मंगलवार, अगस्त 10, 2010

अघोषित आपातकाल की दस्तक

मीडिया और पत्रकारों पर राज्यसत्ता, सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों और माफियाओं के बढ़ते हमले का मकसद सच को दबाना है लेकिन खुद कारपोरेट मीडिया भी सच को छुपाने के लिए कम जिम्मेदार नहीं है


बीते १६ जुलाई को खुद को सांस्कृतिक-सामाजिक संगठन बतानेवाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.आर.एस) से जुड़े सैकड़ों अराजक, गुंडे और लम्पट तत्वों की भीड़ ने समाचार चैनल ‘आजतक’ के दिल्ली स्थित दफ्तर पर हमला बोल दिया और पुलिस की मौजूदगी में जमकर तोड़फोड़ मचाया और पत्रकारों के साथ बदसलूकी की. उनकी नाराजगी की वजह यह थी कि ‘आजतक’ के सहयोगी अंग्रेजी चैनल ‘हेडलाइन्स टुडे’ ने एक स्टिंग आपरेशन के जरिये इस भगवा संगठन के कुछ बड़े नेताओं की हिंदू आतंकवादी संगठनों से सम्बन्ध दिखाने की कोशिश की थी. ठीक इसी दिन, महाराष्ट्र के कोल्हापुर में शिव सेना के गुंडों ने ‘जी मराठी’ चैनल के दफ्तर में घुसकर तोड़फोड़ मचाई और पत्रकारों के साथ मारपीट की. उस समय चैनल पर कर्नाटक-महाराष्ट्र सीमा विवाद पर बहस चल रही थी.


हालांकि चैनलों पर ऐसे हमले नए नहीं हैं और पहले भी, देश के अलग-अलग हिस्सों में चैनलों और उनके पत्रकारों को सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों के अलावा खुद सरकार, पुलिस, माफिया, ठेकेदार और अपराधी नेता निशाना बनाते रहे हैं. लेकिन इन हमलों में नई बात यह है कि ना सिर्फ चैनलों बल्कि समूचे समाचार मीडिया और पत्रकारों को काबू में करने और सच को दबाने की एक बड़ी परियोजना का हिस्सा मालूम होते हैं. निश्चय ही, यह सिर्फ एक संयोग नहीं है कि पिछले कुछ महीनों में समाचार मीडिया और खासकर पत्रकारों पर संगठित हमले बढ़े हैं. हालत किस कदर बदतर हो गए हैं, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इन हमलों के असली योजनाकार न सिर्फ खुलेआम घूम रहे हैं बल्कि इन हमलों को जायज ठहराने में जुटे हुए हैं.

सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि इन हमलों को लेकर केंद्र और राज्य सरकारें न सिर्फ चुप और लापरवाह दिखती हैं बल्कि असली हमलावरों को बचाने की भी कोशिश कर रही हैं. इस मामले में, राजनीतिक दलों की भूमिकाएं भी संदिग्ध हैं. कृपया, उनकी दिखावटी प्रतिक्रियाओं पर मत जाइये. सच यह है कि इन हमलों को उनकी परोक्ष या मौन सहमति हासिल है. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार जिस तरह से समाचार चैनलों को काबू में करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय प्रसारण प्राधिकरण (एन.बी.ए.आई) बनाने की पेशबंदी हो रही है, उससे जाहिर है कि समाचार मीडिया पर सिर्फ शारीरिक हमले ही नहीं बल्कि कानूनी हमले की भी तैयारी हो रही है.

बात यहीं नहीं खत्म हो जाती है. पिछले कुछ महीनों में खासकर आपरेशन ग्रीनहंट की शुरुआत के बाद से जिस तरह से केन्द्रीय गृह मंत्रालय और खुद गृह मंत्री ने कथित तौर पर “नक्सलियों/माओवादियों से सहानुभूति रखनेवाले” पत्रकारों/बुद्धिजीवियों/लेखकों को सार्वजनिक रूप से डराने, धमकाने के अलावा उनके खिलाफ वैचारिक अभियान छेड रखा है, निःसंदेह, वह इसी बड़ी परियोजना का हिस्सा लगता है. यह अभियान किस स्तर तक पहुंच गया है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक ओर छत्तीसगढ़ पुलिस ने मेधा पाटकर जैसी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, प्रो. नंदिनी सुन्दर और अरुंधती राय जैसी बुद्धिजीवी और जावेद इक़बाल जैसे पत्रकार पर खुलेआम यह आरोप लगाया कि उन्होंने एक कांग्रेस नेता की हत्या में शामिल कथित ‘माओवादी नेता’ लिंगाराम को संरक्षण दिया है. हालांकि सच यह था कि लिंगाराम भी एक आदिवासी छात्र हैं जो दिल्ली में रहकर पढाई कर रहे हैं.

दूसरी ओर, सच को दबाने और खामोश करने की इसी परियोजना की अंतिम तार्किक परिणति के बतौर जुलाई के पहले सप्ताह में स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पाण्डेय (हेमंत पाण्डेय) की हत्या एक कथित मुठभेड़ में कर दी गई. उनका अपराध सिर्फ इतना था कि वे भाकपा (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य चेरिकुरी राजकुमार (आजाद) की आंध्र पुलिस द्वारा गिरफ़्तारी के एकमात्र चश्मदीद गवाह थे. निश्चय ही, हेमचन्द्र की मुठभेड़ हत्या उसी सिलसिले की अगली कड़ी है जिसमें देश के अलग-अलग हिस्सों में पत्रकारों-बुद्धिजीवियों को ‘माओवादी’ बताकर गिरफ्तार किया जा रहा है और बिना किसी चार्जशीट के महीनों जेल में बंद रखा जा रहा है. डा. विनायक सेन की माओवादियों से सम्बन्ध रखने के झूठे आरोपों में गिरफ़्तारी और दो साल तक जेल में बंद रखने के साथ जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह उत्तराखंड में प्रशांत राही, उत्तर प्रदेश में सीमा और विश्वविजय आजाद और उडीशा में लक्ष्मण चौधरी जैसे दर्जनों पत्रकारों की गिरफ़्तारी से होता हुआ अब हेमचन्द्र पाण्डेय की हत्या तक पहुंच गया है.

