शनिवार, जनवरी 25, 2014

नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के नए दांव हैं मोदी

लोगों के सामने है सीमित और संकीर्ण आर्थिक विकल्पों के बीच चुनाव की मजबूरी 

लोकसभा चुनावों के मद्देनजर केन्द्रीय सत्ता की दावेदार पार्टियों और उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों के आर्थिक दर्शन और कार्यक्रमों/योजनाओं को लेकर आम लोगों से लेकर अर्थशास्त्रियों तक और शेयर बाजार के सटोरियों से लेकर देशी-विदेशी औद्योगिक लाबी संगठनों जैसे फिक्की, सी.आई.आई आदि तक सभी की उत्सुकता और दिलचस्पी बढ़ गई है.
यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इन चुनावों में आर्थिक-राजनीतिक तौर पर बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. सवाल यह है कि सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने से लेकर महंगाई और बेरोजगारी से निपटने तक, कृषि से लेकर उद्योगों तक, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक और गरीबी से लेकर बढ़ती गैर बराबरी तक अनेकों गंभीर आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए प्रधानमंत्री के दावेदारों का आर्थिक दर्शन क्या है और उनके पास कौन से कार्यक्रम/योजनाएं हैं?
हालाँकि दोनों ही गठबंधनों के विस्तृत आर्थिक दर्शन, कार्यक्रम और योजनाओं के लिए उनके घोषणापत्र और विजन दस्तावेज का इंतज़ार करना पड़ेगा लेकिन बीते सप्ताह कांग्रेस की ओर से चुनाव अभियान की अगुवाई कर रहे राहुल गाँधी ने कांग्रेस महासमिति और खासकर भाजपा/एन.डी.ए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में अपना आर्थिक दर्शन और कार्यक्रम पेश किया है.

इसमें भी जहाँ राहुल गाँधी आर्थिक दर्शन के नामपर यू.पी.ए सरकार की उपलब्धियों (आर.टी.आई, मनरेगा, आर.टी.ई और भोजन के अधिकार आदि) को गिनाने और समावेशी विकास के रटे-रटाए जुमलों को दोहराने से आगे नहीं बढ़ पाए, वहीँ नरेन्द्र मोदी ने बड़े-बड़े कार्यक्रमों/योजनाओं और कुछ लोकप्रिय मैनेजमेंट जुमलों के एलान के जरिये सपनों की सौदागरी करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी.

लेकिन अगर बारीकी से देखा जाए तो मोदी और राहुल के आर्थिक दर्शन में बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है. अगर कोई फर्क है तो सिर्फ उसके विभिन्न पहलुओं पर जोर और उसकी प्रस्तुति, पैकेजिंग और मार्केटिंग के तरीके में फर्क है.
लेकिन बुनियादी तौर पर दोनों ‘मुक्त बाजार’ पर आधारित नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार हैं जो अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित या न के बराबर भूमिका और निजी पूंजी खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को अगुवा भूमिका देने की वकालत करती है. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी मूलतः मुक्त बाजार पर आधारित भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण को आगे बढाती है और वह न सिर्फ अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित भूमिका पर जोर देती है बल्कि राज्य की कल्याणकारी भूमिका को भी सीमित करने की पैरवी करती है.
लेकिन मुश्किल यह है कि पिछले दो दशकों से देश में नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी पर आधारित आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाए जाने और जी.डी.पी के पैमाने पर आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत तेज गति के बावजूद गरीबों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है, आर्थिक गैर बराबरी तेजी से बढ़ी है और गरीबों, निम्न मध्यमवर्ग, छोटे-मध्यम किसानों, श्रमिकों, दलितों और आदिवासियों में असंतोष बढ़ा है.

इसकी मुख्य वजह यह है कि उन्हें आर्थिक सुधारों का कोई खास फायदा नहीं मिला है लेकिन कीमत भारी चुकानी पड़ी है. सच यह है कि इन वर्गों के लिए आर्थिक सुधार एक कड़वी गोली की तरह साबित हुए हैं जिसे और निगलने के लिए वे तैयार नहीं हैं. यहाँ तक कि इन आर्थिक सुधारों के लाभार्थी- मध्यम वर्ग में भी हाल के वर्षों में अवसरों के सीमित होने और याराना पूंजीवाद की अगुवाई में बेतहाशा भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ने से निराशा का माहौल है.

