गुरुवार, अप्रैल 04, 2013

डान क्विक्जोट की तरह लड़ रहे हैं जस्टिस काटजू

न्यूज मीडिया की विकृतियों और भ्रष्टाचार का दायरा व्यक्तिगत पत्रकारों से बहुत आगे बढ़कर सांस्थानिक स्वरुप ले चुका है
दूसरी क़िस्त 
सवाल यह है कि पत्रकारिता की विकृतियों और विचलनों की जड़ में क्या है? जब अखबार/चैनल का प्रबंधन खुद पेड न्यूज में संलग्न हो तो पत्रकार की व्यक्तिगत ईमानदारी का क्या मतलब रह जाता है?
कहने की जरूरत नहीं है कि अगर मीडिया संस्थान ईमानदार, पत्रकारीय मूल्यों और आचार संहिताओं और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध हो तो वहां इस बात की सम्भावना बहुत कम होगी कि कोई भ्रष्ट, अनैतिक और मूर्ख पत्रकार घुस पाए या लंबे समय तक टिक पाए.
ऐसे भ्रष्ट और अनैतिक पत्रकारों के लिए वहां मनमानी करने की भी गुंजाइश कम होगी क्योंकि सांस्थानिक तौर पर वहां जांच-पड़ताल की व्यवस्था एक अंकुश की तरह काम करेगी. लेकिन अगर संस्थान खुद भ्रष्ट और पत्रकारीय नैतिकता को ठेंगे पर रखता है तो ईमानदार पत्रकार के लिए भी वहां ईमानदार बने रहना या टिके रहना मुश्किल है.
यही नहीं, अगर संस्थान खुद भ्रष्ट है तो वहां वैसे ही पत्रकारों को आगे बढ़ाया जाएगा या बढ़ाया जाता है. कहने का तात्पर्य यह है कि आज न्यूज मीडिया की विकृतियों, विचलनों और भ्रष्टाचार का दायरा व्यक्तिगत पत्रकारों से बहुत आगे बढ़कर सांस्थानिक स्वरुप ले चुका है और उसका इलाज भी व्यक्तिगत नहीं बल्कि सांस्थानिक ही होना चाहिए.

ऐसे में, असल मुद्दा यह है कि ईमानदार-साहसी-संवेदनशील पत्रकारों की आज़ादी की सुरक्षा कैसे की जाए? मीडिया के मौजूदा पूंजीवादी बिजनेस माडल में अभिव्यक्ति की आज़ादी पत्रकार की नहीं, उसके मालिक की आज़ादी है. जब तक यह पत्रकार की आज़ादी नहीं बनेगी, कोई डिग्री या मानदंड पत्रकारिता के स्खलन को नहीं रोक पाएगी.

अफसोस और चिंता की बात यह है कि न्यूज मीडिया की विकृतियों, विचलनों और भ्रष्टाचार को मुद्दा
बनाने के बावजूद जस्टिस काटजू इसे जिसे तरह से पत्रकारों की शिक्षा, अपढ़ता और इसके इलाज के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता तक सीमित कर देते हैं, उसके कारण न सिर्फ असली अपराधियों को बच निकलने का मौका मिल जा रहा है बल्कि न्यूज मीडिया की सफाई में जिनकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है और जिन्हें संरक्षण और समर्थन की जरूरत है, वे पत्रकार ही कटघरे में खड़े दिखाई पड़ने लगते हैं. इससे इस लड़ाई में दोस्त के दुश्मन बनने और लड़ाई के कमजोर पड़ने का खतरा पैदा हो गया है.
हालाँकि यह कहने का आशय यह कतई नहीं है कि पत्रकारों को पढ़ने या उनके प्रशिक्षण की जरूरत नहीं है. निश्चय ही, पत्रकारिता में प्रतिभाशाली, पढ़े-लिखे, विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ, संवेदनशील और गंभीर लोगों की जरूरत है.

लेकिन यहाँ भी समस्या सांस्थानिक ही है क्योंकि न्यूज मीडिया में मनोरंजन के बढ़ते बोलबाले और उसके दबाव में पत्रकारिता को हल्का-फुल्का बनाने का सांस्थानिक दबाव इस कदर बढ़ता जा रहा है कि कारपोरेट मीडिया को बहुत प्रतिभाशाली, पढ़े-लिखे और विशेषज्ञ पत्रकारों की जरूरत ही नहीं है.

