आम आदमी पार्टी से क्या सीख सकता है वामपंथ?
हालिया विधानसभा चुनावों खासकर उत्तर भारत के चार राज्यों में कांग्रेस की भारी हार, भाजपा की प्रभावी जीत और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के चमकदार प्रदर्शन ने राष्ट्रीय राजनीति खासकर उत्तर भारत में वामपंथ की सिकुड़ती भूमिका और उसके लगातार हाशिए पर खिसकते जाने की प्रक्रिया को एक बार फिर रेखांकित किया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि वामपंथी पार्टियां खुद को इस ‘तीसरे स्पेस’ की स्वाभाविक दावेदार मानती रही हैं और अगले आम चुनावों के मद्देनजर एक बार फिर गैर कांग्रेस-गैर भाजपा मध्यमार्गी क्षेत्रीय दलों के ढीले-ढाले तीसरे मोर्चे को खड़ा करने के मनसूबे बाँध रहे थे.
इस कथित तीसरे मोर्चे की दयनीय हालत का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आज तीसरे मोर्चे की तमाम चर्चाओं के बावजूद कोई भी गैर कांग्रेस-गैर भाजपा दल चुनावों से पहले एक नीतिगत और कार्यक्रमों पर आधारित गठबंधन के पक्ष में नहीं दिखाई पड़ता है और वे सभी चुनावों के बाद अपने सभी विकल्प खुले रखना चाहते हैं.
उल्लेखनीय है कि दो महीने पहले वाम मोर्चे की पहल पर आयोजित धर्मनिरपेक्ष सम्मेलन में आए चंद्रबाबू नायडू भाजपा की ओर कदम बढ़ा चुके हैं जबकि जगन मोहन भाजपा के साथ प्रेम की पींगे बढ़ा रहे हैं.
यही नहीं, वाम मोर्चे के कथित तीसरे मोर्चे के प्रस्तावित साथी जैसे नवीन पटनायक से लेकर जयललिता तक कभी भी पलता मारकर भाजपा के पाले में जा सकते हैं जबकि मुलायम और लालू यादव कांग्रेस के खेमे में जा सकते हैं.
यही नहीं, उनका गुप्त कांग्रेस प्रेम भी खत्म होता नहीं दिख रहा है. पिछले राष्ट्रपति चुनावों में कांग्रेस के समर्थन से यह साफ़ हो गया है कि चुनावों के बाद माकपा एक बार फिर साम्प्रदायिकता को रोकने के नामपर कांग्रेस के साथ खड़ी हो सकती है. इसके कारण उसकी स्थिति न सिर्फ हास्यास्पद होती जा रही है बल्कि वाम मोर्चे की साख गिरी है और वामपंथ की चमक फीकी पड़ी है.
यह सच है कि वामपंथी पार्टियों के नेताओं और सरकारों पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं हैं लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों में डूबे दलों और नेताओं के साथ खड़े होकर वाम पार्टियां भी दलों के दलदल में कमोबेश वैसी ही नजर आती हैं.
यहाँ तक कि आर्थिक नीतियों के मामले में भी वाम मोर्चे की कथनी-करनी का अंतर सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं ने मिटा दिया.
सवाल यह है कि क्या वाम पार्टियां सीखने और इस चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हैं?
हालिया विधानसभा चुनावों खासकर उत्तर भारत के चार राज्यों में कांग्रेस की भारी हार, भाजपा की प्रभावी जीत और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के चमकदार प्रदर्शन ने राष्ट्रीय राजनीति खासकर उत्तर भारत में वामपंथ की सिकुड़ती भूमिका और उसके लगातार हाशिए पर खिसकते जाने की प्रक्रिया को एक बार फिर रेखांकित किया है.
यह सच है कि इन पाँचों राज्यों में छिटपुट इलाकों को छोड़कर मुख्यधारा की वामपंथी
पार्टियों और दूसरी रैडिकल वामपंथी शक्तियों की राजनीतिक-सांगठनिक रूप से कोई खास
मौजूदगी नहीं थी, इसके बावजूद सभी रंग और विचारों के वामपंथी दलों और संगठनों के
लिए बड़ी चिंता की बात यह है कि राष्ट्रीय राजनीति का दक्षिणपंथी झुकाव बढ़ता जा रहा
है और वामपंथ हाशिए पर जा रहा है.
यही नहीं, वामपंथी पार्टियों के लिए चिंता की बात यह भी है कि
कांग्रेस और भाजपा और यहाँ तक कि पारंपरिक मध्यमार्गी क्षेत्रीय पार्टियों से ऊबे
और नाराज मतदाताओं के जरिये बन रहे ‘तीसरे स्पेस’ के एक वैकल्पिक दावेदार और नेता के
बतौर आम आदमी पार्टी सामने आ गई है जिसके शानदार प्रदर्शन की धमक दिल्ली से बाहर
देश के बड़े हिस्से में सुनाई पड़ रही है. कहने की जरूरत नहीं है कि वामपंथी पार्टियां खुद को इस ‘तीसरे स्पेस’ की स्वाभाविक दावेदार मानती रही हैं और अगले आम चुनावों के मद्देनजर एक बार फिर गैर कांग्रेस-गैर भाजपा मध्यमार्गी क्षेत्रीय दलों के ढीले-ढाले तीसरे मोर्चे को खड़ा करने के मनसूबे बाँध रहे थे.
