शुक्रवार, मई 18, 2012

भूमंडलीकरण के रास्ते आया है यह आर्थिक संकट

यह आर्थिक संकट बाहर से आया है लेकिन इसका हल देश के अंदर है  

क्या भारत एक बार फिर १९९१ की तरह के आर्थिक संकट के मुहाने पर खड़ा है? क्या एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की कहानी शुरू होने से पहले ही पटाक्षेप के करीब पहुँच गई है? डालर के मुकाबले गिरते रूपये और लुढ़कते शेयर बाजार के बीच संसद से लेकर गुलाबी अखबारों और चैनलों तक में यही सवाल छाए हुए हैं.
भारतीय अर्थव्यवस्था की डगमगाती स्थिति को लेकर आशंकाओं और घबराहट का माहौल है. हालाँकि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी अपने तईं देशी-विदेशी निवेशकों और बाजार के साथ-साथ देश को अर्थव्यवस्था की सेहत को लेकर आश्वस्त करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन नार्थ ब्लाक से लेकर दलाल स्ट्रीट तक फैली घबराहट किसी से छुपी नहीं है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत का हाल बतानेवाले अधिकांश संकेतक लड़खड़ाते हुए दिख रहे हैं. रूपये और शेयर बाजार के साथ-साथ  औद्योगिक उत्पादन वृद्धि में फिसलन, बढ़ता वित्तीय, व्यापार और चालू खाते का घाटा, जी.डी.पी की गिरती वृद्धि दर और ऊपर चढती महंगाई दर जैसे संकेतकों से साफ़ है कि अर्थव्यवस्था पटरी से उतर रही है.

यह भी सही है कि आंकड़ों में कई संकेतक १९९१ के संकट के करीब पहुँच गए हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि स्थिति चिंताजनक है लेकिन इस आधार पर यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि अर्थव्यवस्था १९९१ के तरह के संकट में फंसने जा रही है या उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की कहानी का पटाक्षेप हो गया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा आर्थिक संकट कई घरेलू और वैदेशिक कारकों का मिलाजुला नतीजा है. इन कारकों में संकट में फंसी वैश्विक अर्थव्यवस्था में बढ़ती अनिश्चितता खासकर यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के गहराते संकट का असर दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहा है.
एक भूमंडलीकृत वैश्विक अर्थव्यवस्था के अभिन्न हिस्से के रूप में भारत भी इसके नकारात्मक प्रभावों से अछूता नहीं है. इस मायने में वित्त मंत्री की यह सफाई एक हद तक सही है कि रूपये औए शेयर बाजार में गिरावट आदि के लिए यूनान सहित यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाओं का संकट जिम्मेदार है.  
लेकिन प्रणब मुखर्जी यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते हैं. पूरा सच यह है कि मौजूदा संकट के लिए सबसे अधिक जवाबदेही आँख मूंदकर आगे बढ़ाई गई नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की है जिसके तहत भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी और उत्पादों के लिए न सिर्फ अधिक से अधिक खोला गया बल्कि उसे वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ने के लिए घरेलू नीतियों को बड़ी विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी के अनुकूल बनाया गया.

स्वाभाविक तौर पर अर्थव्यवस्था के एक हिस्से खासकर घरेलू बड़ी पूंजी को इसका फायदा हुआ है तो प्रतिकूल दौर में इसके बुरे नतीजों को भी भुगतने के लिए तैयार रहना होगा.

यही नहीं, पिछले डेढ़-दो दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था की निर्भरता विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी पर बढ़ती चली गई है. यह निर्भरता इस खतरनाक हद तक बढ़ गई है कि विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए सरकारें उनकी सभी जायज-नाजायज मांगें मानने के लिए मजबूर हो गई हैं.
उदाहरण के लिए, वोडाफोन टैक्स विवाद और आयकर कानून में मौजूद छिद्र को नए बजट में पीछे से संशोधन करके सुधारने या सुप्रीम कोर्ट द्वारा २ जी मामले में १२२ टेलीकाम लाइसेंसों को रद्द करने और अब ट्राई द्वारा उनकी नीलामी के लिए ऊँची रिजर्व कीमत तय करने जैसे हालिया प्रकरणों को लीजिए जिन्हें देश में निवेश का माहौल बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है और जिसे लेकर विदेशी निवेशक और कार्पोरेट्स इतने नाराज बताये जा रहे हैं कि वे न सिर्फ नया निवेश करने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि देश से पूंजी निकाल कर ले जा रहे बताये जा रहे हैं. 
दरअसल, यह एक तरह का भयादोहन है कि अगर आपने बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश नहीं किया तो वे देश छोडकर चले जाएंगे जिससे अर्थव्यवस्था संकट में फंस जाएगी. उदाहरण के लिए रूपये की गिरती कीमत और लड़खड़ाते शेयर बाजार को ही लीजिए. तथ्य यह है कि शेयर बाजार पूरी तरह से बड़े विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) यानी आवारा पूंजी और कुछ बड़े घरेलू निवेशकों के चंगुल में है और वे अपनी मनमर्जी से उसे चढाते-गिराते रहते हैं.

