आर्थिक संकट अब राजनीतिक संकट में तब्दील होता दिख रहा है
यूरोप का आर्थिक-वित्तीय संकट दिन पर दिन गहराता जा रहा है. इस संकट की आग में यूरो जोन की एक के बाद दूसरी अर्थव्यवस्थाएं झुलसती जा रही हैं. मुश्किल यह है कि यह संकट सिर्फ एक या दो देशों तक सीमित या केवल आर्थिक और वित्तीय संकट नहीं रह गया है.
इस संकट से निपटने में यूरोपीय और अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व की नाकामी के कारण यह एक गंभीर राजनीतिक संकट में बदलता जा रहा है. यूनान (ग्रीस) के प्रधानमंत्री जार्ज पापेंद्र्यू की बलि चढ़ चुकी है और इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी की कुर्सी खतरे में है. यही नहीं, इसने यूरोप के आर्थिक और वित्तीय एकीकरण की प्रक्रिया को गंभीर खतरे में डाल दिया है.
आश्चर्य नहीं कि पिछले सप्ताह फ़्रांस के कान शहर में जी-२० के राष्ट्राध्यक्षों की बैठक में भी यूरोपीय आर्थिक संकट ही छाया रहा. इस बैठक में यूरोप के साथ-साथ अन्य विकसित और विकासशील देशों के राष्ट्राध्यक्ष और मुद्रा कोष के अधिकारी यूरोपीय आर्थिक संकट खासकर यूनान (ग्रीस) को दिवालिया होने से बचाने के उपाय ढूंढते रहे.
हालांकि इस बैठक में खूब माथापच्ची हुई, अनेकों सुझाव आए और इस संकट के समाधान के प्रस्ताव भी पारित किये गए लेकिन उसमें ठोस उपाय कुछ भी नहीं है. सिर्फ दावे और वायदे हैं और संकट में फंसे यूनान से लेकर इटली जैसे देशों के लिए कड़वी आर्थिक और राजनीतिक गोलियाँ हैं.
असल में, इस आर्थिक-वित्तीय संकट खासकर यूनान को दिवालिया होने से बचाने, इटली से लेकर स्पेन तक की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्थाओं को सहारा देने और सबसे बढ़कर निवेशकों में विश्वास पैदा करने के लिए से जितने वित्तीय संसाधनों और जैसी राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, उसकी कमी साफ़ दिखाई दे रही है.
संकट से निपटने की बातें खूब हो रही हैं, बैठकें खूब हो रही हैं और समाधान भी पेश किये जा रहे हैं लेकिन कोई भी देश इसके लिए अपनी जेब ढीली करने के लिए तैयार नहीं है. खासकर जर्मनी, फ़्रांस और ब्रिटेन जैसे यूरोपीय देश अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार नहीं हैं.
नतीजा, यूनान (ग्रीस) को संकट से बाहर निकालने के लिए यूरोपीय नेताओं की माथापच्ची अभी जारी ही थी कि इटली की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था ने उनका सिरदर्द बढ़ा दिया है. समस्या यह है कि इटली की अर्थव्यवस्था यूरोप की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि अगर इटली की अर्थव्यवस्था एक बार ढही तो उसे सँभालने के लिए यूरोप के पास न तो इतने संसाधन हैं और न ही उसके झटके से उबरने की तैयारी है.
उन्हें यह भी पता है कि इटली की अर्थव्यवस्था के ढहने की स्थिति में स्पेन, पुर्तगाल जैसी पहले से संकट से जूझ रही अर्थव्यवस्थाएं ही नहीं बल्कि फ़्रांस, जर्मनी जैसी बड़ी और ताकतवर अर्थव्यवस्थाओं को भी लड़खड़ाते देर नहीं लगेगी.
इसके बावजूद संकट से निपटने के लिए जैसी राजनीतिक प्रतिबद्धता, इच्छाशक्ति और संसाधन जुटाने के लिए सक्रिय पहलकदमी की जरूरत है, उसके लिए राजनीतिक-आर्थिक रूप से सक्षम जर्मनी और फ़्रांस जैसे यूरोपीय देश और बाकी विकसित देश तैयार नहीं हैं. उल्टे कर्ज संकट से निपटने के नाम पर यूनान, इटली, पुर्तगाल, आयरलैंड और स्पेन जैसे देशों को खर्चों में कटौती के लिए मजबूर किया जा रहा है, उसके कारण स्थिति संभलने के बजाय और बिगड़ती जा रही है.
