बुधवार, जून 05, 2013

आइ.पी.एल : गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज

कल तक आई पी एल के गुणगान में जुटे चैनलों को 'सत्य' का इलहाम काफी देर से हुआ है  

आई.पी.एल में मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी के खुलासे के बाद से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बी.सी.सी.आई) के अध्यक्ष और आई.पी.एल टीम- चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक एन. श्रीनिवासन मीडिया से बहुत नाराज हैं. उन्हें लगता है कि मैच फिक्सिंग मामले में ‘मीडिया ट्रायल’ हो रहा है. उनकी नाराजगी की वजह किसी से छुपी नहीं है.

श्रीनिवासन के दामाद और चेन्नई सुपर किंग्स के प्रिंसिपल (सी.ई.ओ) रहे गुरुनाथ मैयप्पन सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग रैकेट में शामिल होने के आरोपों में पुलिस के हत्थे चढ़ चुके हैं. जाहिर है कि श्रीनिवासन पर इस्तीफा देने और बी.सी.सी.आई पर चेन्नई सुपर किंग्स का लाइसेंस खत्म करने का दबाव बढ़ता जा रहा है.

लेकिन श्रीनिवासन को लगता है कि यह मांग सिर्फ मीडिया से आ रही है. उन्होंने एलान कर दिया है कि मीडिया उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है. लेकिन वे भूल रहे हैं कि यही मीडिया है जिसने आई.पी.एल को आई.पी.एल बनाया है.
न्यूज चैनलों और अखबारों ने शुरू से आई.पी.एल को जिस तरह हाथों-हाथ लिया, उसे जितनी कवरेज दी और सबसे बढ़कर उसकी चमक-दमक के पीछे छिपी गडबडियों और गलाजत को अनदेखा किया, उससे आई.पी.एल को एक विश्वसनीयता मिली. यह चैनल और मीडिया ही था जिसने आई.पी.एल को भारत के अपने पहले सफल लीग की तरह प्रचारित और प्रतिष्ठित किया.
इसलिए आई.पी.एल को मिले ‘मीडिया हाइप’ का मजा ले चुके श्रीनिवासन अब ‘मीडिया ट्रायल’ की शिकायत किस मुंह से कर रहे हैं? मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू, यह कैसे चलेगा?

यह सही है कि जब से श्रीसंथ सहित तीन खिलाड़ियों और विंदू दारा सिंह और मय्प्पन की ‘स्पाट फिक्सिंग’ और सट्टेबाजी के आरोपों में गिरफ्तारी हुई है, मीडिया ने ऐसे सिर आसमान पर उठा रखा है, जैसे उसे आई.पी.एल की चमक के पीछे छिपी बजबजाहट के बारे में आज पता चला है.

सवाल यह है कि आज जो चैनल/अखबार आई.पी.एल की चीरफाड़ में जुटे हुए हैं, वे कल तक उस गलाजत से आँखें क्यों मूंदे हुए थे?

क्या चैनलों को यह पता नहीं था कि जैसे हर चमकती चीज सोना नहीं होती, आई.पी.एल भी शुरू से ही क्रिकेट से ज्यादा पैसे और ग्लैमर के कारण चमक रहा था? सच यह है कि मीडिया को यह सब मालूम था. लेकिन चैनल खुद भी इसी ‘चमक’ से अभिभूत थे.
यहाँ तक कि अधिकांश चैनलों पर क्रिकेट के एक्सपर्ट वे पूर्व खिलाड़ी हैं, जिनपर फिक्सिंग के आरोप लग चुके हैं. मजे की बात यह है कि वे अब खिलाड़ियों के लालच और उनमें नैतिकता की बढ़ती कमी पर ‘ज्ञान’ देते हैं. यही नहीं, आई.पी.एल में सट्टेबाजी की पोस्टमार्टम कर रहे चैनल/अखबार कल तक खुद मैच से पहले सट्टा बाजार में टीमों के भाव बताया करते थे.
इसे कहते हैं, गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज. इसका सबूत यह है कि आई.पी.एल में फिक्सिंग के आरोपों में एन. श्रीनिवासन का सिर मांग रहे अखबार/चैनल उस आई.पी.एल पर कोई सवाल नहीं उठा रहे हैं जिसे कालेधन को सफ़ेद करने के लिए ही खड़ा किया गया है. सट्टेबाजी और नतीजे में फिक्सिंग उसके मूल चरित्र में है.

सवाल है कि अगर आई.पी.एल को खत्म कर दिया जाए तो क्रिकेट का क्या नुकसान होगा? लेकिन यह सवाल कोई चैनल या अखबार नहीं उठाएगा क्योंकि आई.पी.एल को टेलीविजन यानी मनोरंजन उद्योग के लिए ही बनाया गया है. उसमें बड़े टीवी समूहों (जिनमें न्यूज चैनल भी शामिल हैं) का हजारों करोड़ रूपया लगा हुआ है और सभी को विज्ञापनों से भारी कमाई हो रही है.  

जाहिर है कि चैनल बेवकूफ नहीं हैं कि अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारें. वे तो सिर्फ श्रीनिवासन का सिर दिखाकर दर्शकों को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि आई.पी.एल में अब सब ठीक-ठाक है. वैसे ही जैसे ललित मोदी के बाद राजीव शुक्ल को आई.पी.एल कमिश्नर और श्रीनिवासन को बोर्ड अध्यक्ष बनाने के बाद हो गया था.                 
('तहलका' के 15 जून के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

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