शनिवार, मार्च 05, 2011

अमेरिकी चश्मे से दुनिया को देखते देशी चैनल

पैराशूट रिपोर्टिंग से पूर्णकालिक रिपोर्टर की भरपाई की कोशिश   


शुरुआत में अधिकांश चैनलों ने कहीं न कहीं मिस्र के जन उभार को एक ऐसी समस्या की तरह देखा जिसके कारण वहां काम करनेवाले और घूमने गए भारतीय पर्यटक फंस गए हैं. इस कारण, उनकी शुरूआती कवरेज में फोकस उन भारतीयों को सुरक्षित वापस लाने और कुछ हद तक अरब जगत की उथल-पुथल की वजह से पेट्रोलियम की कीमतों में वृद्धि पर था. यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि ये खबरें नहीं थीं.

लेकिन निश्चय ही, बड़ी खबर यह नहीं थी. बड़ी खबर थी, अरब जगत और उसके केन्द्र मिस्र में तीस सालों की होस्नी मुबारक तानाशाही के खिलाफ जन विद्रोह का भडकना और उसका आसपास के देशों में फैलना. लेकिन भारतीय चैनल इसे थोड़ी देर से समझ पाए और जब तक समझे तब तक यह खबर दुनिया भर के मीडिया में छा चुकी थी.


इसके बाद हड़बड़ी में कुछ चैनलों जैसे स्टार न्यूज, एन.डी.टी.वी २४x७, आज तक आदि ने अपने संवाददाता मिस्र की राजधानी काहिरा भेजे लेकिन उनकी रिपोर्टिंग का स्तर कुछ वैसे ही था, जैसे एक अनजान जगह पर पैराशूट से आपको उतार दिया गया हो और आप न वहां की भाषा जानते हैं, न संस्कृति और न राजनीति.

नतीजा यह कि उनकी ‘एक्सक्लूसिव’ रिपोर्टिंग न सिर्फ रूटीन और घटना प्रधान रिपोर्टिंग तक सीमित रही बल्कि अपनी अंतर्वस्तु में सी.एन.एन और बी.बी.सी की नक़ल ज्यादा लग रही थी. रिपोर्टिंग की इस सीमा और विकलांगता की भरपाई इन स्टार रिपोर्टरों ने ड्रामा और उत्तेजना से पूरी करने की कोशिश की.

यह और बात है कि उनके ड्रामे और उत्तेजना पैदा करने की कोशिश पर हंसी ज्यादा आ रही थी. उन्होंने यह भी जताने की कोशिश की कि गोया तहरीर चौक पर लाखों की भीड़ के बीच वे अकेले रिपोर्टर हों और यह भी कि कैसे सुरक्षा बलों को छकाते हुए वे रिपोर्टिंग कर रहे हैं. इसके बावजूद यह मानना पड़ेगा कि ऐसे चैनलों ने उन चैनलों की तुलना में ज्यादा साहस और उत्साह का परिचय दिया जिन्होंने इसकी भी जरूरत नहीं समझी.

मिस्र और अरब जगत की ताजा उथलपुथल की कवरेज को लेकर अधिकांश चैनलों की उदासीनता न सिर्फ बनी रही बल्कि इसकी सीमित कवरेज के लिए भी वे विदेशी चैनलों और बहुराष्ट्रीय न्यूज एजेंसियों जैसे ए.पी और रायटर्स पर निर्भर बने रहे. जाहिर है कि उसमें कुछ भी नया या अलग नहीं था.

हैरानी की बात यह है कि मिस्र और अरब जगत के ताजा हालत की सबसे सटीक रिपोर्टें अल जजीरा चैनल पर आ रही थीं लेकिन भारतीय चैनलों ने अज्ञात कारणों से उससे एक दूरी बनाए रखी. यहां यह जिक्र जरूरी है कि भारत सरकार ने अल जजीरा को भारत में डाउन लिंक की इजाजत नहीं दी है.

उल्लेखनीय है कि अल जजीरा पिछले कुछ वर्षों में न सिर्फ मध्य पूर्व के सबसे प्रभावी और वैकल्पिक क्षेत्रीय आवाज के रूप में उभरा है बल्कि उसने अंतर्राष्ट्रीय कवरेज में सी.एन.एन और बी.बी.सी के वर्चस्व को भी चुनौती दी है.