एक तो खर्चों में कटौती का सारा बोझ जिस तरह से आम लोगों पर डाला जा रहा है, उसके कारण न सिर्फ लोगों की नाराजगी बढ़ रही है बल्कि इन उपायों को लोगों के गले उतारना भी राजनीतिक रूप से मुश्किल होता जा रहा है.
यूरोप के अधिकांश देशों में लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतरकर इन कटौती प्रस्तावों का विरोध कर रहे हैं जिसके कारण सरकारें अलोकप्रिय और राजनीतिक वैधता खोती जा रही हैं. हालात कितने गंभीर होते जा रहे हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आम लोग एक ओर हैं और सरकारें/संसद दूसरी ओर.
इन हालात में यूनानी प्रधानमंत्री जार्ज पापेंद्र्यू ने जब यूरोपीय संघ के साथ हुई डील और बेल आउट पैकेज पर जनमत संग्रह कराने की घोषणा की तो यूरोप के बाजारों में घबराहट फ़ैल गई और बाजार गिरने लगा. वित्तीय बाजार को यह आशंका थी और सही थी कि इस डील को लोग नामंजूर कर देंगे.
नतीजा, जर्मनी और फ़्रांस सहित यूरोपीय संघ और मुद्रा कोष के अधिकारियों ने पापेंद्र्यू पर जनमत संग्रह न कराने का जबरदस्त दबाव डाला. पापेंद्र्यू को धमकाया गया कि यूनान बेल आउट की शर्तों को तुरंत स्वीकार करे अन्यथा उसे कोई मदद नहीं मिलेगी. मजबूरी में पापेंद्र्यू को अपना फैसला बदलना पड़ा.
लेकिन इससे उनकी जो राजनीतिक फजीहत हुई, उसके कारण आखिरकार पापेंद्र्यू को जाना पड़ा. अब यूनान में एक सर्वदलीय सरकार बनाने की कोशिश की जा रही है ताकि बेल आउट पैकेज के साथ जुड़ी शर्तों और आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू किया जा सके.
ऐसे ही हालात इटली में भी बन गए हैं जहाँ बाजार को खुश करने और सुधारों और कटौतियों की कड़वी गोली को लोगों के गले के नीचे उतारने के लिए यूरोपीय संघ के नेता बर्लुस्कोनी की बलि चढाने के लिए तैयार हैं. लेकिन इससे संकट सुलझ जाएगा, इसके आसार कम हैं.
इससे आवारा वित्तीय पूंजी भले खुश और आश्वस्त हो जाए लेकिन संकट नहीं दूर होनेवाला है. दरअसल, यूरोप के मौजूदा वित्तीय संकट के समाधान के बतौर जिस तरह से खर्चों और वित्तीय घाटे में कटौती को आगे बढ़ाया जा रहा है, उससे तय है कि लोगों की क्रयशक्ति पर बुरा असर पड़ेगा और मांग में कमी आ सकती है जिससे इन अर्थव्यवस्थाओं की आर्थिक वृद्धि पर नकारात्मक असर पड़ेगा.
अर्थव्यवस्थाएं न सिर्फ मंदी में फंस सकती हैं बल्कि यह मंदी लंबी खिंच सकती है. मंदी के कारण सरकारी राजस्व की वसूली में कमी आ सकती है जिससे कर्ज संकट और गंभीर रूप ले सकता है. साफ है कि यह एक दुष्चक्र है जिसमें यूरोप फंस गया है.
लेकिन यूरोप का राजनीतिक नेतृत्व इस सच्चाई को सुनने और समझने को तैयार नहीं है. तथ्य यह है कि उसकी इसी जिद के कारण यूरोप को मौजूदा संकट का सामना करना पड़ रहा है.
अगर यूरोप के राजनीतिक नेतृत्व ने अमेरिकी मंदी के बाद लडखडाई वैश्विक अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए तैयार स्टिमुलस उपायों को हड़बड़ी में वापस नहीं लिया होता और वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए किफ़ायतसारी नहीं शुरू की होती तो यह संकट शायद आता ही नहीं.
