शनिवार, अगस्त 18, 2012

आर्थिक मंदी के बावजूद शिक्षा की खरीद-फरोख्त का धंधा जोरों पर है

शिक्षा का निजीकरण कोई दुर्घटना नहीं बल्कि सोची-समझी नीतियों और राजनीति का नतीजा है

शिक्षा का बाजारीकरण: पहली किस्त  

अगर आपको शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के वास्तविक मायने समझने हैं तो आप देश की राजधानी दिल्ली से सड़क के रास्ते आगरा की ओर या हरिद्वार या मेरठ या मुरादाबाद या जयपुर या चंडीगढ़ की ओर चलना शुरू कीजिए. सड़क के दोनों ओर आपको प्राइवेट इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट, बी.एड कालेजों से लेकर निजी विश्वविद्यालयों की अंतहीन कतार दिखाई देगी.
शहर के बाहर निकलते ही सड़क के किनारे और खेतों के बीच इनकी बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें और लुभाते बिलबोर्ड शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के चमकदार विज्ञापनों की तरह दिखते हैं. लेकिन यह परिघटना सिर्फ दिल्ली और उसके आसपास के शहरों तक सीमित नहीं है.
सच पूछिए तो पिछले दस सालों में देश के सभी राज्यों में रीयल इस्टेट के बाद सबसे फल-फूल रहा धंधा शिक्षा का ही है. इसका सबूत यह है कि अपने शहरों से छपनेवाले अखबारों के विज्ञापनों पर गौर कीजिए, आप पायेंगे कि उनमें से ३५ से ४० फीसदी से अधिक रंगीन विज्ञापन इन्हीं निजी शैक्षणिक संस्थानों के विभिन्न फैंसी कोर्सेज के हैं.

एक मोटे अनुमान के मुताबिक, अकेले दिल्ली से छपनेवाले अख़बारों/पत्रिकाओं को इन निजी शैक्षणिक संस्थानों और कोचिंग संस्थाओं से हर साह औसतन ६०० करोड़ रूपये का विज्ञापन मिल रहा है. रीयल इस्टेट के बाद सबसे अधिक विज्ञापन निजी शैक्षणिक संस्थान ही दे रहे हैं. इसे अनुमान लगाया जा सकता है कि शिक्षा निजीकरण और व्यवसायीकरण की जड़ें कितनी गहरी हो चुकी हैं.    

दरअसल, दशकों के संघर्ष के बाद दो साल पहले लागू हुए शिक्षा के अधिकार के कानून के बावजूद शिक्षा का निजीकरण और व्यवसायीकरण ही शिक्षा की असली सच्चाई है. इसपर पर्दा डालना मुश्किल है. वैसे भारतीय राज्य ने शिक्षा को कभी भी राज्य की सार्वजनिक जिम्मेदारी नहीं माना और तमाम वायदों और घोषणाओं के बावजूद देश में दोहरी शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा दिया गया.
यही नहीं, समाजवाद के ढकोसले के पीछे साजिशाना तरीके से सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त किया गया और उसकी कब्र पर निजी और मुनाफाखोर शिक्षा व्यवस्था करने फलने-फूलने का मौका दिया गया.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण की परिघटना कोई ऐसी दुर्घटना नहीं है जो अनजाने में या किसी लापरवाही के कारण हो गई है. तथ्य यह है कि शिक्षा का निजीकरण एक बहुत सोची-समझी नीति और राजनीति का नतीजा है. यह राजनीति देश के एक बड़े हिस्से खासकर गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने की थी.

इसके लिए जरूरी था कि दोहरी शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा दिया जाये जिसमें एक ओर कथित पब्लिक स्कूलों की अभिजात्य शिक्षा व्यवस्था थी और दूसरी ओर, बुनियादी सुविधाओं के लिए भी तरसती सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था थी.