हेमचंद्र की हत्या में एक अघोषित आपातकाल की दस्तक को साफ सुना जा सकता है. इस हत्या और मीडिया और पत्रकारों पर बढ़ते हमलों की तुलना आपातकाल के काले दिनों से करने की वजह यह है कि ये हमले ना सिर्फ बहुत संगठित तरीके से हो रहे हैं बल्कि उन्हें सीधे-सीधे राज्यसत्ता का आशीर्वाद और प्रोत्साहन हासिल है. दूसरे, इन हमलों में उन पत्रकारों को निशाना बनाया जा रहा है जो सरकार-कारपोरेट-माफिया गठजोड़ की प्राकृतिक और खनिज संसाधनों की खुली लूट का पर्दाफाश करने की कोशिश कर रहे हैं या राज्यसत्ता के खिलाफ अपने जायज हकों के लिए लड़ रहे आमलोगों की आवाज़ को उठाने की पहल कर रहे हैं. ये वे पत्रकार/लेखक/बुद्धिजीवी हैं जो शासक वर्गों द्वारा नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के पक्ष में बनाई गई आम सहमति के खिलाफ बोलने और लिखने की जुर्रत कर रहे हैं.

स मायने में हेमचंद्र की नृशंस हत्या को एक टेस्ट केस माना जाना चाहिए. निश्चय ही, इस हत्या को हाल के दिनों में चैनलों और मीडिया के साथ-साथ पत्रकरों पर बढ़ते हमलों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है. लेकिन अफसोस की बात यह है कि मुख्यधारा के मीडिया में चैनलों पर हुए हमलों और हेमचन्द्र पाण्डेय की हत्या को अलग-अलग करके देखा जा रहा है. कहा जाता है कि स्वतंत्रता या आजादी अविभक्त होती है यानी उसे टुकड़ों-टुकड़ों में बांटकर नहीं देखा जा सकता है. यह नहीं हो सकता है कि ‘आजतक’, जी मराठी, स्टार न्यूज, आई.बी.एन-लोकमत आदि चैनलों पर सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों के हमलों और चैनलों पर नियमन के कानूनी अंकुश लगाने की कोशिशों को अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला माना जाए लेकिन हेमचन्द्र पाण्डेय की हत्या और उन जैसे अन्य दर्जनों पत्रकारों को बिना कारण जेल में बंद रखने को अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले के तौर नहीं देखा जाए?

यह कैसे हो सकता है कि चैनलों पर नियमन के नाम पर कानूनी शिकंजा डालकर उनकी आवाज को बंद करने को लोकतंत्र पर हमला माना जाए लेकिन पत्रकारों/बुद्धिजीवियों/लेखकों को माओवादियों से सम्बन्ध रखने के नाम पर गिरफ्तार करने और यहां तक कि उनकी हत्या कर देने का अधिकार देनेवाले छत्तीसगढ़ विशेष कानून, आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट जैसे काले कानूनों को स्वीकार कर लिया जाए? चैनलों पर हमले को निश्चय ही, किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता है लेकिन लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा की यह लड़ाई एकांगी नहीं हो सकती है. चैनलों और मुख्यधारा के मीडिया के साथ-साथ एडिटर्स गिल्ड, एन.बी.ए जैसे अन्य संगठनों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे बड़े और नामी चैनलों के पक्ष में बोलते हुए कश्मीर, मणिपुर, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उडीशा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में छोटे चैनलों औए अख़बारों के पत्रकारों के उत्पीडन के मामलों पर चुप न रहें.

कहने की जरूरत नहीं है कि जो दूसरों की आजादी की हिफाजत नहीं कर सकता है, वह अपनी भी आजादी को नहीं बचा सकता है. अगर चैनलों पर भी यह बात सौ फीसदी लागू होती है. ऐसे में, जो चैनल और समाचार मीडिया हेमचंद्र पाण्डेय के जीवन और अभिव्यक्ति के अधिकार के लिए आवाज नहीं उठा रहे हैं और कहीं न कहीं चेरुकुरी राजकुमार और हेमचन्द्र पाण्डेय की हत्या को दो माओवादियों की हत्या को स्वाभाविक मानकर चुप हैं, वे अपनी आजादी को भी खतरे में डाल रहे हैं. यह सचमुच हैरान करनेवाला है कि इस मामले में बिना किसी अपवाद के लगभग सभी बड़े चैनल और अखबार सरकार और आंध्र पुलिस के दावों पर चुप क्यों हैं? क्या उन्हें सचमुच यह विश्वास है कि आज़ाद और हेम पाण्डेय की आदिलाबाद के जंगलों में चार घंटे की मुठभेड़ के बाद मौत हुई है, जैसाकि आंध्र पुलिस दावा कर रही है?


क्या कारण है कि किसी चैनल या अखबार ने इस मुद्दे पर आंध्र पुलिस के दावों की स्वतंत्र छानबीन करने की कोशिश नहीं की? यहां तक कि सी.आर.पी.एफ पर माओवादियों के हर बड़े-छोटे हमले के बाद छत्तीसगढ़ और बंगाल के सुदूर ग्रामीण अंचलों में कैमरा लेकर दौड़ पड़नेवाले चैनलों ने मुठभेड़ स्थल तक जाने की भी जहमत नहीं उठाई. सच पूछिए तो यह किसी भी एंगल से यह घटना मानवाधिकार हनन की एक बड़ी घटना से लेकर सरकार-माओवादियों के बीच शांति प्रक्रिया को पलीता लगाने की साजिश के रूप में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक खबर थी जिसकी खोजबीन जरूरी थी लेकिन चैनलों और अख़बारों ने उसे ऐसे अनदेखा किया, गोया वह कोई खबर ही नहीं है या उसे छूते ही करंट लग जायेगा. क्या यह किसी काहिली, लापरवाही और नासमझी के कारण हुआ या इसके पीछे कोई और भी गहरा कारण है?

निश्चय ही, यह काहिली, लापरवाही और नासमझी का मामला नहीं लगता है क्योंकि ऐसा होता तो एक-दो, चार-पांच चैनलों तक सीमित होता और कोई न कोई चैनल या अखबार इस मामले की गहराई से पड़ताल करने की कोशिश जरूर करता. लेकिन एक सामूहिक चुप्पी से साफ है कि मामला बहुत गहरा है और इसके पीछे एक सोची-समझी रणनीति है. क्या इसके पीछे गहरे राजनीतिक-वैचारिक कारण नहीं हैं? कारपोरेट मीडिया के व्यवहार से साफ है कि बड़ी पूंजी के स्वामित्ववाले कारपोरेट चैनल भी माओवादियों को न सिर्फ आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं बल्कि कथित माओवादियों या कारपोरेट लूट के विरुद्ध संघर्ष कर रहे आम आदिवासियों के खिलाफ वे केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा छेड़े गए युद्ध- आपरेशन ग्रीनहंट में पुलिस और सी.आर.पी.एफ के साथ कलम और कैमरा लेकर शामिल हो गए हैं.

