शुक्रवार, मार्च 02, 2012

मीडिया के मुंह पेड न्यूज का खून

जस्टिस मार्कंडेय काटजू आप कहाँ है? एडिटर्स गिल्ड कहाँ है?


पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ चुनावी पेड न्यूज फिर लौट आया है. वैसे वह कहीं गया नहीं था क्योंकि मुनाफे की बढ़ती भूख के बीच न्यूज मीडिया में पेड न्यूज ही शाश्वत सत्य है, बाकी सब भ्रम है. प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम?

रिपोर्टों के मुताबिक, चुनाव आयोग को पंजाब में पेड न्यूज की कोई ५२३ शिकायतें मिलीं जिनमें से कोई ३३९ मामलों में आयोग ने उम्मीदवारों को नोटिस जारी किया. इसके जवाब में २०१ उम्मीदवारों ने स्वीकार किया कि उन्होंने खबरों के लिए पैसे दिए और वे उसे अपने चुनाव खर्च में जोडेंगे. अन्य ७८ उम्मीदवारों ने इन आरोपों को नकारा है जबकि ३८ मामलों में उम्मीदवारों या संबंधित मीडिया संस्थान ने आरोपों को चुनौती दी है.

अब उन २०१ मामलों में मीडिया संस्थानों की प्रतिक्रिया या उनपर प्रेस काउंसिल की कार्रवाई का इंतज़ार है जिनमें उम्मीदवारों ने खबरों के बदले में पैसे देने की बात स्वीकार की है. वैसे कहते हैं कि इस बार पंजाब में पेड न्यूज का आलम यह था कि सत्ता की दावेदार पार्टियों का शायद ही कोई ऐसा उम्मीदवार हो जिसने अख़बारों/चैनलों के पैकेज न लिए हों.

मतलब यह कि पेड न्यूज जितना व्यापक था, उसकी तुलना में ५२३ शिकायतें कुछ भी नहीं हैं. आरोप तो यहाँ तक हैं कि पेड न्यूज के पैकेजों को खरीदने के लिए उम्मीदवारों को ब्लैकमेल तक किया गया कि उन्हें ब्लैकआउट कर दिया जाएगा.

लेकिन इस मामले में पंजाब कोई अपवाद नहीं है. गोवा के लिए पेड न्यूज कोई नई परिघटना नहीं है. पिछले साल एक पत्रकार ने वहां के सबसे अधिक प्रसार वाले अंग्रेजी दैनिक के मार्केटिंग मैनेजर को एक स्टिंग आपरेशन में चुनावों के एक संभावित उम्मीदवार से ‘अनुकूल और सकारात्मक खबर’ के बदले में पैसे मांगते हुए पकड़ लिया.
इस घटना से साफ़ हो गया कि अवैध खनन से लेकर विधायकों और वोटरों की खरीद-फरोख्त के लिए कुख्यात हो चुके गोवा के अख़बार और चैनल भी बिकाऊ हैं.

ऐसे में, चुनावी पेड न्यूज की प्रयोगभूमि उत्तर प्रदेश के अखबार और चैनल भी कहाँ पीछे रहनेवाले हैं? खबरें हैं कि यहाँ भी बहती चुनावी गंगा में अखबार और चैनल जमकर हाथ धो रहे हैं. अख़बारों और चैनलों के चुनावी पैकेजों की खूब चर्चाएँ हैं.

अलबत्ता कहते हैं कि इस बार पेड न्यूज का तरीका थोड़ा बदला हुआ है. अखबार और चैनल उम्मीदवारों के पक्ष में प्रशंसात्मक खबरों/रिपोर्टों के बजाय इस बार नकारात्मक या उनकी असलियत बतानेवाली खबरें/रिपोर्टें न छापने के लिए पैसे ले रहे हैं. यह अख़बारों/चैनलों में पेड न्यूज का नया काला जादू है.          

असल में, इन चुनावों को २०१४ के आम चुनावों से पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है और इस कारण इनपर बड़े राजनीतिक दांव लगे हुए हैं. नतीजा, पैसा पानी की तरह बह रहा है. चैनल/अखबार भी दोनों हाथों से बटोरने में जुटे हुए हैं.