इसके कारण नव उदारवादी आर्थिक सुधारों पर सवाल उठने लगे हैं और राजनीतिक तौर पर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आम लोगों के बीच स्वीकार्य बनाना एक बड़ी चुनौती बन गई है. कांग्रेस के नेतृत्ववाले यू.पी.ए ने इसी चुनौती के मद्देनजर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसे मनरेगा जैसी योजनाओं की चाशनी में लपेट कर पेश करने और गरीबों, कृषि मजदूरों, दलितों और आदिवासियों का समर्थन जीतने की कोशिश की लेकिन शुरूआती सफलता के बाद यह रणनीति भी दस सालों में फीकी पड़ने लगी है.
दूसरी ओर, देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स आर्थिक सुधारों की गति धीमी पड़ने के कारण बेचैन होने लगे हैं. वे सरकार से सुधारों की गति तेज करने यानी सब्सिडी में कटौती और खुद के लिए अधिक से अधिक रियायतें मांग रहे हैं.    
हैरानी की बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी ने यू.पी.ए/कांग्रेस की अर्थनीति की आलोचना करते हुए कहा कि वे ‘खैरात बाँटने’ वाली आर्थिक सैद्धांतिकी (डोलोनोमिक्स) यानी सब्सिडी के विरोधी हैं. हालाँकि वे गरीबों और कमजोर वर्गों के वोट को लुभाने के दबाव के कारण यह खुलकर नहीं कहते लेकिन इसका सीधा संकेत यह है कि वे मनरेगा और ऐसी दूसरी ‘लोकलुभावन योजनाओं’ में सब्सिडी दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं.

उनका तर्क है कि सिर्फ वोट बटोरने के लिए शुरू की गई लोकलुभावन योजनाएं गरीबों और कमजोर वर्गों को अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देतीं, कीमती संसाधनों की बर्बादी है, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं और सबसे बढ़कर मुक्त बाजार की व्यवस्था को तोडमरोड (डिसटार्ट) करती है.

नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों की तरह उनका भी दावा है कि वे अर्थव्यवस्था में निजी निवेश को प्रोत्साहित करके रोजगार के नए अवसर पैदा करेंगे ताकि गरीबों को अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका मिल सके.

दरअसल, मोदी नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसकी ‘विकास’ और ‘गुड गवर्नेंस’ के सपनों के साथ पैकेजिंग करने की कोशिश कर रहे हैं. एक अच्छे सेल्समैन की तरह वे देश के चारों दिशाओं में बुलेट ट्रेन से लेकर १०० स्मार्ट शहर बसाने, देश के हर राज्य में आई.आई.टी-आई.आई.एम-एम्स खोलने से लेकर ब्रांड इंडिया को चमकाने और गैस ग्रिड से लेकर राष्ट्रीय फाइबर आप्टिक ब्राडबैंड नेटवर्क बनाने तक की बड़ी और अत्यंत महत्वाकांक्षी योजनाओं के एलान से निम्न, मध्यम और उच्च मध्यमवर्ग को चमत्कृत करने की कोशिश कर रहे हैं.
दूसरी ओर, कृषि से लेकर गांव तक और किसान से लेकर महिलाओं और युवाओं की बातें करके सबको खुश करने की कोशिश कर रहे हैं, वहीँ आर.एस.एस से जुड़े अपने कोर समर्थकों को पारिवारिक मूल्यों से लेकर भारत माता के नारों से बाँधने में जुटे हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी कोई कसर नहीं छोड़ना नहीं चाहते हैं. आश्चर्य नहीं कि वे अपने आर्थिक दर्शन और कार्यक्रम/योजनाओं को वोटरों के सभी वर्गों के लिए आकर्षक और लुभावना बनाने के लिए हर उस सपने को बेच रहे हैं जो पिछले डेढ़ दशकों में बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स ने देश को बेचने की कोशिश की है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी की बड़ी-बड़ी घोषणाएं और योजनाएं उनकी मौलिक सोच से नहीं बल्कि वहीँ से आईं हैं. आप चाहें तो पिछले सालों में विश्व बैंक-मुद्राकोष से लेकर मैकेंसी, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, डेलोइट, प्राइस-हॉउस कूपर्स जैसी बड़ी कारपोरेट कंसल्टिंग कंपनियों और योजना आयोग तक और सी.आई.आई-फिक्की-एसोचैम जैसी औद्योगिक लाबी संगठनों से लेकर गुलाबी अखबारों और मैनेजमेंट गुरुओं के भाषणों, सलाहों, पालिसी दस्तावेजों और कंट्री पेपर्स में इन बड़ी और महत्वाकांक्षी योजनाओं के ब्लू-प्रिंट देख सकते हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी की इन घोषणाओं पर शेयर बाजार, देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों से लेकर अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां तक खुश हैं और मोदी के सत्ता में आने की संभावनाओं को लेकर उत्साहित हैं. कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को अब सिर्फ मोदी से ही उम्मीदें हैं कि वे नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा सकते हैं क्योंकि कांग्रेस/यू.पी.ए की साख भ्रष्टाचार और महंगाई के कारण बहुत नीचे गिर गई है.
देशी-विदेशी कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी को मोदी के रूप में एक ऐसा नेता दिखाई पड़ रहा है जिसकी नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने की प्रतिबद्धता असंदिग्ध है और जो इसे बेहतर तरीके से पैकेज और मार्केट करके लोगों में स्वीकार्य भी बना सकता है.
यही नहीं, कार्पोरेट्स को यह भी भरोसा है कि मोदी ही इन सुधारों और बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं (पास्को, वेदांता आदि) की राह में रोड़ा बन रहे ‘जल, जंगल और जमीन’ बचाने के जनांदोलनों से राजनीतिक और पुलिसिया तरीके से सख्ती से निपट सकते हैं. मोदी ने जिस तरह से गुजरात में नर्मदा बचाओ आंदोलन को दबाने की कोशिश की या अपने हाल के भाषणों में ‘झोलावालों’ (एन.जी.ओ और जनांदोलनों) को निशाना बनाया है, उससे भी कारपोरेट क्षेत्र आश्वस्त है.

