शनिवार, अगस्त 27, 2011

अन्ना आंदोलन की आलोचनाओं को ध्यान से सुनिए



राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से डरा हुआ क्यों है?


पहली किस्त

उमड़-घुमड़ कर बरसते बादलों के बीच उमस भरे मौसम और देश के गर्म होते राजनीतिक माहौल के बीच लोगों में बेचैनी बढ़ती जा रही है. भ्रष्टाचार विरोधी और जन लोकपाल के समर्थन में शुरू हुए आंदोलन ने जहाँ एक ओर इस बेचैनी को पकड़ा है और लोगों के गुस्से को बाहर निकलने की जमीन दी है, वहीँ दूसरी ओर, यू.पी.ए सरकार और मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों की बेचैनी बढ़ा दी है. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि इस आंदोलन और उससे अधिक इससे पैदा हो रहे नए राजनीतिक हालात से कैसे निपटें?

आश्चर्य नहीं कि कुछ वास्तविक और कुछ दिखावटी मतभेदों के बावजूद मुख्यधारा के लगभग सभी राजनीतिक दल इस मामले में एकजुट हो गए हैं कि इस आंदोलन को किसी भी कीमत पर सफल नहीं होने देना है. यही कारण है कि प्रधानमंत्री के न्यौते पर आयोजित “सर्वदलीय” बैठक में संसद की सर्वोच्चता के समूह गान के साथ-साथ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की जन लोकपाल को निश्चित समय सीमा के अंदर संसद में पास करने की मांग को ठुकरा दिया गया.

हालांकि इस आंदोलन से पैदा हुई सरकार विरोधी भावनाओं में अपना-अपना हिस्सा पाने के लिए सभी विपक्षी दल बेचैन हैं लेकिन इसके लिए वे भी तैयार नहीं हैं कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जन लोकपाल जैसी कोई ‘प्रभावी और सशक्त’ संस्था बने.

मजे की बात यह है कि जन भावनाओं के दबाव में सत्ता पक्ष या विपक्ष के लगभग सभी दल एक ‘प्रभावी और सशक्त लोकपाल’ के गठन की बातें कर रहे हैं. लेकिन संसद में मौजूद लगभग सभी दलों को लगता है कि लोकतंत्र में जन लोकपाल जैसा “अलोकतांत्रिक, सर्वशक्तिमान, सभी संस्थाओं से ऊपर, निरंकुश और अनुत्तरदायी” निकाय का गठन संविधान की मूल भावना और लोकतान्त्रिक मूल्यों और उसूलों के खिलाफ है. लेकिन किसी गलतफहमी में मत रहिए कि वे इस कारण जन लोकपाल का विरोध कर रहे हैं. यह सिर्फ आवरण है. सच्चाई कुछ और है.

सच यह है कि वे जन लोकपाल के उतने विरोधी नहीं हैं जितने इस बात से बौखलाए हुए हैं कि देश भर में हजारों-लाखों की संख्या में लोग सडकों पर उतर कर न सिर्फ इस तरह का कड़ा कानून बनाने की मांग कर रहे हैं बल्कि उन्हें अपना नौकर बताकर उनसे हिसाब मांग रहे हैं और उन्हें निर्देशित करने की कोशिश कर रहे हैं. असल में, उन्हें इस आंदोलन की मुख्य मांग जन लोकपाल से उतनी समस्या नहीं है जितनी इस आंदोलन से हो रहे राजनीतिकरण और आम लोगों के लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में सीधी भागीदारी से है.

मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को इसके दूरगामी नतीजों से डर लग रहा है. उनका पहला डर यह है कि कहीं मौजूदा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का दायरा और न फैल जाए और उसमें बड़े और व्यापक नीतिगत मुद्दे न जुड़ने लगें. उसकी यह आशंका निराधार नहीं है. पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में एक ओर सी.पी.आई-एम.एल और आइसा-आर.वाई.ए जैसे जुझारू वाम दलों और जन संगठनों ने उसे जल-जंगल-जमीन-खनिजों की कारपोरेट लूट और नव उदारवादी अर्थनीति से जोड़कर और काले कानूनों और राज्य दमन के खिलाफ आंदोलन तेज किया है, वहीँ अन्ना हजारे के नेतृत्व में चल रहे अनिश्चितकालीन अनशन के दौरान भी कंपनियों द्वारा किसानों की जमीन छीनने, शिक्षा-स्वास्थ्य के व्यवसायीकरण और चुनाव सुधार जैसे मुद्दे उठाए जा रहे हैं, उससे साफ़ है कि यह आंदोलन जन लोकपाल के गठन पर नहीं रुकनेवाला है.

बहुतेरे वाम और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों, दलित चिंतकों और राजनीतिक विश्लेषकों को यह भले दिख न रहा हो लेकिन राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान को यह साफ़ दिख रहा है. इसलिए उसकी घबराहट को समझना मुश्किल नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि अगर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में रैडिकल वाम से लेकर असम में अखिल गोगोई के किसान संग्राम समिति जैसे प्रगतिशील जनसंगठनों की भागीदारी बढ़ती जाती है और इसी तरह उसके मुद्दे और व्यापक नीतिगत सवालों की ओर जाते हैं तो राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान (कारपोरेट इसका अभिन्न अंग है) के लिए जनांदोलनों की बाढ़ को संभाल पाना मुश्किल हो जाएगा. यही नहीं, इन जनांदोलनों से नई वैकल्पिक राजनीति के रास्ते भी खुल सकते हैं.

दूसरे, राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान को यह डर सता रहा है कि अगर जन लोकपाल के सवाल पर झुके तो वैचारिक-राजनीतिक रूप लोकतंत्र में लोकशक्ति की सर्वोच्चता को स्वीकार करना पड़ेगा जिसे अब तक संविधान, संसद और निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की आड़ में नकारने की कोशिश की जा रही है. यही नहीं, इससे लोकशक्ति का आत्मविश्वास और उत्साह बढ़ जाएगा और फिर उसे रोकना मुश्किल हो जाएगा. जनांदोलनों की बाढ़ सी आ जायेगी. यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा डर नहीं है. जब युवराज राहुल गाँधी संसद में कहते हैं कि लोकपाल बनना चाहिए लेकिन लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं की अनदेखी करना ठीक नहीं है और इससे एक गलत नजीर पड़ जायेगी.

जाहिर है कि ऐसा कहने और समझनेवाले वे अकेले नेता नहीं हैं. प्रधानमंत्री से लेकर कानून और संविधान के जानकार तमाम मंत्रियों और अरुण जेतली जैसे विपक्ष के नेताओं तक के इससे मिलते-जुलते वक्तव्य आ चुके हैं. ये सभी लोकशक्ति की सक्रियता और इलीट नीति निर्माण क्लब में उसका हस्तक्षेप बढ़ने की आशंका से परेशान हैं. उन्हें पता है कि एक बार जन लोकपाल पर झुके तो अगली बार सबको रोजगार और भोजन या समान शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकार से लेकर भूमि अधिग्रहण और सेज कानून को रद्द करने जैसी मांगे उठने लगेंगी.

एक मायने में भ्रष्टाचार विरोधी यह आंदोलन इस दौर के मिजाज का संकेत है. इससे आम लोगों और खासकर गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के अंदर बढ़ती बेचैनी का पता चलता है. याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि पिछले कई सालों और खासकर कुछ महीनों में पूरे देश में सरकारों की शह पर जल-जंगल-जमीन-खनिज और सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट, भ्रष्टाचार और काले कानूनों के खिलाफ जबरदस्त जनसंघर्ष चल रहे हैं. सचमुच, ऐसा लगता है कि जैसे देश ‘मिलियन म्युटीनिज’ (लाखों विद्रोहों) से गुजर रहा है. लेकिन इन जनसंघर्षों से अभी तक शहरी मध्यवर्ग न सिर्फ अछूता था बल्कि उसके परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन से सत्ता प्रतिष्ठान इन आन्दोलनों को कुचलने में जुटा हुआ था.

लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में शहरी मध्यवर्ग के कूद पड़ने और उसे मिल रहा व्यापक जनसमर्थन इस बात का सबूत है कि आने वाले दिनों और महीनों में इस आंदोलन से प्रेरणा लेकर और कई जनांदोलन खड़े होंगे और कई में तेजी आएगी. इतिहास गवाह है कि जिन देशों में भी ऐसे जनांदोलन खड़े हुए हैं, वे अकेले नहीं आए हैं बल्कि अपने साथ आन्दोलनों की श्रृंखला सी लेकर आए हैं.

इसके साथ ही, राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान का तीसरा डर यह है कि अब तक उसके साथ खड़े मध्यवर्ग की निराशा और गुस्से का इस तरह से फूटना एक मायने में, नई उदारवादी अर्थनीतियों के प्रति मोहभंग का लक्षण भी है. इससे शासक वर्गों द्वारा पूरे देश में इन भ्रष्ट और जनविरोधी नीतियों को लेकर बनाई गई ‘आम सहमति’ के भी बिखरने और आपसी अंतर्विरोधों के बढ़ने के आसार दिख रहे हैं.

कहने का मतलब यह कि यह देश में जबरदस्त बेचैनी, उथल-पुथल और राजनीतिक मंथन का दौर है. इससे शासक वर्गों में घबराहट स्वाभाविक है. इसलिए वे इस आंदोलन को हड़पने से लेकर उसे तोड़ने के लिए ‘साम-दाम-दंड-भेद’ समेत सभी तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं. अन्ना हजारे और उनके साथियों पर जबरदस्त दबाव है. यह दोहरा दबाव है. एक ओर, सरकार और पूरा राजनीतिक वर्ग इसे बर्बाद करने और हड़पने के लिए जोर-आजमाइश कर रहा है, वहीँ दूसरी ओर, इस आंदोलन से जुड़े लाखों-करोड़ों समर्थकों की उम्मीदें और अपेक्षाएं हैं. यह तलवार की धार पर चलने जैसा है.

लेकिन यह याद रखना बहुत जरूरी है कि हर आंदोलनकारी और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में संभावनाओं के साथ आशंकाएं भी मौजूद होती हैं. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी इसका अपवाद नहीं है. इसलिए इस आंदोलन को लेकर उन सभी वाम, रैडिकल, धर्मनिरपेक्ष और दलित बुद्धिजीवियों की आलोचनाओं को पूरी गंभीरता के साथ सुना और उनपर विचार किया जाना चाहिए जो आमतौर पर प्रगतिशील और रैडिकल जनांदोलनों के साथ खड़े रहे हैं, उनके शुभचिंतक हैं और जिनकी प्रतिबद्धता पर शक नहीं किया जा सकता है.

यही नहीं, इन आलोचनाओं से इस आंदोलन में कुछ मुद्दों पर पुनर्विचार, सुधार और उसके समृद्ध और प्रभावी होने की सम्भावना बढ़ गई है. इसलिए इनपर तीखी प्रतिक्रिया के बजाय ठन्डे दिमाग से सोचा-विचारा जाना चाहिए. जनांदोलनों में इतनी उदारता और लचीलापन होना चाहिए.

इसमें कोई शक नहीं है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल आंदोलन में भांति-भांति की राजनीतिक और गैर राजनीतिक शक्तियां सक्रिय हैं. इनमें “शहरी-हिंदू-सवर्ण-इलीट” या “आर.एस.एस के नेतृत्व में दक्षिणपंथी सांप्रदायिक हिंदू संगठन” या “आरक्षण विरोधी संगठन” या “कारपोरेट समर्थित एन.जी.ओ/मीडिया” भी शामिल हैं और उनमें से कई इसके नेतृत्व में भी हैं.

लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि इसमें रैडिकल वाम और जनतांत्रिक आन्दोलनों की शक्तियां भी शामिल हैं. उनमें से कई अन्ना हजारे के जन लोकपाल आंदोलन के साथ भी हैं और कई स्वतंत्र तौर पर भी आंदोलन चला रहे हैं. जैसे सी.पी.आई-एम.एल और उसके जनसंगठन पिछले कई महीनों से स्वतंत्र तौर पर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चला रहे हैं.

लेकिन कई वाम, धर्मनिरपेक्ष और जनवादी बुद्धिजीवी अन्ना हजारे और वृहत्तर भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों की उपरोक्त कारणों से आलोचना करते हुए भूल जाते हैं कि हरेक बड़े जनांदोलन में अंतर्विरोध, कमियां और कमजोरियां होती हैं. यह भी कि उनमें समाज के विभिन्न वर्गों की भागीदारी होती है, उनमें अलग-अलग विचारधाराओं और सोच के लोग भी हो सकते हैं और उन्हें शासक वर्गों के एक हिस्से का समर्थन भी प्राप्त हो सकता है.

लेकिन क्या सिर्फ इस आधार पर किसी जनांदोलन को ख़ारिज किया जा सकता है? असल मुद्दा यह है कि उस जनांदोलन की दिशा क्या है, उसकी विचारधारा-राजनीति क्या है और उसमें आमलोगों की कितनी और किस हद तक भागीदारी है?

(कल अगली किस्त में इन आलोचनाओं की पड़ताल करेंगे...मेरी अपेक्षा है कि आप भी अपनी राय जरूर दें.)

4 टिप्‍पणियां:

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

देश का एक वर्ग इस आन्दोलन से डरा हुआ है... आपके आलेख के समर्थन में खड़ी है मेरी कविता... देखिएगा मेरे ब्लॉग पर...

एक स्वतन्त्र नागरिक ने कहा…

बहुत गंभीर संकेत है आपके लेख में आनंद भाई.
यदि मीडिया और ब्लॉग जगत में अन्ना हजारे के समाचारों की एकरसता से ऊब गए हों तो कृपया मन को झकझोरने वाले मौलिक, विचारोत्तेजक आलेख हेतु पढ़ें
अन्ना हजारे के बहाने ...... आत्म मंथन http://sachin-why-bharat-ratna.blogspot.com/2011/08/blog-post_24.html

Ashish Bhardwaj ने कहा…

अच्छा आलेख!
इसमें कोई शक नहीं है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल आंदोलन में भांति-भांति की राजनीतिक और गैर राजनीतिक शक्तियां सक्रिय हैं. इनमें “शहरी-हिंदू-सवर्ण-इलीट” या “आर.एस.एस के नेतृत्व में दक्षिणपंथी सांप्रदायिक हिंदू संगठन” या “आरक्षण विरोधी संगठन” या “कारपोरेट समर्थित एन.जी.ओ/मीडिया” भी शामिल हैं और उनमें से कई इसके नेतृत्व में भी हैं.
पिछले १२ दिनों तक १५०० बिना गणवेश वाले संघ कार्यकर्ता रामलीला मैदान में जमे रहे,ऐसा संघ के सूत्र बता रहे हैं. बाकियों की चर्चा आप ने कर ही दी है. सवाल यह भी कि देखने के बावजूद कितनी मक्खियाँ निगली जाए?

Unknown ने कहा…

एक लोकतान्त्रिक आन्दोलन में कुछ अलोकतांत्रिक आवाजों को कितना गहनता से लेना चाहिए सवाल बड़ा है?पर हर तबके का प्रतिनिधित्व दिए जाने की बात करने वाले लोगों को कुछ बड़े बड़े कद की मूर्तियाँ ही क्यों चाहिए?इन्हें किसी वर्ग विशेष का व्यक्ति नहीं मोनस्टर चाहिए जो एक बड़ा सा ब्रांड हो जिसके पीछे पीछे अँधा भागता लोक हो.वो लोग जो इस आन्दोलन में दिन रात साथ है और उसी वर्ग से आते हैं जिसकी बात ये अभिजन चिन्तक करते है.इन्हें प्रतिनिधी भी अभिजन ही चाहिए.