मौजूदा व्यवस्था को खत्म करके सरकार अनाज के बजाय सीधे लोगों को उतना पैसा दे देगी जिससे वे खुले बाजार से अपनी पसंद का अनाज खरीद लें. कहने की जरूरत नहीं है कि अगर ऐसा हुआ तो एक ओर सरकार को किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने से मुक्ति मिल जाएगी क्योंकि जब पी.डी.एस राशन नहीं तो अनाज खरीदने की क्या जरूरत है?
दूसरी ओर, गरीबों को खुले बाजार की दया पर छोड़ दिया जाएगा क्योंकि राशन के बदले जितना नगद देगी, उससे खुले बाजार में उन्हें पी.डी.एस से मिलनेवाले अनाज का दस प्रतिशत अनाज भी नहीं मिल पायेगा.
यही स्थिति उर्वरकों के मामले में भी होगी. साफ़ है कि इससे किसानों और गरीबों दोनों को नुकसान होगा. निश्चय ही, इससे अनाज के कारोबार में लगी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों, देशी कंपनियों और बड़े व्यापारियों को फायदा होगा. आश्चर्य नहीं कि कैश ट्रांसफर योजना का समर्थन सबसे ज्यादा वे ही कर रही हैं.

('समकालीन जनमत' के दिसंबर अंक के लिए लिखी टिप्पणी)

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