यह एक त्रासद सच्चाई है कि चैनल इस आत्मघाती युद्ध के निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ और सच्चे समाचारदाता के बजाय एक पार्टी बन गए हैं. यह पत्रकारिता नहीं है. यह देशभक्ति भी नहीं है. यह राष्ट्रहित भी नहीं है. इतिहास गवाह है कि पत्रकारिता सच्चाई को छुपाकर या दबाने में सरकार की मदद करके देशभक्ति या राष्ट्रहित में नहीं काम कर रही है. इसके उलट सच्चाई को सामने लाकर ही वह देश को हकीकत को जानने और उसमें से कोई लोकतान्त्रिक रास्ता निकालने में मदद कर सकती है. ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है. अगर अमेरिका में समाचार मीडिया ने बुश प्रशासन की बातों पर आँख मूंदकर भरोसा करने के बजाय सच्चाई सामने लाने की कोशिश की होती और खुद को सरकार के साथ नत्थी (एम्बेडेड) न किया होता तो अमेरिका, आज इराक और अफगानिस्तान में इस खूनी जंग में नहीं फंसा होता. मीडिया को इतिहास का यह सबक जरूर याद रखना चाहिए कि किसी भी देश और समाज का सच से बड़ा मित्र और कोई नहीं होता है और झूठ से बड़ा कोई दुश्मन नहीं होता है.

झूठ के साथ खड़ा होके मीडिया अपनी साख भी खो रहा है. सरकारें आती-जाती रहती है लेकिन मीडिया ने अपनी साख गवां दी तो उसे हासिल करना बहुत मुश्किल होता है. इसमें किसी को आपति नहीं ही सकती है कि विचार और चर्चा के कार्यक्रमों और पृष्ठों पर चैनल और समाचार मीडिया माओवादी राजनीति और विचार पर सवाल खड़े करें लेकिन खबरों में पक्ष लेने और सच्चाई को दबाने की कीमत उन्हें अपनी विश्वसनीयता चुकाकर देनी पड़ रही है. इस सच्चाई को चैनल जितनी जल्दी समझ जाएं, लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए उतना ही अच्छा होगा. अन्यथा झूठ का साथ देकर वे अपनी आजादी से भी समझौता कर रहे हैं. आखिर झूठ पर खड़ी आजादी कितने दिन टिकी रह सकती है?

(कथादेश, अगस्त'10)

सोमवार, अगस्त 09, 2010

महंगाई की आग में तेल

नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के नशे में डूबी यू.पी.ए सरकार को आमलोगों की नहीं बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों की ज्यादा परवाह है



कमरतोड़ महंगाई के बीच पेट्रोलियम उत्पादों- पेट्रोल, डीजल, किरासिन और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी और उन्हें नियंत्रण मुक्त करने का फैसला करके यू.पी.ए सरकार ने अपना इरादा साफ कर दिया है. वह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने की जल्दी में है. उसकी जल्दी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसे इसकी भी परवाह नहीं है कि उसके फैसलों का महा महंगाई की चक्की में पिस रहे आम लोगों पर क्या पड़ेगा? उल्टे इस मामले में, वह इतनी जल्दी में है कि पिछले पांच-छह सालों की कमी-बेशी को भी पूरा कर देना चाहती है. इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि पिछले कुछ महीनों में यू.पी.ए सरकार ने कई ऐसे आर्थिक फैसले किए हैं जिनका एकमात्र मकसद किसी भी कीमत पर आर्थिक सुधारों की गति को तेज करना है.

असल में, उसे लग रहा है कि आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का इससे बेहतर कोई और मौका नहीं हो सकता है. यू.पी.ए खासकर कांग्रेस नेतृत्व का गणित बिलकुल साफ है. उसे लग रहा है कि अगले आम चुनाव चार साल बाद 2014 में होने हैं यानी राजनीतिक रूप से कोई बड़ा जोखिम नहीं है. इन कड़वे फैसलों के कारण अगर आमलोग नाराज भी हों तो फ़िलहाल सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़नेवाला है. आम चुनाव बहुत दूर हैं और जिन विधानसभाओं (जैसे बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु आदि) के चुनाव अगले आठ-दस महीनों में होने हैं, वहां कांग्रेस का कोई बड़ा राजनीतिक दांव नहीं लगा है. दूसरे, उसे लग रहा है कि इन राज्य विधानसभा चुनावों में महंगाई और पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों के बजाय स्थानीय मुद्दे ज्यादा हावी होंगे और इसके कारण उसे लोगों को ज्यादा जवाब नहीं देना पड़ेगा.


तीसरे, कांग्रेस और यू.पी.ए के राजनीतिक मैनेजरों को यह भी लग रहा है कि विपक्ष न सिर्फ कमजोर है और विभाजित है बल्कि अभी कोई चुनाव नहीं चाहता है. इसलिए न तो सरकार की स्थिरता को कोई खतरा है और न ही लोगों के गुस्से के संगठित होने की उम्मीद है. वजह, विपक्ष अपने विरोध को एक सीमा से आगे ले जाने के लिए भी तैयार नहीं है. वह भी सरकार की तरह अपने राजनीतिक गणित से चल रहा है. जब चुनाव इतने दूर हैं और कोई राजनीतिक फायदा नहीं होना है तो अभी से इतना पसीना क्यों बहाना? यही नहीं, विपक्ष में एन.डी.ए खासकर भाजपा का वास्तव में, इन फैसलों से कोई नीतिगत विरोध भी नहीं है. तथ्य यह है कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का फैसला एन.डी.ए की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 2002 में किया था. आश्चर्य नहीं कि भाजपा पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने की नीति का नहीं बल्कि केवल उसकी टाइमिंग का विरोध कर रही है.


इन्हीं कारणों से यू.पी.ए सरकार को यह लग रहा है कि अगर आर्थिक सुधारों की अगली किस्त को अभी नहीं लागू किया गया तो आनेवाले महीनों में उन्हें लागू करना और भी मुश्किल होता जायेगा. कांग्रेस नेतृत्व की ओर से मनमोहन सिंह सरकार को इन सुधारों को लागू करने के लिए 2010 और हद से हद तक 2011 के शुरूआती महीनों तक समय दिया गया है. इसके बाद, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की उल्टी गिनती शुरू हो जायेगी और वहां कांग्रेस का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. इसीलिए, यू.पी.ए सरकार की जल्दबाजी समझी जा सकती है. यही कारण है कि आर्थिक सुधारों के नशे में डूबी सरकार सुधारों की अगली किस्त को जितनी जल्दी हो लागू करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखना चाहती है.

