बुधवार, मार्च 02, 2011

‘रैडिकल बजट’ की असलियत

आम आदमी की सरकार का बजट आम आदमी पर भारी पड़नेवाला है 




वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के तीसरे बजट से सुरजीत एस भल्ला और उन जैसे अन्य नव उदारवादी अर्थशास्त्री बहुत गदगद हैं. उन्हें विश्वास नहीं हो रहा है कि ‘लोकलुभावन राजनीति और अर्थनीति को आगे बढ़ानेवाली यू.पी.ए सरकार ऐसा साहसी बजट पेश कर सकती है.’ भल्ला के मुताबिक, इस मायने में ‘यह एक रैडिकल बजट है.’ उनकी खुशी की सबसे बड़ी वजह यह है कि प्रणब मुखर्जी ने बजट में सबसे अधिक जोर सरकार के खर्चों को घटाने और इस तरह राजकोषीय घाटे को काबू में करने पर दिया है.

निश्चय ही, वित्त मंत्री ने अगले वित्तीय वर्ष के बजट में सरकार के खर्चों में कटौती का रिकार्ड बना दिया है. प्रणब मुखर्जी के बजट अनुमान के मुताबिक, अगले साल सरकार के कुल खर्चों में लगभग ४११५३ करोड़ रूपये की वृद्धि होगी जो चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान से सिर्फ ३.४ प्रतिशत अधिक है. इस रिकार्ड के लिए वित्त मंत्री ने जहां योजना बजट में चालू वित्तीय वर्ष की तुलना में कुल ४६५२३ करोड़ रूपये यानी ११.८ प्रतिशत की वृद्धि की है, वहीँ गैर योजना व्यय में लगभग एक फीसदी यानी कुल ५३७० करोड़ रूपये की कटौती की है.

इसके कारण वह अगले वित्तीय वर्ष में राजकोषीय घाटे को ४१२८१७ करोड़ रूपये की सीमा में रखने में कामयाब हुए हैं. यह जी.डी.पी का सिर्फ ४.६ प्रतिशत है जो कि चालू वर्ष के राजकोषीय घाटे के संशोधित अनुमान जी.डी.पी के ५.१ प्रतिशत से कहीं बेहतर हैं. वित्त मंत्री की इस बात के लिए भी प्रशंसा हो रही है कि उन्होंने चालू वित्तीय वर्ष में राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ५.५ प्रतिशत के बजट अनुमान से घटाकर जी.डी.पी के ५.१ प्रतिशत लाने में कामयाबी हासिल की है.

यह और बात है कि इस कामयाबी के पीछे सबसे बड़ी वजह थ्री-जी/ब्राडबैंड की बिक्री से होनेवाली जबरदस्त आय, टैक्स वसूली में उल्लेखनीय वृद्धि और जी.डी.पी की विकास दर में अच्छी वृद्धि से उसके आधार में होनेवाली बढोत्तरी है.

लेकिन राजकोषीय घाटे में उल्लेखनीय कमी लाने के लिए प्रणब मुखर्जी ने सरकारी खर्चों खासकर सामाजिक कल्याण योजनाओं और सब्सिडी में कटौती का ‘अविश्वसनीय’ रिकार्ड बनाया है. इससे भल्ला जैसे नव उदारवादी अर्थशास्त्रियों से लेकर विश्व बैंक-मुद्रा कोष और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को चाहे जितनी खुशी हो लेकिन सच्चाई यह है कि यह आम आदमी की कीमत पर किया गया है.

उदाहरण के लिए, वित्त मंत्री ने खाद्य सब्सिडी के लिए बजट में ६०७५२ करोड़ रूपये का प्रावधान किया है जो चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान से सिर्फ १७२ करोड़ रूपये अधिक है. अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो यह नकारात्मक वृद्धि है. अफसोस की बात यह है कि यह प्रावधान तब किया गया है, जब यू.पी.ए सरकार बजट सत्र में खाद्य सुरक्षा का विधेयक ले आने का एलान कर चुकी है. इससे साफ है कि खाद्य सुरक्षा का कानून बन जाने से भी कुछ खास नहीं बदलनेवाला है.

प्रणब मुखर्जी की कटौती का चाकू यहीं नहीं रुका. बजट में यू.पी.ए सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी योजना- मनरेगा के बजट में यह मामूली वृद्धि भी नहीं उल्टे कटौती कर दी गई है. अगले वित्तीय वर्ष में मनरेगा के बजट में चालू वर्ष की तुलना में १०० करोड़ रूपये की कटौती करते हुए सिर्फ ४० हजार करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है.

