बुधवार, जून 04, 2014

सड़कों पर बहता निर्दोषों का लहू

सड़क सुरक्षा पर 'चलता है/क्या फर्क पड़ता है' के रवैए के कारण हर साल लाखों लोगों की जान जा रही है   
 
ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ मुंडे की सड़क हादसे में हुई असामयिक मृत्यु ने सड़क सुरक्षा और हर साल सड़क दुर्घटनाओं में हो रही लाखों निर्दोष लोगों की मौत के मुद्दे को फिर से बहस में ला दिया है.
देश में सड़क सुरक्षा के हाल का अंदाज़ा सिर्फ इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि एक केन्द्रीय मंत्री की मृत्यु देश की राजधानी में हुई है जहाँ सड़क सुरक्षा के इंतजाम देश के अन्य हिस्सों की तुलना में कहीं बेहतर हैं.
इसके बावजूद इस साल राजधानी दिल्ली में सड़क हादसों में श्री मुंडे से पहले तक ६६७ लोगों की मौत हो चुकी है. वे ६६८वें व्यक्ति हैं जिन्हें दिल्ली की सड़क पर इस तरह से अपनी जान गंवानी पड़ी. इन ६६८ लोगों में से अधिकांश को हम नहीं जानते हैं.
लेकिन वे सिर्फ संख्या या सड़क दुर्घटना से संबंधित आंकड़े भर नहीं हैं. वे भी हम सभी की तरह जीते-जागते इंसान थे. जीवन से भरपूर वे भी किसी के पिता-भाई-बहन-माँ-बेटा-बेटी और सगे-संबंधी थे. उनके घरों और मुहल्लों में भी उनके जाने के बाद कई दिनों तक चूल्हे नहीं जलते हैं. अनेकों घरों में महीनों-सालों तक सिसकियाँ सुनाई पड़ती हैं. कई घर इन दुर्घटनाओं की मार से कभी नहीं उबर पाते हैं.
इसके बावजूद हम सब जानते हैं कि सड़क दुर्घटना के शिकार हुए मुंडे आखिरी इंसान नहीं हैं. हम-आप सभी यह जानते हैं कि अगर सड़क सुरक्षा और लोगों की सोच में रातों-रात क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया और मौजूदा हालत को बदलने के लिए सख्त कदम नहीं उठाए गए तो मुंडे के बाद भी दिल्ली की सड़कों पर लोग ऐसे ही जान गंवाते रहेंगे. सड़क दुर्घटना में मारे जानेवाले लोगों की संख्या इसी तरह बढ़ती रहेगी.

इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि जब आप यह टिप्पणी पढ़ रहे होंगे, उन १५ मिनटों में देश के किसी कोने में सड़क दुर्घटना में एक व्यक्ति की मौत हो चुकी होगी. सचमुच, देश की सड़कों पर आदमी की जान से सस्ती कोई चीज नहीं है.
लेकिन जब तक हम सड़क दुर्घटनाओं को नियति मानकर स्वीकार करते रहेंगे और ‘चलता है/क्या फर्क पड़ता है’ की मानसिकता से इन्हें देखते रहेंगे, कुछ नहीं बदलनेवाला है.  
यह सचमुच बहुत शर्मनाक और त्रासद है कि देश में हर साल लाखों लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जा रहे हैं या अपाहिज हो जा रहे हैं लेकिन बड़े-लंबे-चौड़े-चमकते फोर और सिक्स लेन हाईवे के सपनों में डूबे देश में इन मौतों से कोई खलल नहीं पड़ रही है.

देश में जितनी बातें हाईवे और कारों/गाड़ियों के नए माडलों पर होती है, उसकी एक फीसद चर्चा भी सड़क सुरक्षा और लोगों को एक बेहतर, संवेदनशील और जागरूक ड्राइवर बनाने पर नहीं होती है.

निश्चय ही, सड़कों पर होनेवाली ज्यादातर दुर्घटनाएं इसलिए होती हैं कि हममें से अधिकांश लोगों को सड़क सुरक्षा के नियमों की कोई परवाह नहीं है, हमें अपनी और उससे ज्यादा दूसरों के जान की कोई चिंता नहीं है और ट्रैफिक पुलिस को नियमों और सड़क सुरक्षा से ज्यादा पैसे बनाने की फ़िक्र होती है.
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि सड़कों के डिजाइन से लेकर गड्ढों और उनकी दयनीय हालत तक और सड़क सुरक्षा के ढीले-ढाले नियमों से लेकर सड़क दुर्घटना के घायलों को बेहतर और तत्काल चिकित्सा न मुहैया करा पाने तक ढांचागत-सांस्थानिक कारण भी हैं जिनके कारण भारतीय सड़कें खूनी बनी हुई हैं.

नतीजा हम सबके सामने है. सड़कों पर बेगुनाह इंसानों का खून बह रहा है और देश सड़कों पर होनेवाली मौतों में नए रिकार्ड बना रहा है.

साफ़ है कि हम इन दुर्घटनाओं और इसमें होनेवाली जन-धन के नुकसान से चेतने को तैयार नहीं है क्योंकि हम सब इसके शिकार नहीं हुए हैं. इसलिए हमारी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. लेकिन यही हाल रहा तो हमारा भी नंबर कभी न कभी आएगा.            

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