निश्चय ही, इन आर्थिक सुधारों में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करके बाजार के हवाले करने का फैसला सबसे कठिन था. राजनीतिक रूप से यह फैसला बहुत ज्वलनशील था क्योंकि महंगाई आसमान छू रही है और ऐसे समय में, पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें बढ़ाने का मतलब था कि महंगाई की आग में तेल डालना. कारण यह कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोत्तरी का असर सभी वस्तुओं, उत्पादों और सेवाओं की कीमतों पर पड़ता है क्योंकि इन सभी के उत्पादन और संचालन में पेट्रोलियम उत्पादों का इस्तेमाल होता है. कहने की जरूरत नहीं है कि कोई भी और सरकार होती जिसे थोड़ी भी आमलोगों की चिंता होती तो वह यह फैसला अभी नहीं करती.


इसकी वजहें बिलकुल साफ है. पिछले सालभर से अधिक समय से महंगाई अपने चरम पर है और सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि सरकारी घोषणाओं के बावजूद वह नीचे नहीं आ रही है. दूसरे, यह महंगाई जो शुरू में खाद्य वस्तुओं की महंगाई के रूप में लोगों का जीना दूभर किए हुए थी, वह पिछले कुछ महीनों से सभी वस्तुओं और सेवाओं तक फ़ैल गई है. आश्चर्य नहीं कि पिछले कई महीनों से जहां खाद्य वस्तुओं की थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर 17 प्रतिशत से ऊपर चल रही है, वहीँ पिछले चार महीनों से सभी वस्तुओं की थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर लगातार 10 फीसदी से ऊपर बनी हुई है. हालांकि महंगाई के ये आंकड़े एक रिकार्ड हैं लेकिन फिर भी ये असलियत से काफी दूर हैं. याद रहे कि थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर वास्तविक महंगाई का आईना नहीं है क्योंकि थोक और खुदरा मूल्यों के बीच काफी फासला होता है. यह फासला सरकारी नीतियों और बेरुखी के कारण हाल के महीनों में काफी बढ़ गया है.


लेकिन एक आम उपभोक्ता को खुदरा मूल्य ही चुकाना पड़ता है. हाल के महीनों में खुदरा मूल्यों के मामले में महंगाई ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. खुदरा मूल्यों के मामले में खाद्यान्नों से लेकर सब्जियों तक आम आदमी की दैनिक जरूरत की सभी चीजों की कीमतों में आग लगी हुई है. यह इसलिए और भी अधिक चुभती है क्योंकि देश में 90 फीसदी से अधिक श्रमिकों की मजदूरी में महंगाई के मुताबिक वृद्धि नहीं होती है और न ही उन्हें सरकारी कर्मचारियों की तरह महंगाई भत्ता मिलता है. इस मायने में, महंगाई गरीब किसानों और मजदूरों के लिए टैक्स की तरह है. महंगाई के कारण उनकी मजदूरी वास्तव में घट जाती है. इस तरह से, आमलोगों के लिए यह महंगाई की दोहरी मार है. याद रहे कि आर्थिक मंदी का बहाना बनाकर पिछले दो सालों से अधिकांश औद्योगिक इकाइयों में पहले तो श्रमिकों की बड़े पैमाने पर छंटनी हुई और बाकी के वेतन में कोई वृद्धि नहीं हुई है.


लेकिन आम आदमी की दुहाई देनेवाली यू.पी.ए सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने का फैसला करने से पहले उसके बारे में नहीं, पेट्रोलियम कंपनियों के घाटे को कम करने और उन्हें डूबने से बचाने के बारे में ज्यादा सोचा. हालांकि सच्चाई यह है कि यह फैसला सरकारी तेल कंपनियों के घाटे को कम करने के लिए नहीं बल्कि रिलायंस, एस्सार जैसी देशी तेल कंपनियों का मुनाफा बढ़ाने और विदेशी तेल कंपनियों के लिए दरवाजे खोलने के लिए उठाया है. सरकार की सोच का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ठीक उसी समय जब ग्रामीण विकास मंत्रालय ने नरेगा के तहत मिलनेवाले काम के दिनों को बढ़ाकर 200 दिन करने और न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाने का प्रस्ताव भेजा तो उसे ठुकराने में वित्त मंत्रालय को जरा भी सोचने की जरूरत महसूस नहीं हुई.


जाहिर है कि आनेवाले महीनों में महंगाई का कहर और बढ़ेगा. आमलोगों की तकलीफें बढेंगी. लेकिन लगता नहीं है कि यू.पी.ए सरकार को इसकी परवाह है. वह अपने फैसले से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं दिख रही है. हालांकि भारत बंद की भारी सफलता और आमलोगों के बढ़ते गुस्से के कारण सरकार पर राजनीतिक दबाव बढ़ा है लेकिन वह फ़िलहाल पीछे हटने के मूड में नहीं दिख रही है. उसने मन बनाया हुआ है और पुनर्विचार के कोई संकेत नहीं हैं. उल्टे खुद प्रधानमंत्री ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने के फैसले की जोरदार वकालत करते हुए कहा है कि जल्दी ही डीजल को भी नियंत्रण मुक्त कर दिया जायेगा. उनका तो यहां तक कहना है कि यह फैसला बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था. यानी पहले वामपंथी दलों का दबाव और फिर पिछले साल के आम चुनाव और बाद में, महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव नहीं रहे होते तो यह फैसला और भी पहले हो गया होता.


इससे यू.पी.ए सरकार की उस नव उदारवादी आर्थिक सोच का पता चलता है जो बाजार में आँख मूंदकर भरोसा करती है और मानती है कि पेट्रोलियम उत्पादों सहित ऐसी सभी वस्तुओं, उत्पादों और सेवाओं को बाजार के हवाले कर दिया जाना चाहिए. उनकी कीमतें बाजार को तय करने देना चाहिए और उनके लिए सब्सिडी बिल्कुल नहीं मिलनी चाहिए. जैसाकि मनमोहन सरकार के सबसे प्रमुख आर्थिक मैनेजर मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कहा भी है कि पेट्रोल-डीजल पर सब्सिडी बिल्कुल नहीं दिया जाना चाहिए. आश्चर्य नहीं कि सरकार की इस घोषित नीति के मुताबिक ही कृषि मंत्री शरद पवार ने चीनी उद्योग और उसकी कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने की इच्छा जाहिर कर दी है. अगले कुछ सप्ताहों में चीनी को नियंत्रण मुक्त करने का फैसला हो जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए. बहरहाल, अभी सिर्फ पेट्रोल को नियंत्रण मुक्त किया गया है जबकि सरकार का दावा है कि डीजल, किरोसिन और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि के बावजूद उनपर भारी सब्सिडी जारी है. मुरली देवड़ा का दावा है कि इसके कारण कीमतों में बढ़ोत्तरी के बावजूद इस साल सरकारी तेल कंपनियों को 53 हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ेगा.