साफ है कि यूरोप अपने ही बनाए जाल में उलझ गया है.
यूरोप का आर्थिक-वित्तीय संकट दिन पर दिन गहराता जा रहा है. इस संकट की आग में यूरो जोन की एक के बाद दूसरी अर्थव्यवस्थाएं झुलसती जा रही हैं. मुश्किल यह है कि यह संकट सिर्फ एक या दो देशों तक सीमित या केवल आर्थिक और वित्तीय संकट नहीं रह गया है.
इस संकट से निपटने में यूरोपीय और अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व की नाकामी के कारण यह एक गंभीर राजनीतिक संकट में बदलता जा रहा है. यूनान (ग्रीस) के प्रधानमंत्री जार्ज पापेंद्र्यू की बलि चढ़ चुकी है और इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी की कुर्सी खतरे में है. यही नहीं, इसने यूरोप के आर्थिक और वित्तीय एकीकरण की प्रक्रिया को गंभीर खतरे में डाल दिया है.
आश्चर्य नहीं कि पिछले सप्ताह फ़्रांस के कान शहर में जी-२० के राष्ट्राध्यक्षों की बैठक में भी यूरोपीय आर्थिक संकट ही छाया रहा. इस बैठक में यूरोप के साथ-साथ अन्य विकसित और विकासशील देशों के राष्ट्राध्यक्ष और मुद्रा कोष के अधिकारी यूरोपीय आर्थिक संकट खासकर यूनान (ग्रीस) को दिवालिया होने से बचाने के उपाय ढूंढते रहे.
हालांकि इस बैठक में खूब माथापच्ची हुई, अनेकों सुझाव आए और इस संकट के समाधान के प्रस्ताव भी पारित किये गए लेकिन उसमें ठोस उपाय कुछ भी नहीं है. सिर्फ दावे और वायदे हैं और संकट में फंसे यूनान से लेकर इटली जैसे देशों के लिए कड़वी आर्थिक और राजनीतिक गोलियाँ हैं.
असल में, इस आर्थिक-वित्तीय संकट खासकर यूनान को दिवालिया होने से बचाने, इटली से लेकर स्पेन तक की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्थाओं को सहारा देने और सबसे बढ़कर निवेशकों में विश्वास पैदा करने के लिए से जितने वित्तीय संसाधनों और जैसी राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, उसकी कमी साफ़ दिखाई दे रही है.
संकट से निपटने की बातें खूब हो रही हैं, बैठकें खूब हो रही हैं और समाधान भी पेश किये जा रहे हैं लेकिन कोई भी देश इसके लिए अपनी जेब ढीली करने के लिए तैयार नहीं है. खासकर जर्मनी, फ़्रांस और ब्रिटेन जैसे यूरोपीय देश अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार नहीं हैं.
नतीजा, यूनान (ग्रीस) को संकट से बाहर निकालने के लिए यूरोपीय नेताओं की माथापच्ची अभी जारी ही थी कि इटली की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था ने उनका सिरदर्द बढ़ा दिया है. समस्या यह है कि इटली की अर्थव्यवस्था यूरोप की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि अगर इटली की अर्थव्यवस्था एक बार ढही तो उसे सँभालने के लिए यूरोप के पास न तो इतने संसाधन हैं और न ही उसके झटके से उबरने की तैयारी है.
उन्हें यह भी पता है कि इटली की अर्थव्यवस्था के ढहने की स्थिति में स्पेन, पुर्तगाल जैसी पहले से संकट से जूझ रही अर्थव्यवस्थाएं ही नहीं बल्कि फ़्रांस, जर्मनी जैसी बड़ी और ताकतवर अर्थव्यवस्थाओं को भी लड़खड़ाते देर नहीं लगेगी.
इसके बावजूद संकट से निपटने के लिए जैसी राजनीतिक प्रतिबद्धता, इच्छाशक्ति और संसाधन जुटाने के लिए सक्रिय पहलकदमी की जरूरत है, उसके लिए राजनीतिक-आर्थिक रूप से सक्षम जर्मनी और फ़्रांस जैसे यूरोपीय देश और बाकी विकसित देश तैयार नहीं हैं. उल्टे कर्ज संकट से निपटने के नाम पर यूनान, इटली, पुर्तगाल, आयरलैंड और स्पेन जैसे देशों को खर्चों में कटौती के लिए मजबूर किया जा रहा है, उसके कारण स्थिति संभलने के बजाय और बिगड़ती जा रही है.
