मंगलवार, नवंबर 22, 2011

बाजार बड़ा या आत्म-नियमन?

कसमे-वादे, आत्मनियंत्रण और आत्म-नियमन सब बातें है, बातों का क्या

न्यूज चैनलों की दुनिया में इन दिनों खासी उथल-पुथल है. प्रेस काउन्सिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू के बयानों और इरादों से हडकंप मच हुआ है. ऐसा लगता है कि चैनलों को जस्टिस काटजू के डंडे का डर सताने लगा है. नतीजा, काटजू के भूत से निपटने के लिए चैनलों के अंदर कुछ कम लेकिन बाहर कुछ ज्यादा आत्मानुशासन और आत्म-नियमन का जाप होने लगा है.

आत्म-नियमन को लेकर अपनी ईमानदारी का सबूत देने के लिए चैनलों के संपादकों ने मिल-जुलकर ‘तीसरी कसम’ के हिरामन की तर्ज पर तीन नहीं, दस कस्में खाई हैं. इनका लब्बोलुआब यह है कि चैनल जानी-मानी अभिनेत्री ऐश्वर्या राय के बच्चे के जन्म की रिपोर्टिंग करते हुए बावले नहीं होंगे.

वैसे कहते हैं कि कसमें तोड़ने के लिए ही होती हैं. देखें, इस कसम पर चैनल कितने दिन टिकते हैं और सबसे पहले इसे कौन तोड़ता है? नहीं-नहीं, संपादकों और उनकी कसम की ईमानदारी पर मुझे कोई शक नहीं है. उनकी बेचैनी भी कुछ हद तक समझ में आती है.

हालांकि उनमें से कई चैनलों में मची गंध के लिए कुछ हद तक खुद भी जिम्मेदार हैं लेकिन यह भी ठीक है कि इनमें से कई थक गए हैं, कुछ पूरी ईमानदारी से उस अंधी दौड़ से बाहर निकलना चाहते हैं जिसके कारण चैनलों के न्यूजरूम में अधिकतर फैसले संपादकीय विवेक से कम और इस डर से अधिक लिए जाते हैं कि अगर हमने इसे तुरंत नहीं दिखाया तो हमारा प्रतिस्पर्धी चैनल इसे पहले दिखा देगा.

लेकिन क्या इस अंधी दौड़ से बाहर निकलना इतना आसान है? शायद नहीं. असल में, सिर्फ संपादकों के हाथ में कंटेंट की बागडोर होती और उनपर कोई बाहरी दबाव मतलब टी.आर.पी का दबाव नहीं होता तो शायद इतनी मुश्किल नहीं होती.

लेकिन कठिनाई यह है कि कमान उनके हाथ में नहीं है. वह बाज़ार के हाथ में है. बाज़ार टी.आर.पी से चलता है. इसलिए न्यूज चैनलों के लिए कंटेंट के मामले में नीचे गिरने की इस अंधी दौड़ से बाहर निकलना न सिर्फ मुश्किल होता जा रहा है बल्कि नामुमकिन सा दिखने लगा है.

वजह साफ़ है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि जहाँ टी.आर.पी के लिए ऐसी मारामारी और गलाकाट होड़ हो, संपादकीय फैसले प्रतिस्पर्धी चैनलों को देखकर लिए जाते हों और सभी भेड़ की तरह एक-दूसरे के पीछे गड्ढे में गिरने को तैयार हों, वहां इस अंधी दौड़ का सबसे पहला शिकार आत्मानुशासन और आत्म-नियमन ही होता है.

यह संभव है कि इस बार ऐश्वर्या राय के मामले में न्यूज चैनल अपनी कसम निभा ले जाएं. लेकिन इस कसम की असल परीक्षा यह नहीं है कि ऐश्वर्या राय के मामले में चैनलों ने अपनी कसम कितनी ईमानदारी से निभाई?

असल सवाल यह है कि क्या चैनलों को ऐसे हर मामले पर संयम बरतने के लिए सामूहिक कसम खानी पड़ेगी? क्या चैनलों का अपना सम्पादकीय विवेक इतना कमजोर हो चुका है कि वे खुद यह फैसला करने में अक्षम हो गए हैं कि क्या दिखाया जाना चाहिए और क्या नहीं?