इस सिलसिले में, प्रधानमंत्री के बयान से साफ है कि जल्दी ही डीजल को भी नियंत्रण मुक्त कर दिया जायेगा. प्रधानमंत्री का तर्क है कि यह फैसला देश हित में है. उनका और पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा का कहना है कि सरकार के पास इस फैसले के अलावा और कोई चारा नहीं था क्योंकि अगर यह फैसला नहीं किया गया होता तो सरकारी तेल कंपनियां दिवालिया हो जातीं. लेकिन सच्चाई ठीक इसके उलट है. असल में, इसके लिए यू.पी.ए सरकार पर मुकेश अम्बानी के रिलायंस, रुइया के एस्सार और अन्य देशी-विदेशी कंपनियों का भारी दबाव है. ये सभी कम्पनियां पेट्रोलियम उत्पादों खासकर पेट्रोल और डीजल के खुदरा कारोबार में जोरशोर से उतरना चाहती हैं. उल्लेखनीय है कि रिलायंस और एस्सार ने 2002 में एन.डी.ए सरकार द्वारा पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने के बाद देश के कई हिस्सों में सैकड़ों की संख्या में पेट्रोल पम्प खोले थे लेकिन पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के बाद फिर से कीमतों पर नियंत्रण लागू कर दिए जाने के कारण उन्हें अपने पेट्रोल पम्प बंद करने पड़े थे क्योंकि उनके मुनाफे का मार्जिन घट गया था. अब एक बार फिर ये कंपनियां अपने उन बंद पड़े पेट्रोल पम्पों और नए पम्प खोलने की तैयारी में जुट गई हैं.


साफ है कि इस फैसले से किसे सबसे अधिक फायदा होने जा रहा है? शेयर बाजार में इन निजी तेल कंपनियों के शेयरों में उछाल से भी यह स्पष्ट है कि और अधिक मुनाफे की उम्मीद में देशी-विदेशी निवेशक इन कंपनियों में निवेश कर रहे हैं. ध्यान रहे कि दिवालिया होने के सरकारी दावों के विपरीत सरकारी और निजी तेल कंपनियों बिना किसी अपवाद के साल दर साल भारी मुनाफा कमा रही हैं. अगर उनके पिछले दस साल के वित्तीय प्रदर्शन को देखा जाए तो वे हर साल मोटा मुनाफा बना रही हैं. कुछ बड़ी सरकारी और रिलायंस जैसी निजी तेल कंपनियों का मुनाफा तो हजारों करोड़ रूपयों में है. उदाहरण के लिए, बीते वित्तीय वर्ष 2009-10 में सरकारी तेल कंपनी इंडियन आयल को 10998 करोड़ रूपये, ओ.एन.जी.सी को 16768 करोड़ रूपये और निजी क्षेत्र की रिलायंस को 16236 करोड़ रूपये का शुद्ध मुनाफा हुआ.


इससे एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाती है कि यू.पी.ए सरकार की नजर में देशहित का अर्थ क्या है? सच यह है कि उसके लिए देशहित का मतलब आमलोगों से ज्यादा कंपनियों का हित है. इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए, अगर आमलोगों की कीमत पर आनेवाले महीनों में पट्रोलियम उत्पादों की तरह ही चीनी को भी पूरी तरह नियंत्रण मुक्त कर दिया जाए. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार खुदरा व्यापार को भी विदेशी पूंजी के लिए खोलने का मन बना चुकी है. उसके लिए भी बहाना आमलोगों को महंगाई से मुक्ति दिलाने का बनाया जायेगा. प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री कई बार दोहरा चुके हैं कि मौजूदा महंगाई के पीछे बिचौलिए और खुदरा व्यापारी जिम्मेदार हैं और उनसे मुक्ति दिलाने के लिए खुदरा व्यापार के क्षेत्र में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों को लाना जरूरी हो गया है. इसी तरह, आनेवाले महीनों में वित्तीय क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए और खोलने के अलावा सरकारी कंपनियों को बेचने की गति भी तेज होगी.
(जनमत, अगस्त'10)

रविवार, अगस्त 08, 2010

क्यों बेचैन है यू.पी.ए सरकार, खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को बुलाने के लिए?

यू.पी.ए सरकार खुदरा व्यापार को विदेशी निवेश के लिए खोलने की तैयारी कर रही है. इस सिलसिले में उद्योग और वाणिज्य मंत्रालय के औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग ने हाल ही में एक चर्चा पत्र जारी करके लोगों से राय मांगी है कि खुदरा व्यापार को विदेशी निवेश के लिए खोला जाना चाहिए या नहीं? लेकिन यह सिर्फ एक दिखावा भर है. इस मुद्दे पर चर्चा और विचार-विमर्श को सिर्फ आड़ की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. यू.पी.ए सरकार अपना मन बना चुकी है. सरकार के आला मंत्रियों और अफसरों के रवैये से साफ है कि खुदरा व्यापार को विदेशी निवेश के लिए खोलने का फैसला अब एक औपचारिकता मात्र है. जब खुद प्रधानमंत्री इसकी वकालत कर रहे हैं तब चर्चा के निष्कर्ष का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है.



असल में, १९९७ में थोक व्यापार (कैश एंड कैरी) में सौ प्रतिशत और २००६ में एकल ब्रांड खुदरा व्यापार में ५१ प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत पहले ही दी जा चुकी है. खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक थोक व्यापार में अब तक लगभग १.७७ अरब डालर (७७७९ करोड़ रूपये) और एकल ब्रांड खुदरा व्यापार में नौ अरब रूपये का एफ.डी.आई आ चुका है. जाहिर है कि इसके बाद तार्किक तौर पर खुदरा व्यापार को खोलने की बारी आती है. यही नहीं, खुदरा व्यापार को विदेशी निवेश के लिए खोलने को लेकर यू.पी.ए सरकार पर बड़ी देशी और विदेशी पूंजी और उसके पैरोकारों का जबरदस्त दबाव है. सरकार पर सी.आई.आई,एसोचैम,फिक्की जैसे बड़े देशी औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों से लेकर यूरोपीय संघ, अमेरिका जैसे देश लगातार दबाव बनाये हुए हैं. यहां तक कि जी-२० की हालिया टोरंटो बैठक के घोषणापत्र में भी व्यापार को और उदार बनाने की प्रतिबद्धता दोहराई गई है.