उल्लेखनीय है कि प्रणब मुखर्जी ने चालू वित्तीय वर्ष के बजट में मनरेगा के लिए वर्ष २००९-१० की तुलना में सिर्फ १०० करोड़ रूपये की वृद्धि की थी जिसे इस बजट में वापस ले लिया है. यह जी.डी.पी के आधे फीसदी से भी कम है. कहने की जरूरत नहीं है कि मनरेगा के साथ यह दूसरा बड़ा मजाक है. इससे पहले मनमोहन सिंह सरकार ने मनरेगा के तहत राज्य सरकारों द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी देने से मना कर दिया था.

इससे साफ है कि बड़ी विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी को खुश करने के लिए वित्त मंत्री के राजकोषीय घाटा कम करने के अभियान की गाज कहां गिर रही है? वित्त मंत्री ने इसी तरह उर्वरक सब्सिडी में भी अगले वित्तीय वर्ष में कोई ९ फीसदी यानी ४९७९ करोड़ रूपये की कटौती का एलान किया है. साफ है कि किसानों को न सिर्फ खाद के लिए अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी बल्कि खाद और मुहाल हो जायेगी.

हैरानी की बात यह है कि खाद सब्सिडी में इतनी भारी कटौती तब की जा रही है, जब सरकार दूसरी हरित क्रांति के दावे कर रही है. हालांकि प्रणब मुखर्जी ने बजट में कृषि और किसानों का कई बार नाम लिया लेकिन वास्तव में इसमें कृषि और किसानों पर भी कटौती अभियान की अच्छी-खासी मार पड़ी है.

उदाहरण के लिए, कृषि क्षेत्र की केन्द्रीय योजना में भी चालू वर्ष की तुलना में अगले वर्ष के बजट में बहुत मामूली लगभग ३८२ करोड़ रूपये की वृद्धि के साथ १४७४४ करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है. यह चालू वर्ष की तुलना में सिर्फ २.६ प्रतिशत की वृद्धि है. अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो यह वृद्धि वास्तव में नकारात्मक है.

यही नहीं, वित्त मंत्री ने अपने पिछले बजट में दूसरी हरित क्रांति के लिए सबसे मुफीद क्षेत्र पूर्वी भारत को बताते हुए ४०० करोड़ रूपये का प्रावधान किया था और इस बार फिर ४०० करोड़ रूपये देने की घोषणा की है. सवाल है कि पूर्वी भारत के सात राज्यों- असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, उडीसा, छत्तीसगढ़ और पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस मामूली रकम से दूसरी हरित क्रांति तो दूर सात जिलों में भी क्रांति नहीं हो पायेगी.

इसी तरह कटौती की गाज ग्रामीण विकास पर भी गिरी है. बजट में ग्रामीण विकास के लिए केन्द्रीय आयोजन में चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान ५५४३८ करोड़ रूपयों की तुलना में अगले वर्ष के बजट में १५० करोड़ रूपये की कटौती करते हुए ५५२८८ करोड़ रूपयों का प्रावधान किया गया है. अगर आसमान छूती महंगाई को ध्यान में रखें तो यह कटौती भी ग्रामीण विकास की योजनाओं के लिए अच्छी खबर नहीं है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि कटौतियों की यह सूची अंतहीन है. इसकी मार से रक्षा क्षेत्र को छोड़कर शायद ही कोई क्षेत्र बच पाया है. लेकिन यहां सामाजिक क्षेत्र का जिक्र जरूरी है क्योंकि वित्त मंत्री ने बहुत गर्व के साथ यह घोषणा की है कि बजट में सामाजिक क्षेत्र के लिए कुल बजट १६०८८७ करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है.

लेकिन तथ्य यह है कि यह रकम जी.डी.पी की मात्र १.७९ प्रतिशत है. इसके उलट रक्षा क्षेत्र के लिए बजट में १२८३३ करोड़ रूपये की बढोत्तरी करते हुए वित्त मंत्री ने १६४४१५ करोड़ रूपयों का प्रावधान किया है जिसमें से लगभग ७० हजार करोड़ रूपये सिर्फ हथियारों की खरीद के लिए हैं. इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है कि सामाजिक क्षेत्र का कुल बजट रक्षा बजट से लगभग चार हजार करोड़ रूपये कम है?

यही नहीं, अकेले हथियारों की खरीद पर होनेवाला खर्च शिक्षा और कृषि क्षेत्र के बजट प्रावधान के बराबर है. इससे यू.पी.ए सरकार की प्राथमिकताओं का पता चलता है. अगर समावेशी विकास के दावे करनेवाली सरकार सामाजिक क्षेत्र पर जी.डी.पी की १.७९ प्रतिशत के प्रावधान को अपनी उपलब्धि मानती है तो उसे यह याद दिलाना बेकार है कि पिछले साठ वर्षों से सरकारें शिक्षा पर जी.डी.पी का ६ प्रतिशत और स्वास्थ्य पर जी.डी.पी का २.५ प्रतिशत खर्च करने का वायदा करती रही हैं.