लेकिन आम आदमी पार्टी की जीत ने इस वामपंथी पार्टियों के तीसरे मोर्चे
के माडल की राजनीतिक वैधता पर सवालिया निशान लगा दिया है.
आखिर भ्रष्टाचार,
महंगाई, बेरोजगारी, कुशासन, बदतर कानून-व्यवस्था, बिजली-सड़क-पानी-शिक्षा-स्वास्थ्य
की खराब स्थिति से लेकर जल-जंगल-जमीन और खनिजों की कारपोरेट लूट तक और धनबल-बाहुबल-लालबत्ती
की राजनीतिक संस्कृति से लेकर आम जनता के साथ संवाद के मामले में कांग्रेस और
भाजपा की सरकारों की तुलना में गैर कांग्रेस-गैर भाजपा क्षेत्रीय दलों की सरकारों
का प्रदर्शन कहाँ से बेहतर है?
उल्टे कई मामलों में वे कांग्रेस और भाजपा की
सरकारों से बदतर ही हैं. आखिर उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार किस मामले में
कांग्रेस और भाजपा की सरकारों से बेहतर है?
यही नहीं, पिछले दो-ढाई दशकों में सिर्फ सत्ता की मलाई में हिस्से के
लिए माकपा के नेतृत्ववाले वाम मोर्चे की पहल पर बननेवाले अवसरवादी तीसरे मोर्चे की
हकीकत लोगों को पता चल चुकी है. हैरानी की बात नहीं है कि २००९ के आम चुनावों से
ठीक पहले परमाणु समझौते के खिलाफ यू.पी.ए-एक से बाहर निकले वाम मोर्चे ने
जैसे-तैसे बसपा से लेकर टी.डी.पी तक को इकठ्ठा करके मोर्चा बनाने की कोशिश की थी
जिसे लोगों ने पूरी तरह से नकार दिया था. इस कथित तीसरे मोर्चे की दयनीय हालत का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आज तीसरे मोर्चे की तमाम चर्चाओं के बावजूद कोई भी गैर कांग्रेस-गैर भाजपा दल चुनावों से पहले एक नीतिगत और कार्यक्रमों पर आधारित गठबंधन के पक्ष में नहीं दिखाई पड़ता है और वे सभी चुनावों के बाद अपने सभी विकल्प खुले रखना चाहते हैं.
सबसे हैरान करनेवाली बात यह है कि खुद माकपा के नेतृत्ववाले वाम
मोर्चे की मुख्य पार्टियां भी चंद संसदीय सीटों के वास्ते एक-दूसरे के खिलाफ
अवसरवादी गठबंधन के लिए हाथ-पैर मारती दिखाई दे रही हैं.
उदाहरण के लिए, माकपा
आंध्र प्रदेश में भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे जगन मोहन रेड्डी की वाई.एस.आर
कांग्रेस से गठबंधन की जुगत में है तो भाकपा तेलंगाना क्षेत्र में टी.आर.एस को
रिझाने की कोशिश कर रही है. इसी तरह बिहार में भाकपा नीतिश कुमार की जे.डी-यू को
गले लगाने के लिए बेताब है तो माकपा लालू प्रसाद की आर.जे.डी के इंतज़ार में है.
यही नहीं, उत्तर प्रदेश और उडीसा से लेकर तमिलनाडु तक वाम मोर्चे की दोनों
पार्टियां साथियों की तलाश में इस या उस मध्यमार्गी दल की गणेश परिक्रमा करने में
जुटी हैं.
लेकिन वाम मोर्चे की घटते हुए राजनीतिक रसूख का अंदाज़ा इस तथ्य से
लगाया जा सकता है कि कोई उन्हें बहुत भाव नहीं दे रहा है और न ही उनके दावों के
बावजूद कथित तीसरे मोर्चे का गुब्बारा फूल रहा है. उल्लेखनीय है कि दो महीने पहले वाम मोर्चे की पहल पर आयोजित धर्मनिरपेक्ष सम्मेलन में आए चंद्रबाबू नायडू भाजपा की ओर कदम बढ़ा चुके हैं जबकि जगन मोहन भाजपा के साथ प्रेम की पींगे बढ़ा रहे हैं.
यही नहीं, वाम मोर्चे के कथित तीसरे मोर्चे के प्रस्तावित साथी जैसे नवीन पटनायक से लेकर जयललिता तक कभी भी पलता मारकर भाजपा के पाले में जा सकते हैं जबकि मुलायम और लालू यादव कांग्रेस के खेमे में जा सकते हैं.
हैरानी की बात यह है कि इसके बावजूद अगरतल्ला में माकपा की केन्द्रीय
समिति की ताजा बैठक के बाद पार्टी महासचिव प्रकाश करात ने गैर कांग्रेस-गैर भाजपा
मध्यमार्गी पार्टियों को लेकर तीसरा मोर्चा बनाने का संकल्प दोहराया है.