यह ठीक है कि यह दबाव काफी लंबे समय से पड़ रहा है और पिछले एक दशक में पहले एन.डी.ए और बाद में, यू.पी.ए सरकार ने खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी निवेश के लिए खोलने की कोशिश की लेकिन घरेलू खुदरा व्यापारियों के भारी विरोध और आंतरिक राजनीतिक अंतर्विरोधों के कारण दोनों ही सरकारों को पीछे हटना पड़ा. पिछली बार यू.पी.ए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर अपील की थी कि कोई भी फैसला लेने से पहले खुदरा व्यापार व्यापार पर एफ.डी.आई के असर का अध्ययन होना चाहिए. इसके कारण फैसला कुछ दिनों के लिए टल गया.


लेकिन इससे खुदरा क्षेत्र को खोलने की कोशिशें थमीं नहीं. ताजा कोशिश को उसी सिलसिले की कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए. यू.पी.ए सरकार का दावा है कि खुदरा क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोलने से न सिर्फ काफी विदेशी निवेश आएगा बल्कि प्रतियोगिता बढ़ने से आम उपभोक्ताओं और उत्पादकों को भी फायदा होगा. सरकार का तर्क है कि अभी ‘खेत से खाने की मेज तक’ सीधी सप्लाई चेन न होने से खाद्य वस्तुओं और फलों-सब्जियों की कमी का फायदा बिचौलिए उठा रहे हैं और इसके कारण एक ओर, आम उपभोक्ताओं को अधिक कीमत चुकानी पड़ रही है, दूसरी ओर, किसानों को भी पूरी कीमत नहीं मिल पाती है. सरकार के मुताबिक खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश आने से बिचौलिओं की भूमिका कम होने के कारण यह लाभ होगा.


सरकार को यह भी उम्मीद है कि इस फैसले से कृषि क्षेत्र में भण्डारण खासकर शीत भण्डारण गृहों और खाद्य प्रसंस्करण में नया निवेश आएगा. सरकार के अनुसार पर्याप्त भण्डारण सुविधाओं के अभाव में हर साल लगभग एक खरब रूपये के फल, सब्जियां और खाद्यान्न बर्बाद हो जाते हैं. सरकार के मुताबिक इससे लघु और मध्यम उद्योगों को भी लाभ होगा क्योंकि उन्हें बड़े विदेशी खुदरा व्यापारियों से जुडकर न सिर्फ ब्रांडिंग का फायदा मिलेगा बल्कि विश्व बाजार में भी पहुँचने का मौका मिलेगा. साफ है कि मनमोहन सिंह सरकार खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई को महंगाई से लेकर कृषि और लघु-मध्यम उद्योगों की सभी समस्याओं के हल के रूप में देख रही है.


लेकिन सच्चाई क्या है? पहली बात तो यह है कि खुदरा व्यापार क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का कोई मामूली या आम क्षेत्र नहीं है. यह कृषि के बाद अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील क्षेत्र है. इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जी.डी.पी में खुदरा व्यापार का योगदान लगभग ८ फीसदी के आसपास है लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि इसमें कृषि क्षेत्र के बाद सबसे अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है. एन.एस.एस.ओ के सबसे ताजा सर्वेक्षण (०७-०८) के मुताबिक खुदरा व्यापार में कुल श्रमशक्ति के ७.२ प्रतिशत लोगों यानी कोई ३.३१ करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है. इसका अर्थ यह हुआ कि अगर एक व्यक्ति के परिवार में औसतन ५ सदस्य मानें तो कोई १६ करोड़ से अधिक लोगों की रोजी-रोटी खुदरा व्यापार पर टिकी हुई है.


निश्चय ही, एक ऐसे देश में जहां बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्याओं में से एक हो, वहां यह कोई मामूली बात नहीं है. सिर्फ यह नहीं कि ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी औ भीख निदान’ माननेवाले इस देश में एक पेशे के बतौर व्यापार को कृषि के बाद सबसे आदर का दर्जा हासिल रहा है बल्कि उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि खुदरा व्यापार से अपनी रोजी-रोटी चला रहे लाखों लोग ऐसे हैं जो रोटी-रोजगार के किसी अन्य विकल्प के अभाव में खुद अपनी मेहनत और उद्यमिता से छोटी-मोटी दुकान खोलने से लेकर रेहड़ी-पटरी पर ठेला लगाकर गुजर-बसर कर रहे हैं. इस मायने में खुदरा व्यापार क्षेत्र हमेशा से सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का स्वनिर्मित क्षेत्र रहा है जहां बिना किसी सरकारी सहायता या प्रोत्साहन के लाखों लोगों की आजीविका चलती रही है.


भारतीय अर्थव्यवस्था में खुदरा क्षेत्र के महत्व का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि देश में लगभग १.१० करोड़ से अधिक खुदरा कारोबार करनेवाली दुकानें हैं और इसमें सिर्फ ४ प्रतिशत दुकानें ऐसी हैं जो ५०० वर्ग मीटर से ज्यादा बड़ी हैं. इसके उलट अमेरिका में सिर्फ ९ लाख खुदरा दुकानें हैं जो भारत की तुलना में तेरह गुना बड़े खुदरा बाजार की जरूरतों को पूरा करती हैं. आश्चर्य नहीं कि खुदरा दुकानों की उपलब्धता यानी दुकान घनत्व के मामले भारत दुनिया में पहले स्थान पर है. ए.सी निएल्सन और के.एस.ए टेक्नोपैक के मुताबिक भारत में प्रति हजार व्यक्ति पर ११ खुदरा दुकानें हैं. साफ है कि भारत में खुदरा व्यापार सिर्फ एक आर्थिक गतिविधि या कारोबार भर नहीं है बल्कि यह करोड़ों लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है.