कहने का अर्थ यह कि पिछले काफी दिनों से पेड न्यूज को लेकर मचे हो-हंगामे, विरोधों और चुनाव आयोग/प्रेस काउंसिल की सक्रियता के बावजूद चुनावी पेड न्यूज न सिर्फ जिन्दा है बल्कि बदले तौर-तरीकों के साथ और मोटा और मजबूत हुआ है.

हालांकि उत्तर प्रदेश में एक विधायक की सदस्यता रद्द करने के चुनाव आयोग के फैसले और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में अख़बारों/चैनलों की उत्साहपूर्ण भागीदारी के बाद एक बार यह उम्मीद जरूर जगी थी कि चुनावी पेड न्यूज अब रूक जाएगा.
लेकिन लगता है कि अख़बारों/चैनलों को पेड न्यूज के खून का ऐसा स्वाद लग गया है कि उनकी भूख और बढ़ती ही जा रही है. अफसोस की बात यह है कि इस भूख ने उनसे सोचने-समझने की शक्ति छीन ली है. खबरों को बेचकर या खबरों को छुपाकर वे अपने पाठकों/दर्शकों के विश्वास के साथ धोखा कर रहे हैं.

लेकिन ऐसा करते हुए अपनी साख और विश्वसनीयता के साथ खेल रहे हैं. इस खेल में वे सिर्फ अपने धंधे और लोकतंत्र के चौथे खम्भे को ही दांव पर नहीं लगा रहे हैं बल्कि खुद लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. वह इसलिए कि लोकतंत्र में अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए जनता के पास अपने राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के बारे में पूरी और सच्ची जानकारी होना जरूरी शर्त है?

लेकिन क्या हमारे अखबार/चैनल लोगों को पूरी और सच्ची जानकारी दे रहे हैं? संभव है कि कुछ अपवाद हों लेकिन आरोप हैं कि इस बार अखबार/चैनल उम्मीदवारों की असलियत छुपाने के लिए पैसे ले रहे हैं.

आश्चर्य नहीं कि सभी उम्मीदवारों द्वारा दाखिल संपत्ति और आपराधिक रिकार्ड के सार्वजनिक ब्यौरों के बावजूद अख़बारों/चैनलों ने उसे विस्तार से छापने/दिखाने में भी संकोच किया. उम्मीदवारों के हलफनामों की बारीकी से छानबीन, उनके आय के स्रोतों की पड़ताल, उनके आपराधिक मामलों की पुलिस जांच से लेकर कोर्ट की कार्रवाई तक की ताजा स्थिति से लेकर उनके अन्य कारनामों को सामने लाना तो बहुत दूर की बात है.
क्या यह सिर्फ अख़बारों/चैनलों के पत्रकारों की काहिली/उदासीनता है या इसके पीछे कोई निश्चित पैटर्न है? गौर से देखें तो पैटर्न साफ़ दिखता है. इसके कारण ही राजनीति और संसद/विधानसभाओं में कृपा शंकर सिंह जैसे माननीयों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनकी संपत्ति न जाने किस जादू से देखते-देखते न्यूनतम दस से लेकर सौ और हजार गुने तक बढ़ जा रही है.

आखिर इसे सामने कौन लाएगा? कहते हैं कि कभी एक खोजी पत्रकारिता नाम की चीज हुआ करती थी. लगता है, पेड न्यूज के साथ वह इतिहास का हिस्सा बन चुकी है. केवल खोजी पत्रकारिता ही नहीं, पेड न्यूज के कैंसर ने पत्रकारिता की आत्मा से लेकर उसकी आवाज़ तक को मारना शुरू कर दिया है.   

नतीजा, न्यूज मीडिया की धार भोथरी और आवाज़ कमजोर पड़ने लगी है. लेकिन बीमार न्यूज मीडिया भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं है. डर यह है कि कहीं पेड न्यूज से निकला रास्ता पेड लोकतंत्र की राह न बनाने लगे. जस्टिस मार्कंडेय काटजू आप कहाँ है?

(पाक्षिक "तहलका" के १५ मार्च के अंक में प्रकाशित स्तम्भ से...इसे आप यहाँ भी पढ़ सकते और टिप्पणी कर सकते हैं: http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/1134.html#en )

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

Absolutely correct but at the same time expecting truth in meager 3-5 Rs. is a bit high expectation, in a country where you can't buy a chapati with the same amount!