नए साल में अर्थव्यवस्था को खुशफहमी नहीं सतर्कता चाहिए
नया साल 2010 अर्थव्यवस्था के लिए क्या लेकर आ रहा है? यह एक ऐसा सवाल है जिसपर हर आमो-खास की नज़रें लगी हुई है. कहने की जरूरत नहीं है कि अर्थव्यवस्था से मनमोहन सिंह सरकार को काफी उम्मीदें हैं. उसे विश्वास है कि इस साल अर्थव्यवस्था न सिर्फ पूरी तरह से पटरी पर आ जाएगी बल्कि वैश्विक मंदी से पहले की तेज रफ़्तार पकड़ लेगी. खुद प्रधानमंत्री और उनकी सलाहकार परिषद का मानना है कि बीते साल में वैश्विक मंदी और देश में सूखे के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने जबरदस्त जिजीविषा का परिचय दिया है और चालू वित्तीय वर्ष (2009-10) में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7 प्रतिशत तक पहुंच सकती है. यही नहीं, उनका यह भी मानना है कि अगले दो सालों में अर्थव्यवस्था फिर से ९ प्रतिशत की सुपर सोनिक गति पकड़ लेगी.
तात्पर्य यह कि चिंता की कोई बात नहीं है. जाहिर है कि यह दावा करते हुए यू.पी.ए सरकार न सिर्फ देश को आश्वस्त करने की कोशिश कर रही है कि अर्थव्यवस्था की लगाम और उसका नियंत्रण पूरी तरह से उसके हाथ में है बल्कि अर्थव्यवस्था के प्रबंधन को लेकर अपनी पीठ भी ठोंकने में लगी हुई है. आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के छोटे-बड़े मैनेजर तक देश में और उससे बाहर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में मौजूदा विपरीत परिस्थितियों में भी भारतीय अर्थव्यवस्था की 6.9 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर के मद्देनजर उसके बेहतर प्रबंधन का श्रेय लेते घूम रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर सिर्फ जी.डी.पी की वृद्धि दर के पैमाने पर देखा जाए तो अर्थव्यवस्था ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया है. लेकिन सवाल है कि क्या सिर्फ जी.डी.पी वृद्धि दर को अर्थव्यवस्था की अच्छी सेहत का सूचक माना जा सकता है?
निश्चय ही, नहीं. सच यह है कि अर्थव्यवस्था के कई ऐसे मोर्चे हैं जहां यू.पी.ए सरकार का प्रबंधन न सिर्फ नाकाम रहा बल्कि स्थिति पूरी तरह से उसके नियंत्रण से बाहर दिखी. आसमान छूती महंगाई खासकर खाने-पीने की वस्तुओं और अनाजों-सब्जियों की रिकार्डतोड़ महंगाई पिछले साल भी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी रही और नए साल में भी इस बेकाबू महंगाई पर नियंत्रण पाना एक बड़ी चुनौती बनी रहेगी. कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार पहले ही कह चुके हैं कि रबी की अच्छी फसल आने के बाद ही महंगाई पर कुछ लगाम लग सकेगा. इसका अर्थ यह हुआ कि सब कुछ मौसम के किन्तु-परन्तु पर निर्भर है. अगर अगले तीन-चार महीनों में मौसम ने अपना मिजाज ठीक रखा और रबी की अच्छी पैदावार हुई तो महंगाई कुछ हद तक काबू में आ सकेगी.
यही नहीं, महंगाई के जिन्न को काबू में करने के लिए सिर्फ रबी ही नहीं बल्कि इन्द्र देवता को भी मनाना पड़ेगा. अर्थव्यवस्था के लिए बीते साल की तरह एक बार फिर मानसून की विफलता बहुत भारी पड़ सकती है क्योंकि मौजूदा सरकार सहित अधिकांश सरकारों ने मानसून की विफलताओं से कुछ नहीं सीखा है और न ही उनके पास इससे निपटने की कोई ठोस और दीर्घकालीन योजना और उसे लागू करने की इच्छाशक्ति है. यही कारण है कि यू.पी.ए सरकार निश्चिंत है कि इस साल मानसून अच्छा रहेगा और पटरी पर लौटती अर्थव्यवस्था को इससे और गति मिलेगी. लेकिन साफ तौर पर यह एक जुआ है. सब कुछ मानसून के मिजाज पर निर्भर करता है और उसके बारे में दावे के साथ कोई कुछ नहीं कह सकता है. अगर मानसून इस साल भी गड़बड़ाया तो क्या सरकार के पास इससे निपटने के लिए कोई तैयारी है?
इस साल सरकार के लिए दूसरी सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि जी.डी.पी कि वृद्धि दर को कैसे बनाये रखा जाए? असल में, सरकार एक दुविधा में फंसी हुई है. दुविधा यह है कि वित्तीय घाटे को काबू में रखते हुए उच्च विकास दर कैसे हासिल की जाए? यह दुविधा इसलिए है कि वैश्विक मंदी और देश में सूखे के बावजूद अर्थव्यवस्था में मौजूदा 7 प्रतिशत के लगभग की वृद्धि दर सरकार के भारी-भरकम प्रोत्साहन पैकेजों के कारण संभव हो पाई है. लेकिन करीब दो लाख करोड़ रूपये के प्रोत्साहन पैकेजों और छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के कारण वित्तीय घाटा जी.डी.पी के ६.8 प्रतिशत से ऊपर पहुंच चुका है. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में अटूट आस्था रखनेवालों के लिए यह किसी कुफ्र से काम नहीं है. यही कारण है कि वित्त मंत्री बार-बार कह रहे हैं कि इतना अधिक घाटा अर्थव्यवस्था के दूरगामी स्वास्थ्य के लिए घातक है और इसे लम्बे समय तक जारी नहीं रखा जा सकता है. लेकिन सवाल है कि इन प्रोत्साहन पैकेजों को कब और कैसे वापस लिया जाए?
