सोमवार, नवंबर 09, 2009

सिर्फ छवि नहीं, विश्वविद्यालयों को चमकाने का उपाय कीजिये

आनंद प्रधान

क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि एक ओर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा में सुधार और बेहतरी की घोषणाएं और दावे कर रहे हैं, उसी समय देश के दो सबसे प्रतिष्ठित और पुराने केंद्रीय विश्वविद्यालयों- अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (ए एम यू ) और शान्तिनिकेतन में छात्र-कर्मचारी असंतोष और आन्दोलन के कारण पढाई ठप्प है। ए एम यू को तो अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिया गया है और छात्रों से हास्टल खाली करा लिए गए हैं. ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ इन दो विश्वविद्यालयों तक सीमित कहानी है बल्कि अधिकांश विश्वविद्यालयों की यही स्थिति है. वहां पढाई के अलावा और सभी कुछ हो रहा है. यहां तक कि कई विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं और कई के खिलाफ जांच जारी है.

दूसरी ओर, कुछ चुनिन्दा विश्वविद्यालयों को छोड़कर अधिकांश विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षा के नाम पर छात्रों के साथ मजाक हो रहा है। इन विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक हालत का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि यू जी सी-नैक की एक रिपोर्ट के मुताबिक 140 विश्वविद्यालयों और साढ़े तीन हजार कालेजों में से सिर्फ 31 फीसदी विश्वविद्यालय और 9 प्रतिशत कालेज ही ए ग्रेड के हैं जबकि बाकी का भगवान मालिक है. यही नहीं, योजना आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के आधे से अधिक विश्वविद्यालयों और 90 फीसदी से अधिक कालेजों से डिग्री लेकर निकालनेवाले छात्र किसी "नौकरी के लायक नहीं' हैं क्योंकि उन्हें उनके विश्वविद्यालयों और कालेजों में जो कथित "शिक्षा" मिली है, उसमे ज्ञान और कौशल नहीं सिर्फ डिग्री मिली है. आप माने या न माने लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि अधिकांश विश्वविद्यालय और कालेज सिर्फ डिग्री बांटने की दुकानें बन गए हैं.

यह सही है कि इसके लिए कपिल सिब्बल सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं हैं। उन्हें अभी मानव संसाधन मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाले कुछ ही महीने गुजरे हैं और ऐसा भी नहीं है कि उनसे पहले के शिक्षामंत्रियों के कार्यकाल में विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक स्थिति इससे कोई बेहतर थी. निश्चय ही, उन्हें उच्च शिक्षा की लगातार बिगड़ती स्थिति में सुधार के लिए पर्याप्त समय और मौका मिलना चाहिए लेकिन यह स्वीकार करते हुए भी इसपर गौर करना जरुरी है कि उन्हें स्थिति की गंभीरता और अपने सामने खड़ी चुनौती का अंदाजा है या नहीं? यही नहीं, यह देखना भी जरुरी है कि वे उच्च शिक्षा क्षेत्र की वास्तविक समस्याओं से किस हद तक वाकिफ हैं और उनके सुधारों की दिशा क्या है?

असल में, जब से कपिल सिब्बल मानव संसाधन विकास मंत्री बने हैं, प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए अपने बयानों और फैसलों के कारण आये दिन सुर्खियों में बने रहते हैं. अपनी इस सक्रियता के कारण उन्हें प्रधानमंत्री से भी शाबासी मिल चुकी है और मीडिया तो उन्हें यू पी ए सरकार के सबसे तेजतर्रार और कामकाजी मंत्रियों में शुमार करता ही है. कहने की जरुरत नहीं है कि कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता के बतौर काम कर चुके श्री सिब्बल को मीडिया में बने रहने की कला अच्छी तरह से आती है. अलबत्ता ये बात और है कि इस बीच कई बार वे अपने बयानों के कारण मुश्किलों में पड़ चुके हैं और उन्हें अपनी कही हुई बातें वापस लेनी पड़ी हैं. इसके बावजूद उनपर कोई खास असर नहीं पड़ा है क्योंकि वे जानते हैं कि काम करने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम करनेवाले मंत्री की छवि बनाना है।

दरअसल, उनके साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है। सच यह है कि उनके बयानों और फैसलों में शोर-शराबा ज्यादा है और वास्तविक अंतर्वस्तु कम. उनका सुर्खियों से जितना प्यार दिखता है, वास्तविक चुनौतियों से निपटने की उनकी तैयारी उतनी ही कमजोर दिखती है. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या कारण है कि यू पी ए सरकार ने धूमधाम से जिन 16 केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना का ऐलान किया, महीनो गुजर जाने के बावजूद उनमें से 11 विश्वविद्यालयों की जमीन तक का पता नहीं है और कई के बारे में तो यह भी पता नहीं है कि वे किस शहर में खुलेंगे. इसी तरह यशपाल समिति की सिफारिशों को आये हुए भी दो महीनो से अधिक गुजर गए लेकिन उनका मंत्रालय चुप्पी मारकर बैठा है.