क्या यह इस बात का सबूत नहीं है कि चैनल बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के आत्म-नियंत्रण करने में सक्षम नहीं रह गए हैं? सवाल है कि जिन मामलों में चैनलों ने सामूहिक कसम नहीं खाई होगी मतलब बी.ई.ए ने निर्देश नहीं जारी किये होंगे, उनमें चैनलों को खुला खेल फर्रुखाबादी की छूट होगी?

हैरानी की बात नहीं है कि जिन दिनों ऐश्वर्या राय के मामले में बी.ई.ए के निर्देशों को आत्म-नियमन के मेडल की तरह दिखाया जा रहा था, उन्हीं दिनों दो हिंदी न्यूज चैनलों ने खुलकर और कुछ ने दबे-छुपे राजस्थान के भंवरी देवी हत्याकांड में भंवरी और आरोपी कांग्रेसी नेताओं के सेक्स सी.डी दिखाए.

सवाल है कि इस सेक्स सी.डी को दिखाने के पीछे उद्देश्य क्या था? इसमें कौन सा जनहित शामिल था? क्या यह ‘अच्छे टेस्ट’ में था? आश्चर्य नहीं कि केन्द्र सरकार ने इस मामले में दोनों चैनलों को नोटिस भेजने में देर नहीं लगाई. सवाल है कि सरकार को अपनी नाक घुसेड़ने का मौका किसने दिया?

दूसरी ओर, एक गंभीर अंग्रेजी चैनल में आत्म-नियमन का हाल यह है कि उसके एक प्राइम टाइम लाइव शो में आध्यात्मिक गुरु श्री-श्री रविशंकर का घंटों पहले किया गया इंटरव्यू ऐसे दिखाया गया, मानो वे उस चर्चा में लाइव शामिल हों. साफ़ तौर पर यह धोखाधड़ी थी. कार्यक्रम के अतिथि रविशंकर के साथ भी और दर्शकों के साथ भी.

जाहिर है कि इसके लिए चैनल की खूब लानत-मलामत हुई है. हालांकि शुरूआती ना-नुकुर और तकनीकी बहानों के बाद चैनल ने अपनी गलती को ‘अनजाने में हुई गलती’ बताते हुए माफ़ी मांग ली है. लेकिन क्या यह अनजाने में हुई गलती थी या समझ-बूझकर की गई थी?

यह सवाल इसलिए और भी मौजूं हो जाता है क्योंकि इसी चैनल पर कुछ महीने पहले प्राइम टाइम में फर्जी ट्विटर सन्देश दिखाने का आरोप लगा था. न सिर्फ ये ट्विटर सन्देश फर्जी और न्यूजरूम में लिखे गए थे बल्कि उनमें बहस में एक खास पक्ष लिया गया था.

हालांकि ऐसी गलती अनजाने में नहीं हो सकती लेकिन चैनल ने उसे भी ‘अनजाने में हुई गलती’ बताकर माफ़ी मांग ली थी. इन दोनों प्रकरणों से एक बात पक्की है कि चैनल में कहीं कुछ गंभीर रूप से गडबड है जिसके कारण लगातार ‘अनजाने में’ ऐसी गंभीर गलतियाँ हो रही हैं?

इसका अर्थ यह भी है चैनल के संपादक ‘जाने में’ मतलब सोच-समझकर काम नहीं कर रहे हैं. जब गंभीर चैनलों की यह हालत है तो बाकी की दशा क्या होगी? ऐसे में, यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि इस हालत में कितने चैनलों को मौके पर उन कसमों-निर्देशों की याद आएगी और कितने अनजाने में उन्हें भूल जाएंगे?

देखते रहिए, अगले कुछ सप्ताहों में यह पता चल जाएगा कि बाजार बड़ा है या आत्म-नियमन?





('तहलका' के  30 नवम्बर'

11  के अंक में प्रकाशित स्तम्भ : http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/1021.html )

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