बुधवार, जून 20, 2012

अर्थव्यवस्था का गहराता संकट और रिजर्व बैंक की प्राथमिकताएं

रिजर्व बैंक ने गेंद सरकार के पाले में डाल दी है

लगता है कि आमतौर पर लीक पर चलनेवाले रिजर्व बैंक को भी चौंकाने की आदत पड़ गई है. सोमवार को मध्य तिमाही ब्याज दरों की समीक्षा के बाद रिजर्व बैंक ने उम्मीदों के विपरीत न तो रेपो दर यानी ब्याज दर में कोई कटौती की और न ही नगद-जमा अनुपात (सी.आर.आर) में कोई फेरबदल किया.
अधिकांश अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों को उम्मीद थी कि रिजर्व बैंक गिरती आर्थिक वृद्धि दर को सहारा देने के लिए ब्याज दरों के अलावा सी.आर.आर में कटौती जरूर करेगा ताकि निजी क्षेत्र को निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जा सके. सरकार के आर्थिक मैनेजरों की भी ओर से ऐसे संकेत मिल रहे थे और यहाँ तक कि खुद वित्त मंत्री ने भी ब्याज दरों में कटौती की उम्मीद जाहिर की थी.
इस उम्मीद को इस तथ्य से भी बल मिल रहा था कि बीते १८ अप्रैल को सालाना मौद्रिक और कर्ज नीति की घोषणा करते हुए गवर्नर डी. सुब्बाराव ने रेपो दर में उम्मीद के विपरीत सीधे आधी फीसदी की कटौती का एलान करके सबको चौंका दिया था. उस समय ब्याज दरों में कटौती और वह भी सीधे आधी फीसदी की कटौती की उम्मीद किसी को नहीं थी.

तब यह माना गया था कि रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति से लड़ने के लिए ब्याज दरों में लगातार बढ़ोत्तरी की अपनी आक्रामक एकसूत्री नीति को विराम देते हुए आर्थिक विकास दर में आ रही गिरावट को रोकने की पहल की है.

निश्चय ही, वह रिजर्व बैंक की बड़ी और साहसिक पहल थी जिसमें एक जोखिम भी निहित था. वजह यह कि उस समय भी मुद्रास्फीति की दर ऊँची बनी हुई थी लेकिन सुब्बाराव के फैसले से यह उम्मीद बढ़ गई थी कि रिजर्व बैंक अब मुद्रास्फीति के बजाय आर्थिक वृद्धि में आ रही गिरावट को थामने पर जोर देगा.
लेकिन रिजर्व बैंक ने सबकी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए एक बार फिर मुद्रास्फीति नियंत्रण पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया है. गनीमत यह है कि उसने ब्याज दरों में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की और रेपो दर को ज्यों का त्यों रखते हुए यह संकेत देने की कोशिश की है कि मुद्रास्फीति नियंत्रण पहली प्राथमिकता होते हुए भी वह अर्थव्यवस्था की जरूरतों खासकर ब्याज दरों में कमी की मांग के प्रति निष्ठुर नहीं है.
इस मायने में डी. सुब्बाराव ने अपनी प्राथमिकता स्पष्ट कर दी है. उन्होंने स्पष्ट किया है कि अप्रैल में ब्याज दरों में आधी फीसदी की कटौती एक तरह से भविष्योन्मुखी कटौती थी. लेकिन मौजूदा मुद्रास्फीति-विकास दर के बीच के गतिविज्ञान के देखते हुए साफ़ है कि अभी की स्थिति में ब्याज दरों में कटौती से आर्थिक वृद्धि को सहारा मिलने के बजाय मुद्रास्फीति की स्थिति और बिगड़ सकती है. रिजर्व बैंक ने अपने ताज़ा फैसले के पक्ष में तर्क देते हुए कहा है कि आर्थिक वृद्धि दर में आई गिरावट के लिए अनेकों कारण जिम्मेदार हैं जिनमें ब्याज दरों में वृद्धि की बहुत छोटी भूमिका है.

असल में, रिजर्व बैंक को उम्मीद थी कि मार्च के बाद से मुद्रास्फीति की दर में नरमी आने लगेगी. लेकिन मुद्रास्फीति के ताज़ा आंकड़ों ने रिजर्व बैंक की नींद उड़ा दी है. थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर अप्रैल माह के ७.२३ फीसदी से बढ़कर मई माह में ७.५५ फीसदी पहुँच गई है.
इसी तरह उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर दहाई छू रही है और अप्रैल और मई महीने में १०.३६ फीसदी की ऊँचाई पर बनी हुई थी जबकि खाद्य मुद्रास्फीति दर में वृद्धि दर्ज की गई है. यही नहीं, मार्च महीने की ६.८९ फीसदी की मुद्रास्फीति दर संशोधन के बाद ७.६९ फीसदी तक पहुँच गई है.
कहने की जरूरत नहीं है कि मुद्रास्फीति के इन आंकड़ों ने रिजर्व बैंक की चिंता बढ़ा दी है. इसकी वजह यह है कि ७.५५ प्रतिशत की मुद्रास्फीति दर न सिर्फ ५ से ६ फीसदी के लक्ष्य से कहीं ज्यादा और पिछले साल के दोहरे अंकों की ऊँची मुद्रास्फीति दर के ऊँचे बेस के बावजूद है बल्कि यह दर सभी ब्रिक और विकसित औद्योगिक देशों की तुलना में ज्यादा है.

निश्चय ही, इस ऊँची मुद्रास्फीति दर ने रिजर्व बैंक के हाथ बाँध दिए हैं. रिजर्व बैंक की चिंता की एक वजह यह भी है कि आर्थिक वृद्धि की गिरती दर के बीच मुद्रास्फीति की मौजूदा ऊँची दर के कारण अर्थव्यवस्था के मुद्रास्फीतिजनित मंदी (स्टैगफ्लेशन) में फंसने का गंभीर खतरा पैदा हो गया है.

