सोमवार, अप्रैल 18, 2011

खेल नहीं युद्ध चाहते हैं चैनल

खेल को खेल रहने दो


कहते हैं कि खेल लोगों, समुदायों और देशों के बीच शांति और मित्रता का माध्यम हैं. ओलम्पिक खेलों के पीछे यही उद्देश्य है. अक्सर जिस खेल भावना की बात होती है, उसका अर्थ भी प्रतिस्पर्द्धा के बावजूद एक दूसरे का सम्मान और मित्रता को बढ़ावा देना है. लेकिन भारतीय खासकर हिंदी समाचार चैनलों की राय इससे बिल्कुल अलग है. इन दिनों जब विश्व कप क्रिकेट का तमाशा पूरे शबाब पर है, चैनलों पर युद्धोन्माद अपने चरम पर पहुंच गया है.

वैसे हिंदी समाचार चैनलों के लिए क्रिकेट पहले भी सिर्फ एक खेल नहीं था. लेकिन विश्व कप सेमीफाइनल में भारत-पाकिस्तान मुकाबले को लेकर जिस तरह का युद्धोन्मादी माहौल बनाया गया, उसने सारी सीमाएं तोड़ दीं. खेल, खेल नहीं रह गया बल्कि वर्चुअल युद्ध में बदल गया.

चैनलों पर इस बहुचर्चित सेमीफाइनल मैच को लेकर जिस तरह की रिपोर्टिंग हुई, पैकेज तैयार हुए और चर्चाएं हुईं, उसमें भाषा और प्रस्तुति खेल की नहीं बल्कि युद्ध की थी.

हालांकि इस खेल में कोई चैनल पीछे नहीं था और चैनलों के बीच खेल को युद्ध घोषित करने का युद्ध सा चल रहा था लेकिन कई ने सभी सीमाएं तोड़ दीं. आज तक जैसे चैनल ने इसे भारत-पाकिस्तान के बीच चौथा महायुद्ध घोषित कर दिया.

इस अर्थ में कि इससे पहले भारत-पाकिस्तान के बीच तीन सैन्य युद्ध हो चुके हैं और मोहाली के मैदान में यह चौथा युद्ध होने जा रहा है. यही नहीं, हद तो यह हो गई कि चैनल ने भारतीय कप्तान धोनी और पाकिस्तानी कप्तान अफरीदी को अपने-अपने देशों की सैनिक यूनिफार्म में खड़ा कर दिया.

इस होड़ में अन्य हिंदी चैनल भी पीछे नहीं रहे. सभी अपने-अपने तरीके से इस युद्धोन्माद को हवा देने में लगे रहे. कोई इसे फाइनल मैच से भी बड़ा बता रहा था तो कोई यह कह रहा था कि सेमीफाइनल में पाकिस्तान को जरूर हराओ, भले फाइनल हार जाओ. इस प्रक्रिया में, चैनलों की भाषा मारकाट की भाषा में बदल गई और उसके साथ चलनेवाले वायस ओवर का स्वर लगातार ऊँचा और तीखा होता चला गया. यही नहीं, वायस ओवर के साथ बजनेवाला संगीत भी युद्धक संगीत में तब्दील हो गया.

चैनलों की कवरेज से ऐसा लग रहा था कि जैसे उनका वश चलता तो वे भारत-पाकिस्तान के बीच वास्तविक युद्ध करा देते लेकिन ऐसा न करा पाने की खीज वे दोनों देशों के बीच क्रिकेट मैच से पूरी कर रहे हैं. हालत यह हो गई कि जी न्यूज पर क्रिकेट के एक विशेष कार्यक्रम में पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी बिशन सिंह बेदी को एंकर से बहस करना पड़ा कि खेल को खेल रहने दीजिए. खेल में एक टीम जीतेगी और एक हारेगी. यह खेल का हिस्सा है. ऐसा मत करिए कि कल लोग हारनेवाली टीम के खिलाडियों के घरों पर पत्थर फेंकने लगें. बेदी का डर अन्यथा नहीं है. ऐसा पहले हो चुका है.

लेकिन चैनलों पर क्रिकेट और खासकर पाकिस्तान से मैच को लेकर जिस तरह का पागलपन हावी था, उसमें तर्क और विवेक की गुंजाइश कहां रह जाती है? आश्चर्य नहीं कि इस युद्धोन्मादी माहौल में अधिकांश हिंदी चैनलों को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की क्रिकेट कूटनीति पसंद नहीं आई.  

यही कारण है कि पाकिस्तान के साथ रिश्तों में जमी बर्फ को पिघलाने के लिए की गई पहल के तौर पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को मोहाली में मैच देखने का न्यौता देने के फैसले पर चैनलों की प्रतिक्रिया न सिर्फ उत्साहजनक नहीं थी बल्कि उनका रूख काफी हद तक आलोचनात्मक था.

नतीजा, चैनलों के युद्धोन्माद ने इस तरह की किसी शांति और दोस्ती की पहल और उससे कुछ निकलने की उम्मीद में पहले ही पलीता लगा दिया था. कहने की जरूरत नहीं है कि खेल के जरिये शांति और दोस्ती की उम्मीदों के परवान चढने के लिए एक अनुकूल माहौल और जनमत अनिवार्य शर्त है.

ऐसा जनमत बनाने में मीडिया की बड़ी भूमिका है. लेकिन ऐसा लगता है कि समाचार चैनलों खासकर हिंदी चैनलों के शब्दकोष में शांति और दोस्ती जैसे शब्द नहीं हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि शांति और दोस्ती की बातें करने से टी.आर.पी नहीं आती है.

इस मामले में उनका एजेंडा बिल्कुल साफ है. चैनलों ने एक तरह से पाकिस्तान को एक दुश्मन देश घोषित कर दिया है. यही नहीं, अगर युद्धोन्माद भड़काने से टी.आर.पी बढ़ती है तो उन्हें युद्धोन्माद भड़काने में जरा भी झिझक नहीं होती. उन्हें इसकी बिल्कुल परवाह नहीं होती कि इसके नतीजे क्या होंगे?

कहने की जरूरत नहीं है कि क्रिकेट की आड़ में इस तरह के अंध राष्ट्रवाद और पाकिस्तान विरोधी युद्धोन्माद से दोनों देशों के रिश्तों को इस हद तक नुकसान पहुंच रहा है कि उसकी भरपाई मुश्किल होती जा रही है. यह दोनों देशों के दूरगामी हितों के लिए न सिर्फ एक बड़ा नुकसान है बल्कि दोनों के लिए घातक है.  

अफसोस की बात यह है कि क्रिकेट ने रिश्तों को बेहतर बनाने का एक मौका दिया था, उसे टी.आर.पी की अंधी होड़ ने बेकार कर दिया. आखिर चैनल और क्या-क्या टी.आर.पी की भेंट चढाएंगे?

('तहलका' के १५ अप्रैल'११ के अंक में प्रकाशित)

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