जाहिर है कि इस मुद्दे पर सरकार में सहमति नहीं है. हालांकि अर्थव्यवस्था के नव उदारवादी मैनेजर इन प्रोत्साहन पैकेजों को जल्दी से जल्दी वापस लेना चाहते हैं लेकिन मुश्किल यह है कि उन्हें भी पता है कि इन्हें वापस लेने पर अर्थव्यवस्था लड़खड़ा सकती है. निश्चय ही इस मामले में सरकार को हड़बड़ी में कोई फैसला करने के बजाय सोच-समझकर फैसला करना चाहिए. हालांकि फैसले की घडी बिलकुल सामने है. वित्त मंत्री को नए बजट में सरकार का रवैया साफ करना होगा. यही नहीं, उन्हें बजट में इस बारे में भी ठोस फैसला करना होगा कि प्रोत्साहन पैकेजों का फायदा कृषि क्षेत्र को कैसे मिले? पिछले साल के सूखे ने कृषि क्षेत्र के लिए भी एक बड़े प्रोत्साहन पैकेज की जरूरत के सवाल को बहुत शिद्दत के साथ उठा दिया है.
साथ ही, नए वर्ष में सरकार को इस सवाल का भी जवाब जरूर तलाशना होगा कि प्रोत्साहन पैकेजों का फायदा उठाकर लाभ बटोर रहा उद्योग जगत इसका लाभ न सिर्फ उपभोक्ताओं तक पहुंचाए बल्कि औद्योगिक वृद्धि दर का लाभ रोजगार के नए अवसरों के रूप में भी सामने आना चाहिए. मंदी के नाम पर पिछले डेढ़ साल में लाखों लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है और अभी भी अर्थव्यवस्था में सुधार और तेजी के दावों के बावजूद रोजगार नहीं बढ़ रहे हैं. विश्लेषकों का कहना है कि यह वास्तव में "रोजगारविहीन वृद्धि" है. यह चिंता की बात है और इस मामले में "सब कुछ ठीक-ठाक है" की पर्दादारी से काम नहीं चलेगा. सरकार को उद्योग जगत को कड़ी से कहना होगा कि अगर उसे प्रोत्साहन पैकेजों का लाभ आगे भी चाहिए तो छंटनी बंद करने के साथ-साथ नई नौकरियां देनी होंगी.
असल में, सरकार को अपनी पीठ ठोंकने और अर्थव्यवस्था को लेकर खुशफहमी पालने के बजाय इस साल अधिक सतर्कता से काम करना होगा. भारतीय अर्थव्यवस्था में इतने फ़ाल्टलाइन हैं कि वह कभी भी लड़खड़ा सकती है. शेयर बाज़ार में एक ऐसी ही फ़ाल्टलाइन को सक्रिय देखा जा सकता है जहां संस्थागत विदेशी निवेशकों (एफ.एफ.आई) के जरिये आ रही आवारा पूंजी ने बीते साल मंदी के बावजूद बाज़ार को 81 फीसदी से अधिक चढ़ा दिया है. हालांकि अर्थव्यवस्था के मैनेजर इससे अत्यंत प्रसन्न हैं लेकिन यह ख़ुशी और निश्चिन्तता घातक हो सकती है.
2 टिप्पणियां:
अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है, देश की विकास दर 8-10 फीसद है, इस तरह का हो हल्ला बहुत मचाया जाता है। हलांकि इस दफा यह सात फीसदी पर ही अटक गई है लेकिन सवाल यह है कि उस विकास दर का फायदा कितने लोगों तक पहुंच पा रहा है? इस अर्थव्यवस्था में कितने लोगों की भागीदारी है? इसी तरह प्रति वयक्ति आय का ढिंढोरा भी पीटा जाता है लेकिन उस प्रति व्यक्ति आय की तस्वीर 20 लोगों की आय के कारण पूरी तरह बदल जाती है। अर्थव्यवस्था ऊंचाइयों को छुए यह अच्छी बात है लेकिन देश के एक बड़े हिस्से को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
sir, Kanpur ki ek kahawat hai, aisa koi saga nahin jisko humne thaga nahin! UPA govt. ka funda bhi blkul aisa hai. GDP 7% ho ya 10% kya fark padta hai. itni tarakki ka benefit aam aadmi tak kyon nahin pahunch paa raha hai. jaisa aapne kaha, berozgari badh rahi hai to phir desh aage kaise badh raha hai? UP jaise state mein crime badh raha hai. nazdeek se analyze karne par ek baat hi samajh aati hai, berozgari. Govt. ke munimon ko ye bi batana chahiye ki GDP mein krishi ki kitni hissedari hai. Service sector k bharose kab tak public ko ullu banayenge. "Annadata" par agar dhyan na diya to aane wali july tak saare bhram toot jaayege.
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