दूसरे, वे इसके लिए उचित वेतन और बेहतर सेवा शर्तें देने को भी तैयार नहीं हैं. ज्यादातर मीडिया कंपनियों का ध्यान गुणवत्ता के बजाय मात्रा पर है और इसके लिए उन्हें सस्ते और ज्यादा मेहनत कर सकनेवाले पत्रकार नहीं, मशीन चाहिए.
अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि एक पेशे के बतौर भी पत्रकारिता न तो वेतन के मामले में, न सेवा शर्तों के मामले में और सबसे बढ़कर पत्रकार के बतौर काम की संतुष्टि के मामले में इतनी आकर्षक रह गई है कि वह प्रतिभाशाली युवाओं खासकर उच्च शिक्षा-प्राप्त छात्रों आकर्षित कर सके. लेकिन दूसरी ओर, कारपोरेट मीडिया संस्थानों और दूसरी मीडिया कंपनियों की शिकायत यह रहती है कि पत्रकारिता में प्रतिभाशाली युवा नहीं आ रहे हैं.
असल में, यह एक दुष्चक्र सा बन गया है. लेकिन इस दुश्चक्र की शुरुआत मीडिया के कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया के साथ हुई, जब यह घोषित किया गया कि अखबार किसी भी अन्य उत्पाद जैसे साबुन, टूथपेस्ट और डियोडोरेंट की तरह एक उत्पाद है.

यही नहीं, यह भी कहा गया कि इस उत्पाद के उत्पादन और बिक्री के लिए संपादक और बहुत पढ़े-लिखे जानकार पत्रकारों की जरूरत नहीं है क्योंकि उसे बेचने के लिए मार्केटिंग की जरूरत है. नतीजा यह हुआ कि बड़े कारपोरेट मीडिया संस्थानों में एक ओर संपादक को महत्वहीन और मैनेजरों को प्रभावी बनाया गया और दूसरी ओर, अखबारों से तेजतर्रार, संवेदनशील और पढ़े-लिखे पत्रकारों को बाहर किया गया.

संभव है कि जस्टिस काटजू इस इतिहास से वाकिफ न हों लेकिन यह सच्चाई न्यूज मीडिया को नजदीक से देखनेवाले सभी शोधकर्ताओं को मालूम है कि न्यूज मीडिया उद्योग में बेनेट कोलमैन एंड कम्पनी लिमिटेड ने ८० के दशक के आखिरी वर्षों और ९० के दशक में अपने अखबारों के कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया में एक ओर अखबार को हल्का-फुल्का बनाना शुरू किया.
फीलगुड पत्रकारिता के तहत पेज-३ से लेकर मीडियानेट और प्राइवेट ट्रीटी जैसी संदिग्ध तौर-तरीकों को आगे बढ़ाया और दूसरी ओर, ‘टाइम्स आफ इंडिया’ में संपादकों को अपमानित करने से लेकर प्रफुल्ल बिदवई और ए.एन.दास जैसे वरिष्ठ पत्रकारों को बाहर किया. जल्दी ही और मीडिया कंपनियों ने भी इसी रास्ते को पकड़ा और ९० का दशक बीतते-बीतते यह प्रक्रिया पूरी हो गई.
हैरानी की बात नहीं है कि पिछले दशक में जब इन्हीं कारपोरेट मीडिया समूहों ने टी.वी चैनल शुरू किये तो उनके सामने यह व्यावसायिक रूप से ‘सफल’ माडल पहले से मौजूद था. उन्हें बहुत सोचना-विचारना नहीं पड़ा.

उनकी देखा-देखी बाकी न्यूज चैनल चलानेवाली कंपनियों ने भी उसी रास्ते को पकड़ा. इसलिए न्यूज
चैनलों में आज जो हल्कापन-भोंडापन और उथलापन दिखता है, वह किसी दुर्घटनावश नहीं है बल्कि वह एक बहुत सोची-समझी योजना और रणनीति का हिस्सा है. कारपोरेट मीडिया में विज्ञापनों से होनेवाली आय पर टिके मौजूदा व्यावसायिक माडल को यहीं पहुंचना था.
 
लेकिन जस्टिस काटजू इसे देखकर भी देखने को तैयार नहीं हैं. इसलिए मौजूदा स्थितियों से नाराजगी और अपने गुस्से के बावजूद इस लड़ाई में वे अक्सर डान क्विक्जोट की तरह दिखने लगते हैं.

('कथादेश' के अप्रैल'13 अंक में प्रकाशित स्तम्भ की दूसरी और आखिरी क़िस्त) 

3 टिप्‍पणियां:

Krishna ने कहा…

Ye censored kyun dikha raha hai?

Indra ने कहा…

मेरा भी संपादक सेक्सी लेआउट आसमान में लहराता है..

Anoop Kumar ने कहा…

भारतीय प्रेस परिषद् के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू की लड़ाई बन्दर दौड़-जैसी है, जिसका हासिल सिफ़र ही होगा। अगर वह असली परिवर्तन लाना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले मजीठिया वेतन बोर्ठ की सिफ़ारिशों को लागू करवाना चाहिए। न्यूनतम पारिश्रमिक, कार्य के घण्टे और स्थिति, नियुक्ति व निष्कासन की पारदर्शी व्यवस्था स्थापित करना आदि ऐसे कार्य हैं जिनसे पत्रकारों में आत्मविश्वास जगेगा। नौकरी की स्थिरता सुनिश्चित होने से वे अपना ध्यान अपने काम पर केन्द्रित कर सकेंगे।
पत्रकारिता में प्रबन्धक की अपेक्षा सम्पादक नाम की संस्था के महत्त्व को पुनस्र्थापित किये जाने की ज़रूरत है।