सवाल है कि अगर खुदरा व्यापार के क्षेत्र में एफ.डी.आई की अनुमति दी गई तो उसका घरेलू असंगठित खुदरा व्यापारियों पर क्या असर पड़ेगा? इसमें शक है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की संगठित ताकत के आगे एक असमान प्रतियोगिता में अधिकतर छोटे खुदरा व्यापारी टिक पाएंगे. अधिक आशंका यही है कि उनमें से अधिकांश धीरे-धीरे कारोबार से बाहर हो जायेंगे. इसका अर्थ यह होगा कि करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी संकट में पड़ जायेगी क्योंकि उनके पास आजीविका का और कोई वैकल्पिक साधन नहीं होगा. यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा खतरा नहीं है. इसके संकेत मिलने लगे हैं. अभी ही उन शहरों में जहां देशी बड़ी पूंजी ने खुदरा व्यापार में घुसपैठ की है और जिन इलाकों में बड़े शापिंग माल्स से लेकर सुपर स्टोर्स खोले हैं, वहां आसपास की छोटी दुकानों की बिक्री पर नकारात्मक असर पड़ा है, अधिकांश दुकानों का मुनाफा घटा है जबकि कई बंद हो गईं या होने के कगार पर पहुंच गईं हैं.


ऐसा इसलिए हो रहा है कि बड़े माल्स और सुपर स्टोर्स ग्राहकों को खींचने के लिए मार्केटिंग के सभी तौर-तरीकों के अलावा कीमत युद्ध (प्राइस वार) का भी खुलकर इस्तेमाल कर रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि छोटे दुकानदारों को प्रतियोगिता से बाहर करने के लिए बड़ी पूंजी लंबे समय तक घाटा उठा सकती है लेकिन एक छोटा-मंझोला यहां तक कि बड़ा दुकानदार भी इस प्रतिस्पर्धा में लंबे समय तक घाटा उठाने की स्थिति में नहीं है. असल में, दोनों में कोई प्रतियोगिता है ही नहीं. कल्पना कीजिये कि जब वाल मार्ट, टेस्को, कारफोर जैसी दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुदरा व्यापार में आने की इजाजत मिल जायेगी तो क्या होगा? उदाहरण के लिए वाल मार्ट को ही लीजिए जो भारत में आने के लिए अत्यधिक बेचैन है और भारती के साथ थोक यानी कैश एंड कैरी व्यापार में पहले से ही सक्रिय है.


वाल मार्ट न सिर्फ अमेरिका की सबसे बड़ी कंपनी है बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी खुदरा कारोबार करनेवाली कंपनी है. वर्ष २००९ में उसका सालाना कारोबार ४०८ अरब डालर का रहा जबकि उसका शुद्ध मुनाफा १४.३३ अरब डालर (६८७ अरब रूपये) था. वाल मार्ट की कुल परिसंपत्तियां लगभग १७०.७० अरब डालर की हैं. अब ऐसी कंपनी भारत में खुदरा कारोबार में आती है तो उसके आगे छोटे-मंझोले और बड़े दुकानदारों का टिकना तो दूर की बात है, यहां तक कि खुदरा व्यापार में सक्रिय अम्बानी, बिरला, गोयनका, बियानी जैसे बड़े भारतीय उद्योगपतियों के लिए भी अत्यधिक मुश्किल होगा. शायद यही कारण है कि अधिकांश बड़े देशी उद्योगपति खुदरा व्यापार में अकेले नहीं बल्कि किसी बड़ी विदेशी खुदरा कारोबारी कंपनी की पीठ पर बैठकर घुसना चाहते हैं. इसीलिए वे जोरशोर से खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई की वकालत कर रहे हैं.


वाल मार्ट जैसी कंपनियों के खुदरा व्यापार में आने का क्या असर हो सकता है, इसका अंदाज़ा इस अमेरिकी अध्ययन से लगाया जा सकता है जिसके मुताबिक जिन भी छोटे-बड़े शहरों में वाल मार्ट स्टोर खुले, वहां अगले दस वर्षों में आधे से अधिक खुदरा व्यापार पर वाल मार्ट का कब्ज़ा हो गया. खाद्य व्यापार पर वाल मार्ट जैसे स्टोर्स के खतरनाक प्रभाव पर अपने महत्वपूर्ण काम के लिए चर्चित डा. राज पटेल के मुताबिक अमेरिका के नेब्रास्का में हुए एक अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि वहां अलग-अलग इलाकों में दो वाल मार्ट स्टोर्स खुले जिसमें पहले में हद से ज्यादा सस्ती कीमतें थीं जबकि दूसरे में, उपभोक्ताओं को सामान्य से १७ प्रतिशत अधिक कीमत देनी पड़ी क्योंकि तब तक उससे प्रतियोगिता में कोई नहीं रह गया था. साफ है कि यह एक भ्रम है कि खुदरा व्यापार में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के आने से उपभोक्ताओं को सस्ती वस्तुएँ मिलेंगी.


यही नहीं, यह दावा भी तथ्यों से परे है कि खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई आने से बिचौलिए खत्म हो जायेंगे. सच यह है कि मौजूदा बिचौलियों के खत्म हो जाने के बाद उनकी जगह मैनेजमेंट स्कूल में पढ़े और मोटी तनख्वाह लेनेवाले नए बिचौलिए आ जाएंगे जिनकी ऊँची तनख्वाहों का बोझ आखिरकार आम उपभोक्ताओं को ही उठाना पड़ेगा. साथ ही, सरकार का यह दावा थोथा है कि खुदरा कारोबार में इन बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के आने से उत्पादकों और उपभोक्ताओं दोनों को ही फायदा होगा. हकीकत इसके उलट है. एक बार खुदरा बाज़ार से प्रतियोगिता के खत्म होने और बाज़ार में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के एकाधिकार स्थापित होने के बाद उत्पादकों यानी किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को ही इन बड़ी कंपनियों की दया पर निर्भर रहना पड़ेगा.


जाहिर है कि इससे खतरनाक स्थिति और नहीं हो सकती है. उस स्थिति में, सरकार उपभोक्ताओं या उत्पादकों की मदद के लिए आगे आएगी, इसकी उम्मीद करना बेकार है. आखिर बाज़ार को खुदा माननेवाली सरकार बाज़ार के कामकाज में हस्तक्षेप कैसे कर सकती है? सवाल है कि खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के लिए बेचैन यू.पी.ए सरकार ने क्या इन पहलुओं पर भी विचार करेगी?

