गुरुवार, अगस्त 18, 2011

लम्बी लड़ाई में पहली जीत के बाद

लोगों से बड़ी कोई चीज नहीं है..न सरकार, न संसद, न संविधान और न भगवान


भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन पर कुछ स्फुट विचार


बधाई..यह लंबी लड़ाई में पहली जीत है. एक बार फिर साबित हुआ कि लोकतंत्र में लोगों से बड़ी कोई चीज नहीं है..न सरकार, न संसद, न संविधान और न भगवान. पर याद रहे, सरकार झुकी है, हारी नहीं है. यह भी कि लड़ाई की सिर्फ शुरुआत भर है..लड़ाई लंबी चलनी है..यह सिर्फ लोकपाल तक सीमित नहीं रहनेवाली है.

भ्रष्टाचार का सवाल सार्वजनिक संसाधनों और गरीबों की जल-जंगल-जमीन की कारपोरेट लूट से लेकर राजनीतिक भ्रष्टाचार, अपराधीकरण और धनबल के खिलाफ मुकम्मल लड़ाई तक जाता है.


कुछ मित्रों की राय में, अन्ना हजारे का आंदोलन “खाए-पिए-अघाये, अंग्रेजीदां नौकरीपेशा-कारोबारी मध्यवर्ग” का आंदोलन है. वे कुछ हद तक सही हैं. लेकिन क्या इस आधार पर इसे प्रतिक्रांति घोषित कर दिया जाए? हर बात पर “क्या फर्क पड़ता है” कहनेवाला मध्यवर्ग अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल के सीमित मुद्दे को लेकर सड़कों पर है तो इसका स्वागत करना चाहिए या विरोध?

भूलिए मत, धीरे-धीरे इस आंदोलन का दायरा फ़ैल रहा है. इसमें छात्र-नौजवानों के साथ निम्न मध्यमवर्गीय तबके भी शामिल हो रहे हैं. कल को यह और व्यापक हो सकता है. इसका दायरा भी और मुद्दे भी..हमें इस सम्भावना को हकीकत बनाने की तैयारी करनी चाहिए.

जागते रहो सोनेवालों....हो सकता है कि यह भी ‘खिचड़ी विप्लव’ साबित हो..हो सकता है कि लोगों के साथ फिर धोखा हो..लेकिन लोगों का जागना और सड़कों पर उतरना सच्चे जनतंत्र को हासिल करने की लड़ाई के लिए शुभ संकेत है..

यह भी कि असफल क्रांतियां ही असली क्रांतियों की जमीन तैयार करती हैं..मुकम्मल और रेडिकल बदलाव की लड़ाई में लगे वाम-जनवादी और क्रांतिकारी संगठनों के लिए यह एक बड़ा मौका है.

कुछ राजनीतिक पूर्वानुमान: अगर यह आंदोलन और तीन-चार दिन चल गया तो यू.पी.ए सरकार को लगभग सभी मांगों को मानना पड़ेगा..अगर सात दिन चला तो कांग्रेस और सरकार को कपिल सिब्बल जैसों की राजनीतिक बलि देनी पड़ सकती है..और अगर १०-१२ दिन खिंचा तो खुद प्रधानमंत्री के लिए टिके रह पाना मुश्किल हो जाएगा..

इसलिए सरकार की ओर से कम से कम कीमत देकर जल्दी से जल्दी समझौते की कोशिशें तेज हो गईं हैं..अब अन्ना और उनके साथियों की असली परीक्षा है..

कल शाम सहारा समय ने चर्चा में बुलाया था. कार के ड्राइवर नाहर सिंह से बातचीत शुरू हुई तो उन्होंने बताया कि वे दफ्तर से तीन बजे छुट्टी लेकर अन्ना के समर्थन में इंडिया गेट जाना चाहते थे लेकिन दफ्तर से छुट्टी नहीं मिली और उन्हें मुझे लाने के लिए भेज दिया गया..मित्रों, आंदोलन का दायरा बढ़ रहा है..आँखे खोलिए, दिख रहा है..

कुछ मित्रों को लगता है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन मीडिया खासकर टी.वी चैनलों के कारण चल रहा है. इसमें कोई शक नहीं कि मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है. लेकिन उसे कुछ ज्यादा ही श्रेय दिया जा रहा है. सच यह है कि यह भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों के दबे हुए गुस्से और खीज के फट पड़ने की तरह है.

मीडिया इसे सिर्फ मैग्निफाई कर रहा है. लेकिन २०११ के भारत में १५० न्यूज चैनलों, सैकड़ों अख़बारों, फेसबुक, ट्विटर की मौजूदगी एक सच्चाई है जिसे अनदेखा कैसे किया जा सकता है?

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