तथ्य यह है कि अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडी ने तो भारतीय अर्थव्यवस्था के स्टैगफ्लेशन में फंसने का एलान कर दिया है. स्टैगफ्लेशन वह स्थिति होती है जिसमें किसी अर्थव्यवस्था की आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट आ रही होती है लेकिन दूसरी ओर, मुद्रास्फीति की दर ऊँची बनी रहती है. किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए स्टैगफ्लेशन बहुत घातक माना जाता है क्योंकि एक बार उसमें फंसने के बाद उससे निकलना न सिर्फ बहुत मुश्किल हो जाता है बल्कि आमलोगों के लिए यह स्थिति आर्थिक रूप से बहुत पीड़ादायक होती है.

वजह यह कि कारपोरेट क्षेत्र एक ओर नए निवेश करने से कतराने लगता है और इस कारण नई नौकरियों का सृजन ठप्प हो जाता है और दूसरी ओर, निजी क्षेत्र अपने मुनाफे को बनाये रखने के लिए छंटनी से लेकर तनख्वाह कटौती पर उतर आता है.

हैरानी की बात नहीं है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों खासकर उद्योग जगत से छंटनी और तालाबंदी की रिपोर्टें लगातार आ रही हैं. ताज़ा रिपोर्टों के मुताबिक, आर्थिक वृद्धि में आई गिरावट और वैश्विक आर्थिक संकट के कारण श्रम सघन क्षेत्रों जैसे टेक्सटाइल उद्योग में पिछले दो सालों में ४५ लाख से अधिक लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है. इससे पता चलता है कि अर्थव्यवस्था का संकट कितनी तेजी से गहरा रहा है.
हालिया आंकड़ों से इसकी पुष्टि होती है. रिपोर्टों के मुताबिक, अप्रैल महीने में औद्योगिक उत्पादन की दर में सिर्फ ०.१ फीसदी की वृद्धि हुई है. इससे पहले मार्च महीने में औद्योगिक उत्पादन दर गिरकर नकारात्मक – ३.५ फीसदी रह गई थी. यही नहीं, आर्थिक वृद्धि की दर पिछले वित्तीय वर्ष की आखिरी तिमाही (जनवरी-मार्च) में गिरकर मात्र ५.३ फीसदी और पूरे साल में ६.५ प्रतिशत रह गई.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि अर्थव्यवस्था में आ रही इस गिरावट की एक बड़ी वजह नए निवेश में आ रही गिरावट है. इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि अप्रैल में पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में सबसे अधिक (–) १६.३ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है जिससे पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में नया निवेश ठहर सा गया है.

निवेश में आई यह गिरावट इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि वैश्विक आर्थिक संकट खासकर यूरोपीय देशों और अमेरिका के गहराते आर्थिक संकट के कारण एक ओर निर्यात में गिरावट आई है और दूसरी ओर, विदेशी पूंजी खासकर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रवाह कमजोर हुआ है जबकि विदेशी संस्थागत निवेशक (एफ.आई.आई) देश से पैसा निकालकर ले जा रहे हैं. इसके कारण रूपये पर भारी दबाव है.

साफ़ है कि इस समय अर्थव्यवस्था की इस लड़खड़ाती स्थिति को संभालना सबसे बड़ी चुनौती है. मजे की बात यह है कि रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय से लेकर उद्योग जगत और आर्थिक विश्लेषक सभी इसके लिए अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने की जरूरत को मानते हैं. सवाल यह है कि निवेश कैसे बढ़ाया जाए?
रिजर्व बैंक को छोडकर लगभग सभी एकमत हैं कि निवेश में वृद्धि के लिए ब्याज दरों में कटौती जरूरी है. लेकिन रिजर्व बैंक इससे एक सीमा तक ही सहमत है और मानता है कि इसमें ब्याज दर की सीमित भूमिका है और निवेश में बढ़ोत्तरी के लिए सरकार को और उपाय करने चाहिए.
रिजर्व बैंक के मुताबिक, जब तक सरकार मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए वित्तीय घाटे में कटौती और आपूर्ति पक्ष की बाधाएं दूर करने की ठोस कोशिश नहीं करेगी, उसके लिए मुद्रास्फीति की मौजूदा ऊँची दर के बीच ब्याज दरों में और कटौती संभव नहीं है. यह और बात है कि सिर्फ दो दिन पहले ही वित्त मंत्री ने राजकोषीय मोर्चे पर पहल लेने का दावा करते हुए उम्मीद जाहिर की थी कि रिजर्व बैंक भी ब्याज दरों में कटौती के जरिये इसे आगे बढ़ाएगा.

लेकिन रिजर्व बैंक के ताज़ा फैसले से साफ़ है कि वह सरकार के दावे से इत्तफाक नहीं रखता है. इसलिए डी. सुब्बाराव ब्याज दरों में कटौती करके और जोखिम लेने के लिए तैयार नहीं हैं. उनके लिए मुद्रास्फीति को काबू में करना पहली प्राथमिकता है. 

इस तरह गेंद एक बार फिर वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और सरकार के पाले में है. फैसला अब सरकार को करना है कि निवेश बढ़ाने के लिए क्या किया जाए? इतना तय है कि गहराते आर्थिक संकट से निपटने के लिए सरकार के पास समय बहुत कम है. उसे तुरंत फैसला करना होगा.

('दैनिक भाष्कर', नई दिल्ली के आप-एड पृष्ठ पर 19 जून को प्रकाशित मुख्य लेख) 

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