अफसोस की बात है कि इस बजट में भी शिक्षा औए स्वास्थ्य के बजट प्रावधानों में अच्छी-खासी वृद्धि के दावों के बावजूद दोनों के संयुक्त बजट पर जी.डी.पी का एक फीसदी भी खर्च नहीं होगा. आश्चर्य की बात नहीं है कि अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि दर के दावों के बावजूद भारत अभी भी मानव विकास के सूचकांक पर न सिर्फ १६९ देशों की सूची में ११९ वें पायदान पर है बल्कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कई मामलों में अपने पड़ोसी देशों श्रीलंका और बंगलादेश से भी पीछे है.

सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि भारत में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक बजट इतना कम है कि यहां की स्वास्थ्य सेवा दुनिया की सबसे अधिक निजीकृत सेवा है. विश्व बैंक के मुताबिक, भारत में स्वास्थ्य पर खर्च होनेवाले हर सौ रूपये में से लगभग ९० रूपये लोगों को अपनी जेब देना पड़ता है जबकि सार्वजनिक व्यय से सिर्फ १० रूपये आता है.

लेकिन सबसे बड़ा मजाक तो यह है कि एक ओर वित्त मंत्री ने बढ़ते घाटे का रोना रोते हुए कृषि से लेकर सामाजिक और ग्रामीण विकास जैसे सभी क्षेत्रों के बजट में बड़ी बेदर्दी से कटौती की है लेकिन दूसरी ओर, अमीरों और कारपोरेट क्षेत्र को हमेशा की तरह मालामाल कर दिया है. खुद वित्त मंत्रालय के मुताबिक, यू.पी.ए सरकार के चालू वित्तीय वर्ष के बजट में भी अमीर और कारपोरेट वर्ग को विभिन्न तरह के टैक्सों में छूट और अन्य रियायतों के जरिये लगभग ५११६३० करोड़ रूपये का उपहार दिया है जो जी.डी.पी का लगभग ६.४९ प्रतिशत है.

कहने की जरूरत नहीं है कि अगले वर्ष के बजट में भी वित्त मंत्री ने अमीरों और कारपोरेट क्षेत्र पर यह उदारता दिखाने में कोई कोताही नहीं की है. उनके लिए छूटों और रियायतों का सिलसिला बदस्तूर जारी है. आखिर यह आम आदमी की सरकार है!

कहने की जरूरत नहीं है कि प्रणब मुखर्जी के पिछले बजट की तरह इस बजट पर भी नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी हावी है. यह सैद्धांतिकी अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित भूमिका की वकालत करती है. इसके लिए वह सरकार के खर्चों में कटौती के लिए राजकोषीय घाटे को एक निश्चित सीमा में रखने पर अत्यधिक जोर देती है.

हैरानी की बात नहीं है कि विश्व बैंक और मुद्रा कोष से लेकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी तक राजकोषीय घाटे को काबू में रखने को पहली प्राथमिकता बताती रही हैं और भारत जैसे विकासशील देशों की सरकारें इसका आँख मूंदकर पालन करती रही हैं. हालत यह हो गई है कि राजकोषीय घाटे को काबू में रखने की पैरोकारी अब एक तरह के आब्शेसन में बदल गई है. यह और बात है कि हालिया वैश्विक मंदी ने इस सैद्धांतिकी के दिवालिएपन को खुलकर उजागर कर दिया है.

लेकिन हमारे आर्थिक मैनेजरों का इस सैद्धांतिकी में अन्धविश्वास अब भी बना हुआ है. इसे ही कठमुल्लावाद कहते हैं और कहने की जरूरत नहीं है कि आम आदमी की कसमें खाने के बावजूद यू.पी.ए सरकार भी इस वित्तीय कठमुल्लावाद से उबर नहीं पाई है. यह बजट भी इसका अपवाद नहीं है.

लेकिन यह एक त्रासदी है. एक ऐसे दौर में, जब अर्थव्यवस्था तेज गति से बढ़ रही है और सबसे बड़ा मुद्दा यह बना हुआ है कि उससे निकलनेवाली समृद्धि का लाभ आम आदमी और गरीबों को नहीं मिल पा रहा है, उस समय राजकोषीय घाटे को काबू में करने के नाम पर एक बार फिर आम आदमी की बुनियादी जरूरतों पर कटौती की तलवार चलाने को जायज कैसे ठहराया जा सकता है? सवाल है कि क्या यू.पी.ए के समावेशी विकास का माडल यही है?

('जनसत्ता' के २ मार्च'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख )

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