यहां तक कि उसकी एक सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश पर अमल करने में मंत्रालय की घिग्गी बंधी हुई है कि पिछले कुछ वर्षों में "उदारता"के साथ बांटी गई "सब-स्टैण्डर्ड डीम्ड यूनिवर्सिटी" को तत्काल रद्द किया जाए। हालांकि मंत्रालय द्वारा गठित एक उच्चस्तरीय समिति ने इन शिक्षा की इन निजी दुकानों की जांच-पड़ताल के बाद अपनी रिपोर्ट सिब्बल को सौंप दी है. लेकिन उसपर कारवाई करने और शिक्षा के निजीकरण और बाजारीकरण की प्रक्रिया पर रोक लगाने के बजाय शिक्षा मंत्री इसे और जोरशोर से आगे बढाने में जुटे हुए हैं. असल में, कपिल सिब्बल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे उच्च शिक्षा की सभी समस्याओं का एकमात्र समाधान निजीकरण और बाजारीकरण को मानते हैं.

यही कारण है कि वे मौजूदा विश्वविद्यालयों को और बेहतर बनाने और उनमे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के बजाय बड़े कारपोरेट समूहों के लिए उच्च शिक्षा का क्षेत्र खोलने और विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में आमंत्रित करने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं। कहने कि जरुरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी लगातार तेजी से फ़ैल रहे भारतीय उच्च शिक्षा बाज़ार में घुसाने के लिए बेचैन हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक बारात में शिक्षा का बाज़ार लगभग 20 अरब डालर यानि करीब 10 खरब रुपये से अधिक का है.

लेकिन शिक्षा क्षेत्र को देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए खोलने से पहले शिक्षा मंत्री को उन करीब पौने चार सौ सरकारी विश्वविद्यालयों और दस हजार कालेजों की खस्ताहाल शैक्षणिक स्थिति को सुधारने के लिए गंभीर पहल करनी पड़ेगी जो पिछले दो दशकों की सरकारी उपेक्षा के कारण इस स्थिति में पहुँच गए हैं। आलम यह है कि इन विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षकों-कर्मचारियों के सैकडों पद खाली पड़े हैं, जरुरी शैक्षणिक सुविधाओं जैसे प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों आदि का हाल बदहाल है, क्लास रूम्स और हास्टलों आदि की स्थिति जर्जर हो चुकी है लेकिन उनकी सुध लेनेवाला कोई नहीं है. ऊपर से भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के कारण स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. इन सभी वजहों से परिसरों में निराशा और हताशा का ऐसा माहौल बन गया है कि उसमे पढाई-लिखाई और वह भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर की जैसीकि प्रधानमंत्री चाहते हैं, संभव नहीं है.

ऐसे में जरुरत यह है कि कपिल सिब्बल अपनी छवि चमकाने के बजाय मौजूदा विश्वविद्यालयों और कालेजों की स्थिति सुधारने के लिए परिसरों को न सिर्फ पर्याप्त धन और संसाधन मुहैया कराएं बल्कि उनके संचालन को बेहतर बनाने के लिए कुलपतियों को जवाबदेह, प्रशासन को पारदर्शी और निर्णय लेने की प्रक्रिया को लोकतान्त्रिक बनाएं. क्या यह दोहराने की जरुरत है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में कुछ वर्षों या दशकों पहले तक अपने विशेष शैक्षणिक योगदान के लिए जाने-जानेवाले ए एम यू, बी एच यू, शान्तिनिकेतन, कलकत्ता,लखनऊ, इलाहाबाद, पटना, राजस्थान, सागर और कुमाऊँ जैसे विश्वविद्यालयों की मौजूदा बदहाल स्थिति के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की आपराधिक उपेक्षा और लापरवाही जिम्मेदार रही है. जाहिर है कि इसे ठीक करने के लिए कोई बाहर से नहीं आएगा और न ही इसका इलाज उच्च शिक्षा को निजी क्षेत्र या विदेशी विश्वविद्यालयों को सौंप देना है. कपिल सिब्बल को सबसे पहले इसपर ही ध्यान देना होगा.