गुजरात में मोदी ने ‘डिलीवर’ करके दिखाया है जबकि यू.पी.ए/कांग्रेस का ‘समावेशी विकास’ का नव उदारवादी माडल अब उस तरह से ‘डिलीवर’ नहीं कर पा रहा है, जैसे उसने २००४ के बाद के शुरूआती पांच-सात वर्षों में ‘डिलीवर’ किया था. यही नहीं, कार्पोरेट्स का भरोसा जीतने के लिए मोदी ने हाल में फिक्की के सम्मेलन में वायदा किया कि वे यू.पी.ए सरकार के राज में शुरू किये गए ‘टैक्स आतंकवाद’ को खत्म करेंगे.

उल्लेखनीय है कि देशी-विदेशी कार्पोरेट्स पिछले काफी दिनों से वोडाफोन से लेकर नोकिया टैक्स विवाद को सरकार का ‘टैक्स आतंकवाद’ बता रहे हैं. मोदी इससे निजात दिलाने का वायदा कर रहे हैं. यह और बात है कि इससे टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का लाभ उठानेवाले कार्पोरेट्स को खुली छूट मिल जाएगी. दोहराने की जरूरत नहीं है कि कार्पोरेट्स मोदी से खुश क्यों हैं?
लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि क्या मोदी अपने आर्थिक दर्शन और योजनाओं/कार्यक्रमों से गरीबों और आम आदमी को अपनी ओर खींच पाएंगे? दूसरे, क्या वे जो वायदे कर रहे हैं, उसे ‘डिलीवर’ कर पाएंगे? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि बड़ी-बड़ी घोषणाएं करना एक बात है और उसे आर्थिक तौर पर लागू करना बिलकुल दूसरी बात है.
याद रहे कि देश में कई बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं इसलिए ठप्प हैं क्योंकि उनकी आर्थिक-वित्तीय उपयोगिता (वायबिलिटी) पर सवाल उठ गए हैं. उदाहरण के लिए, बुलेट ट्रेन की योजना दुनिया के अधिकांश देशों में नाकाम साबित हुई है.
दूसरी ओर, कांग्रेस/यू.पी.ए ने २०१२ के उत्तरार्ध से खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और पेट्रोलियम उत्पादों से सब्सिडी खत्म करने से लेकर हाल में के.जी. बेसिन गैस की कीमतों और पर्यावरण सम्बन्धी रुकावटों को हटाने के फैसलों के जरिये बड़ी पूंजी को खुश करने और उसका भरोसा जीतने की कोशिश की है लेकिन लगता है कि अब तक काफी देर हो चुकी है.

यही कारण है कि राहुल गाँधी के सी.आई.आई और फिक्की के सम्मेलनों में जाकर कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने के बावजूद वे उनका भरोसा नहीं हासिल कर पा रहे हैं. यही नहीं, कांग्रेस की आर्थिकी अपने ही अंतर्विरोधों में उलझकर रह गई है और वह न कार्पोरेट्स का और न आम आदमी का भरोसा जीत पा रही है.

लेकिन असली मुद्दा यह है कि प्रधानमंत्री पद के दोनों दावेदारों की बुनियादी तौर पर एक तरह के आर्थिक दर्शन- नव उदारवादी और कारपोरेटपरस्त सैद्धांतिकी और योजनाओं/कार्यक्रमों के कारण आमलोगों के पास चुनने को वास्तव में बहुत सीमित और संकीर्ण विकल्प रह गया है.   

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 25 जनवरी को प्रकाशित टिप्पणी)

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