इस बार भी उसने मिस्र के कवरेज में सी.एन.एन और बी.बी.सी को पीछे छोड़ दिया. उसने न सिर्फ मिस्र और अन्य अरब देशों के जन उभार की स्पॉट और इवेंट रिपोर्टिंग बेहतर की बल्कि सरकारों के अंदर की हलचलों की अंदरूनी खबरें भी सबसे पहले दीं. यही नहीं, इन घटनाओं के विश्लेषण में भी अल जजीरा ने एक क्षेत्रीय और वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य पेश किया.

लेकिन भारतीय चैनलों ने अल जजीरा से आ रही खबरों और पक्ष को भी जगह देने के बजाय पश्चिमी एजेंसियों और चैनलों पर अधिक भरोसा किया. स्वाभाविक तौर पर इसका असर टी.वी चर्चाओं पर भी दिखाई पड़ा. कई चैनलों ने मिस्र के जन उभार पर पन्द्रह दिनों में एकाधिक बार चर्चा भी कराई लेकिन इन अधिकांश चर्चाओं का दायरा बहुत सीमित और स्तर बहुत छिछला था.

इन चर्चाओं की सबसे खास बात यह थी कि उनका वैचारिक दायरा अरब जगत और मिस्र को लेकर विकसित पश्चिम देशों खासकर अमेरिका की सोच और चिंताओं से परिचालित था. आश्चर्य की बात नहीं है कि इन चर्चाओं में भी वही सवाल उठ रहे थे, वही बातें हो रही थीं और वही चिंताएं जाहिर की जा रहीं थीं जो सी.एन.एन या बी.बी.सी पर की जा रही थीं.

सबसे ज्यादा चिंता मुस्लिम ब्रदरहुड और उसकी भूमिका को लेकर व्यक्त की जा रही थी. कुछ ऐसी तस्वीर पेश की जा रही थी, गोया मिस्र के पूरे जन उभार के पीछे केवल मुस्लिम ब्रदरहुड हो और मुबारक के सत्ता से हटते ही वह सत्ता में आ जायेगा.

यही नहीं, उसे एक ऐसे कट्टरपंथी इस्लामी संगठन की तरह पेश किया जा रहा था जिसके सत्ता में आते ही मिस्र ईरान की तरह कट्टर इस्लामी राज्य बन जायेगा. लेकिन मुस्लिम ब्रदरहुड के इस खलनायिकीकरण के बावजूद सच यह है कि वह मिस्र के सबसे पुराने राजनीतिक दलों में एक है. दशकों से दमन झेल रहा है.

यही नहीं, यह तथ्य भी बहुत कम जगहों पर आया कि ट्यूनीशिया और मिस्र दोनों ही जगहों पर आंदोलन में श्रमिक वर्ग की बहुत बड़ी भूमिका थी. सच यह है कि श्रमिक वर्ग ने इस उभार को संगठित करने और उसे काहिरा से बाहर ले जाने के अलावा मुबारक हुकूमत को ठप्प करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. यह भी कि इसमें मुस्लिम ब्रदरहुड से कहीं अधिक सक्रियता के साथ और भी दर्जनों छोटे-बड़े संगठन और राजनीतिक दल और आम नौजवान, बेरोजगार, नागरिक शामिल थे.

लेकिन इन सभी तथ्यों का जिक्र कहीं नहीं था या हाशिए पर था या फिर इस रूप में था, गोया पूरा उभार मध्यवर्गीय युवाओं तक सीमित हो. इस कारण अधिकांश चैनलों पर मिस्र के जन विद्रोह की बड़ी तस्वीर और आम छवि बहुत एकांगी थी. हालांकि अपवादस्वरूप इक्का-दुक्का अलग आवाजें भी सुनाई पड़ीं लेकिन मुख्य सुर अमेरिकी समझ और हितों से ही बना था. जो इक्का-दुक्का आवाजें अलग थीं, वे चैनलों के अंदर से नहीं बल्कि बाहर से आ रही थीं.

कुलमिलाकर, इन टी.वी चर्चाओं और उनकी रिपोर्टिंग से एक बात साफ है कि भारतीय चैनलों के पास दुनिया को देखने का अपना कोई स्वतंत्र और वैकल्पिक नजरिया और वैचारिकी नहीं है और वे दुनिया को मूलतः अमेरिकी चश्मे से देखते हैं. वैसे यह बात कमोबेश पूरे भारतीय समाचार मीडिया के लिए भी सही है कि भूमंडलीकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया ने उसके वैचारिक परिप्रेक्ष्य का काफी हद तक अमेरिकीकरण कर दिया है.

जारी....

('कथादेश' के मार्च अंक में प्रकाशित)

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