गुरुवार, जुलाई 19, 2012

रिकार्डतोड़ अनाज भण्डार के बीच आसमान छूती महंगाई

नीतिगत लकवे के कारण महंगाई बढ़ रही है    

आंकड़ों के बारे में आपने यह मसल जरूर सुनी होगी- झूठ, महाझूठ और आंकड़े! इन दिनों महंगाई के आंकड़ों पर यह मसल कुछ ज्यादा ही सटीक बैठती है. आम आदमी आसमान छूती महंगाई की मार से भले त्रस्त हो लेकिन मुद्रास्फीति के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, मई की तुलना में जून महीने में थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यू.पी.आई) पर आधारित महंगाई की दर में मामूली कमी दर्ज की गई है और मुद्रास्फीति दर मई के ७.५५ फीसदी से घटकर ७.२५ फीसदी हो गई है.
जाहिरा तौर पर मंत्रियों और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों के चेहरों पर मुस्कराहट लौट आई है लेकिन अधिकांश विश्लेषक मुद्रास्फीति दर में आई गिरावट से हैरान है क्योंकि वे उसमें मामूली बढोत्तरी की आशंका जता रहे थे. समाचार एजेंसी रायटर्स के एक सर्वेक्षण में विश्लेषकों और अर्थशास्त्रियों ने जून में मुद्रास्फीति की दर ७.६२ फीसदी रहने का अनुमान लगाया था.
सवाल है कि यह चमत्कार कैसे हुआ? असल में, इसका वास्तविक महंगाई से कम और सांख्यकी से ज्यादा संबंध है. सच पूछिए तो यह एक सांख्यिकीय चमत्कार है. पिछले साल की ऊँची मुद्रास्फीति दर के कारण इस साल की वृद्धि प्रतिशत में कम दिखाई देती है. इसे अर्थशास्त्र में हाई बेस प्रभाव यानी आधार वर्ष में ऊँची दर का असर कहते हैं. चूँकि पिछले वर्ष जून महीने में थोक मुद्रास्फीति दर ९.५१ फीसदी थी, इसलिए इस साल की बढोत्तरी तुलनात्मक रूप से खासी कम दिखाई दे रही है.

दूसरी बात यह है कि मुद्रास्फीति के ताजा आंकड़े अस्थाई हैं और दो महीने बाद जारी होनेवाले मुद्रास्फीति के संशोधित आंकड़ों में आमतौर पर बढोत्तरी का रुझान देखा गया है. जैसे जून के थोक मुद्रास्फीति दर के साथ-साथ अप्रैल महीने की मुद्रास्फीति की दर (अस्थाई) को ७.२३ फीसदी से संशोधित करके ७.५० फीसदी कर दिया गया है. इसका अर्थ यह हुआ कि दो महीने बाद जून के मुद्रास्फीति के वास्तविक आंकड़े मौजूदा दर से ऊँचे रह सकते हैं.

तीसरी बात यह है कि जून महीने के थोक मुद्रास्फीति के आंकड़ों की अगर बारीकी से छानबीन की जाए तो साफ़ है कि खाद्य मुद्रास्फीति की दर अभी भी न सिर्फ ऊँची बनी हुई है बल्कि मई की तुलना में जून में उसमें बढ़ोत्तरी भी हुई है. मई में खाद्य मुद्रास्फीति की दर १०.७४ फीसदी थी जो जून महीने में बढ़कर १०.८१ फीसदी हो गई है.
इसमें भी सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि जून महीने में चावल की कीमतों में ६.७ फीसदी, गेहूं में ७.४६ फीसदी, दालों में ६.८२ फीसदी और सब्जियों में २०.४८ फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है. इससे साफ़ है कि खाद्य वस्तुओं में महंगाई की आग सिर्फ सब्जियों-फलों तक सीमित नहीं है बल्कि आम आदमी की थाली के सबसे बुनियादी अनाजों- गेहूं-चावल-दाल की कीमतों में भी भभक रही है.
खाद्यान्नों की यह महंगाई इसलिए ज्यादा हैरान करनेवाली है क्योंकि इस समय सरकार के गोदामों में रिकार्ड ८.२ करोड़ टन अनाज का भण्डार है. वैसे सरकार के पास केवल ६.४ करोड़ टन अनाज के भंडारण की व्यवस्था है. मजे की बात यह है कि इस साल सरकार ने ३.८ करोड़ टन गेहूं की खरीद की है. इसका अर्थ यह हुआ कि कोई १.८ करोड़ टन अनाज असुरक्षित भण्डारण के कारण बर्बाद या खराब हो सकता है.

इसके बावजूद यू.पी.ए सरकार इस अनाज भण्डार का इस्तेमाल महंगाई से लड़ने में करने में नाकाम रही है. वह चाहती तो इस अनाज भण्डार से महंगाई खासकर खाद्यान्नों की महंगाई पर अंकुश लगा सकती थी. लेकिन इसके उलट अनाज का यह रिकार्डतोड़ भण्डार खाद्यान्नों की महंगाई की बड़ी वजह बन गया है.

