रविवार, मार्च 18, 2012

महंगाई और निवेश को अनदेखा करता बजट

वित्तीय घाटे के व्यामोह में वित्त मंत्री मौका चूक गए

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को अपना सातवां बजट पेश करते समय भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी चुनौतियों का पूरा अंदाज़ा था. अपने बजट भाषण में उन्होंने इस चुनौतियों का उल्लेख भी किया है. हर चुनौती एक तरह से अवसर भी होती है. प्रणब मुखर्जी के लिए भी यह एक ऐतिहासिक अवसर था.

लेकिन लगता है कि उन चुनौतियों से निपटने के तरीके और उपायों को लेकर वह दुविधा में फंस गए. महंगाई का ध्यान रखें कि अर्थव्यवस्था की गिरती हुई विकास दर का? वित्तीय घाटे की चिंता करें कि अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाएं? इस दुविधा से निपटना इतना आसान नहीं है. इसके लिए अच्छा-ख़ासा साहस और जोखिम लेने की तैयारी होनी चाहिए.

लेकिन लगता है कि प्रणब मुखर्जी जोखिम लेने और नई राह चलने के लिए तैयार नहीं थे. नतीजा, वित्त मंत्री ने बजट में एक ऐसी मध्यममार्गी राह चुनने की कोशिश की है जिसमें अभी खतरा भले कम दिख रहा हो लेकिन कई बार संतुलन बैठाने की कोशिश में ‘माया मिली न राम’ वाली स्थिति पैदा हो जाती है.

कहने की जरूरत नहीं है कि उन्होंने बजट में वित्तीय घाटे को काबू में करने को सबसे ज्यादा अहमियत दी है. उनकी रणनीति यह है कि घाटे को काबू में करके मौद्रिक नीतियों के मामले में रिजर्व बैंक के लिए ब्याज दरों में कटौती की गुंजाइश बनाई जाये. इससे निजी निवेश में बढ़ोत्तरी होगी और अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी.

लेकिन इसके लिए उन्होंने महंगाई की चिंता को नजरंदाज कर दिया है. यही कारण है कि उन्होंने बजट में न सिर्फ उत्पाद और सेवा करों में दो फीसदी की वृद्धि कर दी है बल्कि सब्सिडी में कटौती के नाम पर उर्वरकों और पेट्रोलियम उत्पादों को निशाना बनाया है.

बजट में उन्होंने उर्वरक सब्सिडी में ६२२५ करोड रूपये और पेट्रोलियम सब्सिडी में २४९०१ करोड रूपये की कटौती का प्रस्ताव किया है. इसका साफ़ मतलब है कि आनेवाले सप्ताहों में पेट्रोलियम उत्पादों और उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि तय है. सवाल यह है कि क्या इन फैसलों से महंगाई की आग और नहीं भड़क उठेगी?

इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन ऐसा लगता है कि वित्त मंत्री को यह खुशफहमी हो गई है कि महंगाई अब काबू में आ गई और इसके लिए वे पिछले तीन महीनों से महंगाई की दरों में आई गिरावट का हवाला देते हैं. लेकिन यह पूरा सच नहीं है. पूरा सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर भले कम हुई है लेकिन महंगाई कम नहीं हुई है.

तथ्य यह है कि मुद्रास्फीति की दर और वास्तविक महंगाई के बीच बहुत बड़ा फासला है. यही कारण है कि सरकार और उसके आर्थिक मैनेजर भले ही मुद्रास्फीति की दर में कमी और उसके ७ फीसदी से कम होने का जश्न मना रहे हों लेकिन हकीकत यह है कि आसमान छूती महंगाई की मार से आम लोगों को अभी भी कोई खास राहत नहीं मिली है.

असल में, मुद्रास्फीति की दर में हालिया गिरावट के आधार पर महंगाई में कमी का दावा इस कारण थोथा है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर में गिरावट काफी हद तक एक ‘सांख्ककीय चमत्कार’ भर है. यह पिछले वर्षों के ऊँचे आधार प्रभाव यानी बेस इफेक्ट के कारण संभव हुआ है.

चूँकि पिछले वर्ष इन्हीं महीनों और सप्ताहों में मुद्रास्फीति की वृद्धि दर दहाई अंकों की असहनीय ऊँचाई पर थी, इसलिए इस वर्ष कीमतों में वृद्धि के बावजूद मुद्रास्फीति की वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से कम दिखाई दे रही है. लेकिन सच यह है कि महंगाई कम होने के बजाय बढ़ी है और उसकी मार इसलिए और भी तीखी है क्योंकि पिछले तीन वर्षों से कीमतें लगातार ऊपर ही जा रही हैं.