यही कारण है कि शेयर बाजार का मतलब सट्टेबाजी हो गई है. दूसरे, इस आवारा पूंजी को किसी देश की अर्थव्यवस्था से ज्यादा अपने मुनाफे की चिंता होती है. नतीजा यह कि जब तक उसे भारतीय बाजारों में मुनाफा दिखता है, आवारा पूंजी का प्रवाह बना रहता है. बाजार अकारण और अतार्किक ढंग से चढ़ता रहता है. उसके साथ आनेवाले डालर के कारण रूपये की कीमत भी चढती रहती है.

लेकिन जैसे ही घरेलू या वैदेशिक माहौल बदलता या बिगड़ता है, आवारा पूंजी को सुरक्षित ठिकाने की खोज में देश छोड़ने में देर नहीं लगती है. यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि यह स्थिति भी अर्थव्यवस्था के लिए अलग तरह के संकट खड़ा कर देती है. साल-डेढ़ साल पहले तक सरकार रूपये की बढ़ती कीमत और विदेशी मुद्रा के भारी भण्डार के कारण पैदा होनेवाली समस्याओं के कारण परेशान थी.
यहाँ तक कि उसने डालर खपाने के लिए विदेशों में डालर ले जाने के नियम ढीले कर दिए. इसका उल्टा असर अब दिखाई पड़ रहा है. इस बीच, कुछ हद तक वैदेशिक और कुछ अपनी मनमाफिक नीतियों और फैसलों के न होने के कारण विदेशी पूंजी देश से निकल रही है. इससे शेयर बाजार के साथ रूपये की कीमत भी गिर रही है और अर्थव्यवस्था संकट में फंसती हुई दिख रही है.

इसके साथ ही यह भी सच है कि देशी-विदेशी निवेशक मौजूदा संकट का फायदा उठाने में लगे हैं. शेयर और मुद्रा बाजार में जमकर सट्टेबाजी हो रही है. एफ.आई.आई से लेकर बड़े निजी देशी-विदेशी बैंक/वित्तीय संस्थाएं और कार्पोरेट्स से लेकर निर्यातकों तक सभी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं और वित्त मंत्रालय से लेकर रिजर्व बैंक तक इसलिए हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं कि बाजार में हस्तक्षेप से गलत सन्देश जाएगा और बाजार को अपना काम करने देना चाहिए.
लेकिन यह जानते हुए भी कि बाजार में सट्टेबाजी चल रही है और खुलकर मैनिपुलेशन हो रहा है, सरकार का अनिर्णय हैरान करनेवाला है. सच पूछिए तो असली ‘नीतिगत लकवा’ यह है जहाँ सरकार जानते-समझते हुए भी सट्टेबाजों के खिलाफ कार्रवाई करने में घबराती है.                             
लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के समर्थक मौजूदा संकट के लिए यू.पी.ए सरकार के अनिर्णय और कथित ‘नीतिगत लकवे’ को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. वे सरकार पर दबाव बना रहे हैं कि वह न सिर्फ आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाये बल्कि आमलोगों पर बोझ बढ़ानेवाले कड़े फैसले करे.
सवाल यह है कि क्या भारत एक ‘बनाना रिपब्लिक’ है जहाँ विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स जो चाहे करें और सरकार चुपचाप देखती रहे? दूसरे, क्या देश को निवेश खासकर विदेशी निवेश को आकर्षित करने के नाम हर कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए? यहाँ तक कि आमलोगों खासकर गरीबों-आदिवासियों के हितों से लेकर पर्यावरण तक को कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए?
ये सवाल बहुत जरूरी और महत्वपूर्ण हैं. इन्हें अनदेखा करके संकट से निपटने के नाम पर विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को और रियायतें देने का एक ही नतीजा होगा- और बड़े संकट को निमंत्रण. सच पूछिए तो मौजूदा संकट उतना बड़ा संकट नहीं है जितना बढ़ा-चढ़ाकर गुलाबी मीडिया बता रहा है.
यह सिर्फ देश में बड़े आर्थिक संकट का डर दिखाकर और घबराहट का माहौल बनाकर अपने मनमाफिक नीतियां बनवाने और फैसले करवाने की कोशिश है. इस समय जरूरत कड़े फैसलों और किफायतशारी (आस्ट्रीटी) के नाम पर लोगों पर और बोझ डालने के बजाय देश के अंदर अपने संसाधनों के बेहतर और प्रभावी इस्तेमाल के जरिये घरेलू मांग बढाने और इसके लिए सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की है. इस मायने में यह संकट बाहर से आया है लेकिन इसका हल बाहर नहीं, देश के अंदर खोजा जाना चाहिए.
         
('दैनिक भाष्कर' में आप-एड पृष्ठ पर 18 मई को प्रकाशित लेख)

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