रविवार, जनवरी 17, 2010

मीडियानामा

सबसे बड़े अखबार का "छोटापन" 
ऐसा लगता है कि देश के सबसे अधिक पाठक संख्यावाले अखबार ने अपनी "लोकप्रियता" की पूरी कीमत वसूलने का फैसला कर लिया है. इसके लिए वह किसी भी हद तक गिरने को तैयार है. मीडिया वेबसाईट "भड़ास-फार-मीडिया" की एक रिपोर्ट के अनुसार अब इस अखबार ने बिहार में पंचायत दर्शिका यानि पंचायत सदस्यों की फोन डायरी छापने के नाम पर ग्राम प्रधानो यानि मुखियाओं से पांच-पांच हज़ार रूपये वसूलने के काम में अपने संपादकीय विभाग का इस्तेमाल करते हुए रिपोर्टरों और स्ट्रिंगरों को लगा दिया है. जो रिपोर्टर/स्ट्रिंगर पैसा वसूलने के लिए तैयार नहीं है, उसे नौकरी से निकालने  की धमकी दी जा रही है. जाहिर है कि मुखियाओं से पैसा वसूलने के लिए उस अख़बार के पत्रकारों को न सिर्फ अपनी संपादकीय स्वतंत्रता से समझौता करना पड़ेगा बल्कि एक ब्लैकमेलर की तरह अखबार का डर दिखाकर पैसा वसूलने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. इस तरह पैसा वसूलने के बाद कौन रिपोर्टर पैसा देनेवाले मुखिया के बारे में ईमानदारी से रिपोर्ट लिख सकेगा?

इस प्रकरण ने साफ कर दिया है कि "पेड न्यूज" यानि पैसा लेकर खबर छापने के लिए कुख्यात हो चुके इस अखबार को प्रेस परिषद् और एडिटर्स गिल्ड से लेकर जाने-माने संपादकों-पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की आलोचनाओं की कोई परवाह नहीं है, पछतावा तो दूर की बात है. इससे यही लगता है कि उसने व्यापक बौद्धिक जनमत को ठेंगा दिखाते हुए अखबार को येन-केन-प्रकारेण पैसा बनाने की मशीन मान लिया है. ऐसा करते हुए उसे किसी पत्रकारीय नैतिकता, आचार संहिता और मूल्यों की परवाह नहीं रह गई है. यह और बात है कि इस अखबार को चलनेवाली कंपनी ने अपनी वेबसाईट पर एक लम्बी चौड़ी आचार संहिता में नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें की हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि अधिक से अधिक मुनाफा बनाने के लिए कंपनी को अपने ही वायदे का ध्यान नहीं रह गया है.

हालांकि इस और ऐसे ही कई दूसरे अखबारों के लिए यह कोई नई बात नहीं है. 80 के दशक में ही ऐसे अधिकांश अखबारों ने अपने रिपोर्टरों/स्ट्रिंगरों को बाकायदा विज्ञापन इक्कठा करने के काम में लगा दिया था. इन रिपोर्टरों/स्ट्रिंगरों को वेतन के बदले विज्ञापन लाने का कमीशन मिलता था. बात वहीँ तक नहीं रुकी. जल्दी ही कई अखबार मालिकों  ने अपने संपादकों-पत्रकारों का इस्तेमाल अपने जायज-नाजायज व्यापार-उद्योग धंधों के लिए लाइजनिंग करने में शुरू कर दिया. पिछले डेढ़ दशक में यह प्रवृत्ति एक महामारी का रूप ले चुकी है और शायद ही कोई मीडिया समूह इसका अपवाद रह गया हो. अखबार या समाचार मीडिया की इसी ताकत से आकर्षित होकर पिछले दशक में जायज-नाजायज धंधे से जुड़े न जाने कितने बिल्डर-व्यापारी-नेता और चिट फंड कंपनियों ने अपना अखबार-चैनल शुरू किया जिसका असली मकसद अपने धंधों के लिए सुरक्षा, समाज में सम्मान और सत्ता से लाइजनिंग करना था और है.

जाहिर है कि ऐसे अखबारों-चैनलों से पैसा लेकर खबर छापने या दबाने की ही अपेक्षा की जा सकती है. हालांकि ऐसा करते हुए वे अपना ही नुकसान कर रहे हैं क्योंकि पाठकों-दर्शकों का विश्वास खोकर वे खुद लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकते हैं. लेकिन मुनाफे की हवस ने उन्हें अँधा बना दिया है. वे अपने तौर तरीकों में बदलाव लाने के लिए तैयार नहीं हैं. लेकिन सोचने की बात यह है कि ऐसे अखबारों-चैनलों के कारण पाठक के बतौर हमे और आपको क्या नुकसान हो रहा है? यह सीधे-सीधे हमारे-आपके जानने के अधिकार का हनन है. एक भ्रष्ट और अनैतिक मीडिया से निकलनेवाली आधी-अधूरी और झूठी सूचनाएं हमें नागरिक के बतौर अपनी भूमिका तार्किक तरीके से निभाने के अयोग्य बना देती हैं. साफ है कि ऐसा मीडिया लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत नहीं कर रहा है बल्कि उसकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहा है.         

6 टिप्‍पणियां:

VOICE OF MAINPURI ने कहा…

एकदम ठीक लिखा सर.अब ये आम बात हो गयी है.और लोकप्रियता गिरने का ये भी एक बढ़ा कारण बन गया है

VOICE OF MAINPURI ने कहा…

एकदम ठीक लिखा सर.अब ये आम बात हो गयी है.और लोकप्रियता गिरने का ये भी एक बढ़ा कारण बन गया है

shyam parmar ने कहा…

आनंद जी,
मीडिया शिक्षण संस्थाओं में अब तक जो कुछ बच्चो को सिखाया जा रहा है, वो कहीं किताबी ना बन कर रह जाए, इसलिए पाठ्यक्रम में तनिक बदलाव कर थोडा आज की हकीकत को भी जोड़ने की जरुरत है, ताकि आने वाली युवा पीढ़ी, इस माहौल के खिलाफ पहले से एकजुट होकर आये... और ये जिम्मेदारी आप जैसे जुझारू लोग ही सम्हालेंगे...
श्याम परमार,

shyam parmar ने कहा…

आनंद जी,
मीडिया शिक्षण संस्थाओं में अब तक जो कुछ बच्चो को सिखाया जा रहा है, वो कहीं किताबी ना बन कर रह जाए, इसलिए पाठ्यक्रम में तनिक बदलाव कर थोडा आज की हकीकत को भी जोड़ने की जरुरत है, ताकि आने वाली युवा पीढ़ी, इस माहौल के खिलाफ पहले से एकजुट होकर आये... और ये जिम्मेदारी आप जैसे जुझारू लोग ही सम्हालेंगे...
श्याम परमार,

बेनामी ने कहा…

it is true dat media has turned into a business bt there r some rules and regulations for business also that must b followed.media is d voice of audience bt now it is just working for profit.such incidents r really stains on whole media.it will decrease its readership.

Praveen ने कहा…

sir, baat yaha khatam nahin hoti. ab akhbaaron ne Readers kom Customers kehna shuru kar diya hai. akhbaar ek product hai aur usko bechne k liye saam-daam-dand-bhed sab kuch kiya jaa raha hai. problem ya hai ki media par koi regulator ki vyavastha nahin ho paa rahi hai. paper aur channel mil kar apni jeb bhar rahe hain aur bholibhaali public har shabd ko brahmastya maan rahi hai. editors guild aur press Council to bina daant ke hai. wo kuch bhi kahe kya fark padta hai?