एक तो खर्चों में कटौती का सारा बोझ जिस तरह से आम लोगों पर डाला जा रहा है, उसके कारण न सिर्फ लोगों की नाराजगी बढ़ रही है बल्कि इन उपायों को लोगों के गले उतारना भी राजनीतिक रूप से मुश्किल होता जा रहा है.
यूरोप के अधिकांश देशों में लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतरकर इन कटौती प्रस्तावों का विरोध कर रहे हैं जिसके कारण सरकारें अलोकप्रिय और राजनीतिक वैधता खोती जा रही हैं. हालात कितने गंभीर होते जा रहे हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आम लोग एक ओर हैं और सरकारें/संसद दूसरी ओर.
इन हालात में यूनानी प्रधानमंत्री जार्ज पापेंद्र्यू ने जब यूरोपीय संघ के साथ हुई डील और बेल आउट पैकेज पर जनमत संग्रह कराने की घोषणा की तो यूरोप के बाजारों में घबराहट फ़ैल गई और बाजार गिरने लगा. वित्तीय बाजार को यह आशंका थी और सही थी कि इस डील को लोग नामंजूर कर देंगे.
नतीजा, जर्मनी और फ़्रांस सहित यूरोपीय संघ और मुद्रा कोष के अधिकारियों ने पापेंद्र्यू पर जनमत संग्रह न कराने का जबरदस्त दबाव डाला. पापेंद्र्यू को धमकाया गया कि यूनान बेल आउट की शर्तों को तुरंत स्वीकार करे अन्यथा उसे कोई मदद नहीं मिलेगी. मजबूरी में पापेंद्र्यू को अपना फैसला बदलना पड़ा.
लेकिन इससे उनकी जो राजनीतिक फजीहत हुई, उसके कारण आखिरकार पापेंद्र्यू को जाना पड़ा. अब यूनान में एक सर्वदलीय सरकार बनाने की कोशिश की जा रही है ताकि बेल आउट पैकेज के साथ जुड़ी शर्तों और आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू किया जा सके.
ऐसे ही हालात इटली में भी बन गए हैं जहाँ बाजार को खुश करने और सुधारों और कटौतियों की कड़वी गोली को लोगों के गले के नीचे उतारने के लिए यूरोपीय संघ के नेता बर्लुस्कोनी की बलि चढाने के लिए तैयार हैं. लेकिन इससे संकट सुलझ जाएगा, इसके आसार कम हैं.
असल में, यूरोपीय संघ और विकसित देशों के नेता मौजूदा कर्ज संकट से निपटने के लिए जिस रणनीति को आगे बढ़ा रहे हैं, उससे संकट और गहराता जा रहा है. इसकी वजह यह है कि यह वित्तीय संकट जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और आवारा वित्तीय पूंजी को खुश करने के कारण पैदा हुआ है, उससे निपटने के नाम पर उन्हीं नीतियों को और कड़ाई से थोपने की कोशिश की जा रही है.
अर्थव्यवस्थाएं न सिर्फ मंदी में फंस सकती हैं बल्कि यह मंदी लंबी खिंच सकती है. मंदी के कारण सरकारी राजस्व की वसूली में कमी आ सकती है जिससे कर्ज संकट और गंभीर रूप ले सकता है. साफ है कि यह एक दुष्चक्र है जिसमें यूरोप फंस गया है.
लेकिन यूरोप का राजनीतिक नेतृत्व इस सच्चाई को सुनने और समझने को तैयार नहीं है. तथ्य यह है कि उसकी इसी जिद के कारण यूरोप को मौजूदा संकट का सामना करना पड़ रहा है.
अगर यूरोप के राजनीतिक नेतृत्व ने अमेरिकी मंदी के बाद लडखडाई वैश्विक अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए तैयार स्टिमुलस उपायों को हड़बड़ी में वापस नहीं लिया होता और वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए किफ़ायतसारी नहीं शुरू की होती तो यह संकट शायद आता ही नहीं.
साफ है कि यूरोप अपने ही बनाए जाल में उलझ गया है.
('राजस्थान पत्रिका' के १० नवम्बर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)
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