असल में, यह यू.पी.ए सरकार के खाद्य प्रबंधन की नाकामी है. वह इस तरह कि इस समय सरकार खुद सबसे बड़ा जमाखोर बन गई है. जब सरकार खुद ६८२ लाख टन अनाज दबा कर बैठ जाएगी तो बाजार में एक कृत्रिम किल्लत पैदा होना तय है जिसका फायदा खाद्यान्नों के बड़े व्यापारी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ उठा रही हैं.
यू.पी.ए सरकार चाहती तो वह इस अनाज भण्डार का इस्तेमाल करते हुए न सिर्फ खाद्य सुरक्षा कानून को तुरंत लागू करके अनाज को जरूरतमंदों तक पहुंचा सकती थी बल्कि उसे नियंत्रित और सस्ती कीमतों पर खुले बाजार में उतारकर अनाजों की महंगाई को काबू में कर सकती थी. कहने की जरूरत नहीं है कि अनाजों की महंगाई पर अंकुश से सब्जियों की महंगाई पर भी अंकुश लगाने में मदद मिलती क्योंकि इससे मुद्रास्फीति की अपेक्षाओं पर अंकुश लगता और सट्टेबाज-मुनाफाखोर हताश होते.
लेकिन यू.पी.ए सरकार इसके लिए तैयार नहीं है, भले ही अनाज खुले में सड़ या बर्बाद हो जाए या उसे चूहे खा जाएँ. सरकार की इस अनिच्छा और उदासीन रवैये के पीछे एकमात्र कारण राजकोषीय घाटे को कम करने और इसके लिए खाद्य सब्सिडी को कम से कम रखने की जिद है.

इसका कोई समझदार अर्थशास्त्रीय या राजनीतिक तर्क नहीं है लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के प्रति अतिरिक्त व्यामोह और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश रखने के लिए यू.पी.ए सरकार जिद पर अड़ी हुई है. वह न सिर्फ गरीबों को सस्ती दरों पर अनाज देने में आनाकानी कर रही है बल्कि वाजिब दामों पर बाजार में अनाज उतारने से भी हिचकिचा रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार के इस ‘नीतिगत लकवे’ का फायदा अनाजों के बड़े सट्टेबाज और जमाखोर उठा रहे हैं. यही नहीं, गोदामों में रिकार्डतोड़ अनाज रखने के कारण उसके रखरखाव पर भारी खर्च हो रहा है और अनाज सड़ और बर्बाद भी हो रहा है, उसके कारण सरकार का खाद्य सब्सिडी का बजट बढ़ता ही जा रहा है.
दूसरी ओर, खाद्य वस्तुओं की महंगाई भी बेकाबू बनी हुई है. सच पूछिए तो ‘रिकार्डतोड़ अनाज भण्डार और ऊँची खाद्य मुद्रास्फीति दर’ की मौजूदा परिघटना एक पहेली बन चुकी है. लेकिन यह पहेली वास्तव में, यू.पी.ए सरकार की नव उदारवाद नीतियों की ऐसी नाकामी है जिसकी असली कीमत आम आदमी को चुकानी पड़ रही है.
इस सबके बीच इस साल मॉनसून के धोखा देने की बढ़ती आशंका और उसके कारण खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर बढ़ते दबाव ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है. पिछले दस दिनों में सब्जियों की कीमतों में जो उछाल दिखा है, वह जल्दी ही खाद्यान्नों की कीमतों में भी दिखाई पड़ने लगेगी. सट्टेबाज और जमाखोर सरकार के रूख पर नजर लगाये हैं.

अगर वह अब भी अपने नीतिगत लकवे से बाहर नहीं निकली तो उसका सबसे अधिक फायदा अनाजों के व्यापार में लगी बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियाँ और व्यापारी उठाएंगे और आमलोग उसकी कीमत चुकायेंगे. इस मायने में पिछले कुछ दिनों में सब्जियों/खाद्यान्नों की कीमतों में हुई भारी बढ़ोत्तरी यू.पी.ए सरकार के लिए खतरे की घंटी है.

इसलिए उसे जून के मुद्रास्फीति के भ्रामक आंकड़ों में राहत महसूस करने और झूठे दावे करने के बजाय पिछले कुछ दिनों में सब्जियों से लेकर खाद्यान्नों की कीमतों में आई बेतहाशा उछाल को लेकर सतर्क और सक्रिय होना चाहिए.
अगर उसने इस रिकार्डतोड़ अनाज भण्डार का अब भी इस्तेमाल नहीं किया तो पूछा जाना चाहिए कि आम आदमी के पैसे से बना यह अनाज भण्डार किस दिन और काम के लिए है?
('दैनिक भास्कर', नई दिल्ली के 17 जून के अंक में आप-एड पर प्रकाशित लेख)                      

                              

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