दूसरी ओर, बजट पर एक बार फिर उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की छाप है जिन्हें लेकर इनदिनों पूरी दुनिया में सवाल उठ रहे हैं. हालांकि वित्त मंत्री ने आर्थिक सुधारों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता की बजट में खूब दुहाई दी है लेकिन यह भी माना है कि मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में उन्हें आगे बढ़ाना मुश्किल हो रहा है.

इसके बावजूद वित्त मंत्री की आस्था इन सुधारों में बनी हुई है. ऐसा लगता है कि नव उदारवादी अर्थनीति के पैरोकारों की तरह वे भी मानते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति का बड़ा कारण आर्थिक सुधारों का ठहर जाना है.

इसके कारण देशी-विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था में भरोसा कमजोर हुआ है. वे नया निवेश नहीं कर रहे हैं. वे अपना पैसा निकालकर वापस जा रहे हैं.

इस तरह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के पक्ष में अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति को लेकर ऐसा डरावना माहौल बनाया जाता है जिससे इन सुधारों को जायज ठहराया जा सके. लोगों को यह कहकर डराया जाता है कि अगर आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ाया गया तो अर्थव्यवस्था की हालत और पतली और खस्ता होगी.

जबकि सच्चाई यह है कि अर्थव्यवस्था की पतली होती स्थिति के लिए ये नव उदारवादी सुधार ही जिम्मेदार हैं. इनके कारण ही मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट पैदा हुआ है जिसका असर भारत पर भी पड़ रहा है.

यही नहीं, अर्थव्यवस्था की कई मौजूदा समस्याओं के लिए भी यही सुधार जिम्मेदार हैं लेकिन मजा देखिए कि उनकी चर्चा नहीं हो रही है, उल्टे इन सुधारों के कथित तौर पर ठहर जाने को अर्थव्यवस्था के सारे मर्जों की वजह साबित करने की कोशिश हो रही है. इसी आधार पर इन मर्जों के इलाज के बतौर सुधारों के नए कड़वे डोज को लोगों के गले के नीचे जबरन उतारने की कोशिश हो रही है.

लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जायेगी? इसके आसार कम हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था की समस्याओं के समाधान के नाम पर वित्त मंत्री मर्ज का इलाज करने के बजाय टोटके कर रहे हैं. यही कारण है कि उन्होंने बजट भाषण में विस्तार से वित्तीय सुधार के रोडमैप और शेयर बाजार को खुश करने के लिए कई घोषणाएँ की हैं.

लेकिन इससे स्थिति सुधरने वाली नहीं है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्याएं बाजार के लिए फील गुड पैदा करने से हल नहीं होने वाली हैं. असल में, यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकार है लेकिन यह ‘नीतिगत पक्षाघात’ वह नहीं है जो नव उदारवादी बाजार विश्लेषक, गुलाबी अखबार और औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन कह रहे हैं.

सच यह है कि यू.पी.ए सरकार का ‘नीतिगत पक्षाघात’ कृषि और आधारभूत ढांचा क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में निवेश बढाने को लेकर जारी हिचकिचाहट में दिखाई देता है.

असल में, वित्तीय घाटे के आब्सेशन में सरकार अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है. माना जाता है कि जब अर्थव्यवस्था की रफ़्तार सुस्त पड़ रही हो तो सार्वजनिक निवेश बढ़ाने से निजी निवेश को भी प्रोत्साहन मिलता है. मौजूदा माहौल में इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है क्योंकि सिर्फ फील गुड से निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आएगा.

खासकर जब वैश्विक अर्थव्यवस्था में ऐसी अनिश्चितता और संकट हो. ऐसे समय में जरूरत घरेलू अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए घरेलू मांग को बढ़ाने और उसके लिए सार्वजनिक निवेश पर जोर देने की है.

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में इसे प्राथमिकता देने की बात भी कही है लेकिन व्यवहार में उसके उल्टा दिखाई देता है. जाहिर है कि सिर्फ निजी क्षेत्र पर भरोसा करने से बात नहीं बनेगी. सरकार को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना अच्छा होगा.

लेकिन इसके लिए उसे मौजूदा नीतिगत पक्षाघात और उससे अधिक नव उदारवादी अर्थनीति के प्रति मानसिक सम्मोहन से निकलना होगा.

यह बजट एक मौका था लेकिन लगता है कि बड़ी पूंजी को खुश करने के चक्कर में प्रणब मुखर्जी ने अलग राह लेने का जोखिम लेना उचित नहीं समझा. लेकिन ऐसा करते हुए उन्होंने अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम बढ़ा दिया है.

('राष्ट्रीय सहारा' के १७ मार्च के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित टिप्पणी)

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