गुरुवार, अप्रैल 10, 2008

दाम बांधो, तनख्वाह बांधो...

छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के आने के बाद से एक ओर जहां महंगाई बेकाबू हो गई है वहीं सरकारी कर्मचारियों और खासकर अफसरों ने वेतन में बढ़ोत्तरी की ऐसी-ऐसी मांगें शुरू कर दी है जैसे कुबेर का खजाना खुल गया हो.
 
सब में होड़ लगी है. मीडिया भी पूरी उदारता से इन मांगों को उछाल रहा है. सेना के जवानों खासकर मुखर अफसरों की शिकायत है कि उनकी देशसेवा की अनदेखी की जा रही है. उन्हें आईएएस अफसरों के बराबर तनख्वाह क्यों नहीं दी जा रही है. आईपीएस अफसरों का कहना है कि कानून व्यवस्था वो संभालते हैं लेकिन मजा आईएएस अफसर लूट रहे हैं.
 
ऐसे ही सरकार में काम करने वाले बाकी अफसर भी आयोग की सिफारिशों को धोखा बता रहे हैं. कह रहे हैं कि उन्हें वास्तव में कुछ नहीं मिला है. केवल मीडिया में हल्ला उड़ गया कि बाबुओं की तनख्वाह दोगुना और तिगुना बढ़ गया है.
 
विश्वविद्यालय के शिक्षक यूजीसी के वेतन पैनल का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं लेकिन उनका दावा है कि देश का भविष्य वही बना रहे हैं इसलिए उनकी तनख्वाह को इतना आकर्षक बनाना चाहिए कि प्रतिभाशाली लोग शिक्षक बनने में शर्माए नहीं.
 
देखा-देखी माननीय सांसदों को भी अपनी तनख्वाह की चिंता होने लगी है. ... और प्राइवेट सेक्टर का तो कहना ही क्या..? वहां तो जैसे लक्ष्मी दोनों हाथों से धनवर्षा कर रही हैं. प्राइवेट सेक्टर में मिलने वाली तनख्वाहें आजकल सबके लिए मानदंड बन गई हैं. सरकारी बाबुओं, अफसरों से लेकर सेना के अफसरों और अध्यापकों तक, सभी प्राइवेट सेक्टर के बराबर तनख्वाह की मांग कर रहे हैं.
 
जाहिर है कि प्राइवेट सेक्टर के बराबर तनख्वाह मांगने का मतलब उन लाखों छोटी और मध्यम दर्जे की कंपनियों में काम करने वाले करोड़ों श्रमिकों और कर्मचारियों के बराबर की तनख्वाह मांगना नहीं है बल्कि इसका आशय है कि उनकी तनख्वाहें बहुराष्ट्रीय और बड़ी कंपनियों के टॉप मैनेजरों के बराबर की जाए. सब कॉरपोरेट सेक्टर की चुनिंदा नौकरियों और तनख्वाहों से बराबरी चाहते हैं.
 
जबकि सच यह है कि प्राइवेट सेक्टर में अधिकांश कंपनियों, यहां तक कि बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और टॉप कॉरपोरेट कंपनियों में निचले दर्जे के कर्मचारियों और श्रमिकों का जितना शोषण होता है और जितनी कम तनख्वाह मिलती है, उसकी कोई मिसाल नहीं है. दूर क्या जाना, कुछ बड़े अखबारों और टीवी चैनल की बात छोड़ दीजिए तो बाकी जगहों पर क्या तनख्वाह मिल रही है, वो बताने में भी शर्म आती है.
 
लेकिन बड़ी-बड़ी तनख्वाहों की मांग के इस शोर-शराबे के बीच सवाल यह है कि कितनी तनख्वाह काफी है ? और उसका कोई पैमाना होना चाहिए या नहीं ? प्राइवेट सेक्टर में सीईओ की सैलरी और सुविधाएं को लेकर इन दिनों दुनिया भर में बहस चल रही है. सवाल उट रहा है कि तनख्वाह तय करते हुए किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए.
 
मुझे लगता है कि समय आ गया है जब प्राइवेट सेक्टर के सीईओ और मैनेजरों से लेकर सरकारी अफसरों और कर्मचारियों की तनख्वाहों को इस सीमा में बांधा जाए. इसके बिना देश में बराबरी नहीं, गैर-बराबरी बढ़ रही है.
 
इसका एक तरीका ये हो सकता है कि एक आम भारतीय की मासिक आमदनी और सीईओ से लेकर कैबिनेट सचिव की तनख्वाह के बीच 1:20 या 1:30 या अधिक से अधिक 1:40 का अनुपात तय कर दिया जाए. हालांकि मेरी खुद की राय 1:15 के पक्ष में है. लेकिन अगर ये अव्यावहारिक लगे तो और फॉर्मूलों पर सोचा जा सकता है.
 
खैर, अब अगर एक मजदूर की रोज की न्यूनतम मजदूरी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के तहत 80 रुपए प्रतिदिन यानी मासिक 2,400 रुपए है तो किसी भी सीईओ या सचिव की तनख्वाह 48,000 से लेकर 96,000 तक ही होनी चाहिए.
 
बाकी सब कर्मचारियों और अफसरों की तनख्वाह इसी अनुपात में घटाते हुए इसके नीचे ही होनी चाहिए. जाहिर है कि करोड़ों के पैकेज में खेलने वाले लोगों को ये सुझाव अच्छा नहीं लगेगा.
 
ऐसे में एक रास्ता ये है कि दिहाड़ी मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी इतनी बढ़ाई जाए कि आपकी अधिक सैलरी की मांग उचित लग सके. लेकिन जब तक फार्मूले पर कोई सहमति नहीं होती है तब तक महंगाई यानी दाम बांधने के साथ-साथ तनख्वाह बांधने की मांग करना जरूरी हो गया है. इसके अलावा सीईओ और मैनेजरों के साथ बड़े अफसरों के वेतन पर रोक लगाए बगैर दाम बांधना मुमकिन नहीं है.

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Very good analysis !