मंगलवार, फ़रवरी 22, 2011

क्रिकेट मैनिया

 प्रधानमंत्री चाहें तो चैन की नींद सो सकते हैं


विश्व कप क्रिकेट का तमाशा शुरू हो चुका हैं. चैनल और अखबार क्रिकेटमय हो चुके हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि अगले दो महीनों तक मीडिया में सिर्फ क्रिकेट होगा और कुछ नहीं. वैसे कुछ दिलजलों का कहना है कि विश्व कप के तुरंत बाद उससे भी बड़ा तमाशा आई.पी.एल शुरू हो जायेगा. मतलब यह कि अगले चार महीनों तक चैनल एक मैनिया की तरह क्रिकेट ओढ़-बिछा-पका-खा और परोस रहे होंगे.

इसके संकेत अभी से मिलने लगे हैं. सभी समाचार चैनलों और खासकर हिंदी समाचार चैनलों और अख़बारों में विश्व कप क्रिकेट की कवरेज छाने लगी है. चैनलों पर इस शुरूआती कवरेज से साफ है कि उन्होंने इसके लिए जबरदस्त तैयारी की है. सभी एक से एक नायाब आइडिया के साथ दर्शकों को खींचने, प्रतिस्पर्धी चैनल को पछाड़ने और अपनी टी.आर.पी बढ़ाने की होड़ में जुटे हुए हैं. ऐसा लगता है कि जैसे चैनलों के बीच भी एक विश्व कप हो रहा है.

चैनलों के इस विश्व कप में जीत के लिए चैनल वह हर फार्मूला और तिकडम आजमा रहे हैं जिससे वह दर्शकों गुड़ की मक्खी की तरह अपनी ओर खींच और खुद से चिपका सकें. आखिर सवाल टी.आर.पी का है?

असल में, समाचार चैनलों की मुश्किल यह है कि विश्व कप के दौरान असली क्रिकेट एक्शन तो ई.एस.पी.एन-स्टार स्पोर्ट्स और दूरदर्शन पर होगा. जाहिर है कि सबसे ज्यादा दर्शक भी वहीँ होंगे. साफ है कि समाचार चैनलों को दर्शकों के लिए खेल चैनलों से लड़ना पड़ेगा. यह आसान लड़ाई नहीं है.

कहा जाता है कि जैसे प्यार और जंग में सब कुछ जायज है, वैसे ही चैनलों की लड़ाई में भी सब कुछ जायज है. नतीजा, इस लड़ाई में समाचार चैनल हर दांव आजमा रहे हैं. अगर एक्शन और उत्तेजना खेल चैनलों पर है तो समाचार चैनलों पर भी कम ड्रामा नहीं है.

वैसे भी ड्रामा रचने में समाचार चैनलों का कोई जवाब नहीं है. इस ड्रामे की खास बात यह है कि यह क्रिकेट राष्ट्रवाद से सना-पगा हुआ है. हमेशा की तरह से समाचार चैनल एक बार फिर क्रिकेट राष्ट्रवाद को जगाने में लग गए हैं. यह उनका सबसे बड़ा दांव है.

आश्चर्य नहीं कि समाचार चैनलों पर भारत की जीत की संभावनाओं को लेकर जोरशोर से हवा बनाई जाने लगी है. हवा बनानेवाली भाषा खेल की कम और युद्ध की अधिक लगती है. १९८३ की जीत को याद किया जा रहा है. चैनलों पर ‘सचिन को विश्व कप का तोहफा, सहवाग का तूफान, युसूफ पठान का कोहराम, धोनी का धमाका, युवराज का जादू, भज्जी की फिरकी, जहीर का जलवा’ जैसी रिपोर्टों और आधे-आधे घंटे के कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है.

इनमें भारतीय टीम के सभी खिलाडियों का खूब गुणगान किया जा रहा है. पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी चैनलों पर एक्सपर्ट बनकर बैठे हुए हैं और वे भी इस ड्रामे में और उत्तेजना भरने की कोशिश कर रहे हैं. इन रिपोर्टों, विश्लेषणों और कार्यक्रमों को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे विश्व कप सिर्फ एक औपचारिकता भर है और कप तो भारतीय टीम को ही जीतना है. गरज यह कि चैनलों की यह क्रिकेट देशभक्ति पूरे शबाब पर है.

लेकिन इस क्रिकेट राष्ट्रवाद का दबाव भारतीय टीम महसूस करने लगी है. चैनलों और पूरे भारतीय मीडिया ने टीम पर अपेक्षाओं का ऐसा दबाव पैदा कर दिया है कि खिलाडियों के लिए स्वाभाविक होकर खेलना संभव नहीं रह गया है. इसकी वजह यह है कि यह भारतीय टीम के खिलाडियों को भी पता है कि जो मीडिया और चैनल आज उनके गुणगान में जमीन-आसमान एक किए हुए हैं, उनकी एक भी नाकामी उन्हें ‘मैच का मुजरिम’ बनाने में देर नहीं लगायेगी.

समाचार चैनलों पर फैसला बिल्कुल लाइव होता है. इधर टीम के विकेट गिर रहे होंगे, उधर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज चल रहा होगा : ‘मेमने बन गए शेर, पिद्दी साबित हुए धोनी के रणबांकुरे’ आदि-आदि. इस मायने में चैनलों का सचमुच कोई जवाब नहीं है. वे टीम की जीत और हार में कोई फर्क नहीं करते हैं. टीम जीत गई तो बल्ले-बल्ले, स्टूडियो में ही भांगड़ा शुरू कर देंगे और हार गई तो खाल खींचने और सूली पर लटकाने में देर नहीं करेंगे. किसी को आसमान में चढ़ाना और फिर जमीन पर पटकना कोई चैनलों से सीखे.

मतलब यह कि चैनलों को इससे कोई खास मतलब नहीं है कि भारतीय टीम जीतती है या हारती है. उन्हें तो जीत और हार दोनों से टी.आर.पी बटोरनी है. इसके लिए जीत और हार दोनों में दर्शकों की भावनाओं को भडकाना जरूरी है. भावनाओं में बहुत मुनाफा है. चैनलों के लिए मुनाफे का खेल सबसे बड़ा खेल है. वे इस खेल में पारंगत हो गए हैं. यह और बात है कि इस खेल की कीमत खेल, खिलाड़ी, टीम, दर्शक और देश सभी चुका रहे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि क्रिकेट सिर्फ एक खेल नहीं रह गया है. यह अब खेल से ज्यादा एक विशाल उद्योग और कारोबार बन गया है. इसमें अरबों रूपये दांव पर लगे हुए हैं. चैनल भी इस कारोबार के हिस्सेदार हैं. जाहिर है कि जब खेल, खेल नहीं रहा तो खिलाड़ी भी कारोबारी अधिक हो गए हैं.

लेकिन इस खेल की सबसे बड़ी कीमत तो दर्शकों और देश को चुकानी पड़ेगी क्योंकि अगले चार महीनों तक देश-समाज के सभी मुद्दे और सवाल नेपथ्य में धकेल दिए जाएंगे. प्राइम टाइम पर भ्रष्टाचार, महंगाई और कुशासन का शोर नहीं होगा.

प्रधानमंत्री चाहें तो अगले चार महीनों तक चैन की नींद सो सकते हैं.

('तहलका' के २८ फरवरी'११ अंक में प्रकाशित : http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/826.html

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