जाहिर है कि अभिजात्य शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य देश के शासक वर्गों के लिए राज व्यवस्था को संभालनेवाले अफसर, प्रबंधक और दूसरे प्रोफेशनल पैदा करना था जबकि सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का मकसद क्लर्क और प्रशिक्षित श्रमिक पैदा करना था.
यह सच है कि शिक्षा में यह वर्गीय विभाजन आज़ादी के पहले से ही मौजूद था लेकिन इसके साथ ही, यह भी उतना ही बड़ा सच है कि आज़ाद भारत की सरकारों ने भी उन्हीं ब्रिटिशकालीन औपनिवेशिक नीतियों को आगे बढ़ाया जिसके खिलाफ आज़ादी की लड़ाई चली थी.
हालाँकि आज़ादी के बाद शुरूआती दशकों में शासक वर्गों की ओर से समतापूर्ण समाज बनाने में शिक्षा को बदलाव का यंत्र बनाने की लच्छेदार बातें भी होतीं रहीं लेकिन वास्तविकता में दोहरी शिक्षा प्रणाली को ही मजबूत किया गया.
इसके बावजूद आज़ादी के बाद शुरूआती दशकों में शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण को उतना खुलकर बढ़ावा नहीं दिया गया जितना ८० के दशक के मध्य खासकर नई शिक्षा नीति के एलान के बाद से दिया गया.

असल में, आज़ादी के बाद के शुरूआती दशकों में एक तो आज़ादी की लड़ाई और उसके बड़े सपनों और आकांक्षाओं का असर था और दूसरे, शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के लिए उतना बड़ा बाजार नहीं तैयार हुआ था जितना ८० के दशक बाद सामने आया है. इसके अलावा एक और बड़ा कारण यह है कि आज़ादी के बाद ७० और कुछ हद तक ८० के दशक तक छात्र-युवा आंदोलन बहुत मजबूत और सक्रिय था जिसने शिक्षा के निजीकरण के प्रयासों को लगातार चुनौती दी.

लेकिन ८० के दशक के मध्य में राजीव गाँधी सरकार के नेतृत्व में आई नई शिक्षा नीति ने शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के रास्ते की सारी रुकावटों को हटा दिया और उसे खुलकर प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया. ९० के दशक में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की शुरुआत ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी. सरकारों ने साफ़-साफ़ कहना शुरू कर दिया कि शिक्षा खासकर उच्च शिक्षा उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है.
हालाँकि तथ्य के बतौर इसमें कोई नई बात नहीं थी लेकिन शासक वर्गों की ओर से इससे पहले इतनी स्पष्टता से अपनी जिम्मेदारी से कभी हाथ नहीं झाडा गया था. यह वही दौर था जब आर्थिक संकट का बहाना बनाकर भारतीय राज्य अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से भाग रहा था और अर्थव्यवस्था के साथ-साथ शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक को बाजार के हवाले करने को एकमात्र विकल्प बता रहा था.
आश्चर्य नहीं कि इसी दौर में ‘इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है’ (देयर इज नो आल्टरनेटिव-टीना फैक्टर) के तर्क के साथ नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी ने शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण को जोरशोर से आगे बढ़ाना शुरू कर दिया. इसके लिए सार्वजनिक शिक्षा की बदहाल स्थिति को भी तर्क के बतौर इस्तेमाल किया गया जबकि उनकी बदहाली के लिए सबसे ज्यादा सरकारें ही जिम्मेदार थीं.

लेकिन कहा गया कि बाजार ही बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे सकता है क्योंकि सरकार शिक्षा संस्थानों को चलाने में अक्षम है, उसके पास संसाधनों की भारी कमी है, शैक्षिक संस्थानों में बहुत ज्यादा राजनीति है, अनुशासनहीनता है, सरकारी स्कूलों/कालेजों/विश्वविद्यालयों के शिक्षक पढाते नहीं हैं और इससे सबसे निपट पाना सरकारों के वश की बात नहीं है.

विश्व बैंक और मुद्रा कोष की अगुवाई में निजीकरण और व्यवसायीकरण के समर्थकों ने यह भी तर्क दिया कि सरकारी स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की तुलना में निजी शैक्षिक संस्थानों में ज्यादा बेहतर पढ़ाई होती है, वे फीस अधिक लेते हैं लेकिन छात्रों/अभिभावकों के प्रति जिम्मेदार होते हैं और यह भी कि लोग खुद ही निजी स्कूलों को पसंद कर रहे और उसमें अपने बच्चों को भेज रहे हैं.
आश्चर्य नहीं कि एक ओर निजी शैक्षिक संस्थानों के पक्ष में तर्क गढे जा रहे थे और दूसरी ओर, सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों के बजट में कटौती या अपेक्षित वृद्धि नहीं की जा रही थी. इसके अलावा आर्थिक संकट के नामपर सरकारी शैक्षिक संस्थानों की फ़ीस बढाई जा रही थी.
जारी...कल पढ़िए आगे.. 

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