इससे साफ़
है कि माकपा और उसके नेतृत्ववाला वाम मोर्चा हालिया चुनावों और उसके नतीजों खासकर
आम आदमी पार्टी की कामयाबी से कोई सबक सीखने को तैयार नहीं है.
वह समझ नहीं पा रही
है कि आम आदमी पार्टी की जीत कांग्रेस-भाजपा के साथ-साथ कांग्रेसी संस्कृति में
रमी सपा-बसपा-तृणमूल-जे.डी.यू-डी.एम.के-बी.जे.डी-टी.डी.पी.-ए.आई.डी.एम.के जैसी सभी
मध्यमार्गी पार्टियों के खिलाफ एक वैकल्पिक राजनीति की जीत है जो
नीतियों-कार्यक्रमों से लेकर विचार-राजनीतिक व्यवहार तक में एक वास्तविक विकल्प की
मांग कर रही है.
ऐसा लगता है कि माकपा और वाम मोर्चा इस सन्देश के निहितार्थ को समझ
नहीं पा रहे हैं और अभी भी जिस तरह बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को सीने से चिपकाए
रहती है, उसी तरह राजनीतिक रूप से पिट चुके तीसरे मोर्चे को गले से लगाये हुए हैं.
यही नहीं, उनका गुप्त कांग्रेस प्रेम भी खत्म होता नहीं दिख रहा है. पिछले राष्ट्रपति चुनावों में कांग्रेस के समर्थन से यह साफ़ हो गया है कि चुनावों के बाद माकपा एक बार फिर साम्प्रदायिकता को रोकने के नामपर कांग्रेस के साथ खड़ी हो सकती है. इसके कारण उसकी स्थिति न सिर्फ हास्यास्पद होती जा रही है बल्कि वाम मोर्चे की साख गिरी है और वामपंथ की चमक फीकी पड़ी है.
असल में, माकपा और वाम मोर्चे की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वह
स्वतंत्र पहलकदमी लेने और देश के सामने एक मुकम्मल वाम विकल्प देने का साहस नहीं
कर रही है. पिछले दो-ढाई दशकों से देश के अधिकांश हिस्सों खासकर उत्तर भारत में
अपनी कमजोर स्थिति और सांप्रदायिक ताकतों के उभार का हवाला देकर माकपा ने वामपंथ
को कभी लालू, कभी मुलायम और कभी कांग्रेस का पिछलग्गू बना दिया है.
कहने की जरूरत
नहीं है कि इसकी उसे भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है. इसके कारण उत्तर भारत में
वामपंथी पार्टियों का बचा-खुचा जनाधार भी खिसक चुका है. नतीजा यह कि अब वे पूरी
तरह से इन मध्यमार्गी पार्टियों की बैसाखी पर निर्भर हैं.
लेकिन इसका सबसे बड़ा राजनीतिक नुकसान यह हुआ है कि आज भारतीय राजनीति
में आमलोगों को वामपंथ और बाकी मध्यमार्गी पार्टियों के बीच कोई बुनियादी फर्क नजर
नहीं आता है. यह सच है कि वामपंथी पार्टियों के नेताओं और सरकारों पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं हैं लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों में डूबे दलों और नेताओं के साथ खड़े होकर वाम पार्टियां भी दलों के दलदल में कमोबेश वैसी ही नजर आती हैं.
यहाँ तक कि आर्थिक नीतियों के मामले में भी वाम मोर्चे की कथनी-करनी का अंतर सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं ने मिटा दिया.
सच पूछिए तो आज वामपंथ के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी स्वतंत्र पहचान
और आमलोगों के बीच अपनी राजनीतिक साख को बहाल करना है. इसके लिए वाम पार्टियों को
जड़ों की ओर लौटना होगा.
इसका अर्थ यह है कि उन्हें मध्यमार्गी दलों का पिछलग्गू
बनना छोड़ना होगा, आम जनता के बुनियादी हकों के लिए रैडिकल संघर्षों को आगे बढ़ाना
होगा और देश के सामने साहस के साथ एक मुकम्मल वाम विकल्प पेश करने की तैयारी करनी
होगी. वामपंथ को यह जोखिम उठाना ही होगा क्योंकि बिना राजनीतिक जोखिम उठाए वह खुद
को हाशिए पर जाने से नहीं रोक सकता है.
आम आदमी पार्टी की शानदार सफलता वामपंथ के लिए चेतावनी है. लेकिन वाम
पार्टियां चाहें तो स्वतंत्र राजनीतिक दावेदारी, उसके लिए जोखिम उठाने और नए
राजनीतिक प्रयोग करने के मामले में आम आदमी पार्टी से बहुत कुछ सीख सकती हैं. सवाल यह है कि क्या वाम पार्टियां सीखने और इस चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हैं?
('नेशनल दुनिया' के 20 दिसंबर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)
1 टिप्पणी:
kash aisa hota, par vaam hamesha mauke khoz rha hai, mauke muhaiya nahi kara raha hai..ye badi glaani hai..mahaul gajab hai aisa karne ka..harhaal mein hona chahiye...
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