(जनसत्ता, अगस्त'१०)

रविवार, मई 16, 2010

अपराध रिपोर्टिंग का “अपराध”

समाचार चैनलों में अपराध की खबरों को लेकर एक अतिरिक्त उत्साह दिखाई पड़ता है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों पर अपराध की खबरों को काफी जगह मिलती है. हिंदी के अधिकांश समाचार चैनलों पर अपराध के विशेष कार्यक्रम भी दिखाए जाते हैं. लेकिन अगर अपराध की वह खबर शहरी-मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि से हो और उसमें सामाजिक रिश्तों और भावनाओं का एक एंगल भी हो तो चैनलों की दिलचस्पी देखते ही बनती है. चैनलों के मौजूदा ढांचे में यह काफी हद तक स्वाभाविक भी है. अपराध की खबरों के प्रति चैनलों के अतिरिक्त आकर्षण को देखते हुए ऐसी खबरों में अतिरिक्त दिलचस्पी में कोई बुराई नहीं है बशर्ते चैनल उसे रिपोर्ट करते हुए पत्रकारिता और रिपोर्टिंग के बुनियादी उसूलों और नियमों का ईमानदारी से पालन करें.


लेकिन दिक्कत तब शुरू होती है जब चैनल ऐसी खबरों को ना सिर्फ अतिरिक्त रूप से मसालेदार और सनसनीखेज बनाकर बल्कि खूब बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने लगते हैं. यही नहीं, एक-दूसरे से आगे रहने की होड़ में वे रिपोर्टिंग के बहुत बुनियादी नियमों और उसूलों की भी परवाह नहीं करते हैं. इस प्रक्रिया में उनके अपराध संवाददाता पुलिस के प्रवक्ता बन जाते हैं. वे पुलिस की आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग के आधार पर ऐसी-ऐसी बे-सिरपैर की कहानियां गढ़ने लगते हैं कि तथ्य और गल्प के बीच का भेद मिट जाता है. क्राईम स्टोरीज खबर कम और ‘स्टोरी’ अधिक लगने लगती हैं. चैनलों और उनके रिपोर्टरों का सारा जोर तथ्यों से अधिक कहानी गढ़ने पर लगने लगता है.


सचमुच, इस मायने में चैनलों का कोई जवाब नहीं है. सबसे ताजा मामला दिल्ली की युवा पत्रकार निरुपमा पाठक की मौत का है. निरुपमा अपने एक सहपाठी और युवा पत्रकार प्रियभांशु रंजन से प्रेम करती थीं और दोनों शादी करना चाहते थे. लेकिन निरुपमा के घरवालों को यह मंजूर नहीं था. निरुपमा की २९ अप्रैल को अपने गृहनगर तिलैया (झारखण्ड) में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी जो बाद में पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ‘हत्या’ निकली. इसे स्वाभाविक तौर पर “आनर किलिंग” का मामला माना गया जिसने निरुपमा के सहपाठियों, सहकर्मियों, शिक्षकों के अलावा बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और महिला-छात्र संगठनों को आंदोलित कर दिया.


हालांकि उसके बाद पूरे मामले में कोडरमा पुलिस की लापरवाही और राजनीतिक दबावों में काम करने के कारण पुलिस जांच ना सिर्फ सुस्त गति से चल रही है बल्कि पूरी जांच को भटकाने/बिगाडने की कोशिश की जा रही है. ऊपर से हत्या के आरोप में जेल में बंद निरुपमा की माँ के परिवाद पर स्थानीय कोर्ट के इस निर्देश के कारण मामला और पेचीदा हो गया है कि पुलिस निरुपमा के दोस्त प्रियभांशु पर रेप, धोखा, आत्महत्या के लिए उकसाने जैसे संगीन आरोपों में मामला दर्ज करके जांच करे.


स्वाभाविक तौर पर अधिकांश चैनलों ने निरुपमा मामले को जोरशोर से उठाया. हालांकि अधिकांश चैनलों की नींद निरुपमा की मौत के चार दिन बाद तब खुली जब पोस्टमार्टम रिपोर्ट में हत्या की बात सामने आने के बाद एन.डी.टी.वी और इंडियन एक्सप्रेस ने इसे प्रमुखता से उठाया. ऐसा नहीं है कि चैनलों के रिपोर्टरों को घटना की जानकारी नहीं थी. निरुपमा देश के सबसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान की छात्रा रही थी. इस संस्थान के छात्र सभी चैनलों और अखबारों में हैं. निरुपमा और प्रियाभांशु के दोस्तों ने बहुतेरे चैनलों/अखबारों को निरुपमा की संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत के बारे में बताया था लेकिन किसी ने कोई खास दिलचस्पी नहीं ली.


असल में, चैनलों के साथ एक अजीब बात यह भी है कि जब तक किसी खबर को उसके पूरे पर्सपेक्टिव के साथ दिल्ली का कोई बड़ा अंग्रेजी अखबार जैसे इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स आफ इंडिया, एच.टी या हिंदू अपने पहले पन्ने की स्टोरी नहीं बनाते हैं, चैनल आमतौर पर उस खबर को छूते नहीं हैं या आम रूटीन की खबर की तरह ट्रीट करते हैं. लेकिन जैसे ही वह खबर इन अंग्रेजी अख़बारों के पहले पन्ने पर आ जाती है, चैनल बिलकुल हाइपर हो जाते हैं. चैनलों में एक और प्रवृत्ति यह है कि अधिकांश समाचार चैनल किसी खबर को पूरा महत्व तब देते हैं, जब कोई बड़ा और टी.आर.पी की दौड़ में आगे चैनल उसे उछालने लग जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि चैनलों की यह भेड़चाल अब किसी से छुपी नहीं राह गई है.



निरुपमा के मामले भी यह भेड़चाल साफ दिखाई दी. पहले तो चैनलों ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट, निरुपमा के पिता की चिट्ठी, निरुपमा के एस.एम.एस और प्रियाभांशु के बयानों के आधार पर इसे ‘आनर किलिंग’ के मामले के बतौर ही उठाया लेकिन जल्दी ही कई चैनलों के संपादकों/रिपोर्टरों की नैतिकता और कई तरह की भावनाएं जोर मारने लगीं. खासकर प्रियाभांशु के खिलाफ स्थानीय कोर्ट के निर्देश और पुलिस की आफ द रिकार्ड और सेलेक्टिव ब्रीफिंग ने इन्हें खुलकर खेलने और कहानियां गढ़ने का मौका दे दिया. अपराध संवाददाताओं को और क्या चाहिए? पूरी एकनिष्ठता के साथ वे प्रियाभांशु के खिलाफ पुलिस द्वारा प्रचारित आधे-अधूरे तथ्यों और गढ़ी हुई कहानियों को बिना किसी और स्वतन्त्र स्रोत या कई स्रोतों से पुष्टि किए या क्रास चेक किए तथ्य की तरह पेश करने लगे.


दरअसल, अपराध संवाददाताओं का यह ‘अपराध’ नया नहीं है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर चैनलों और अखबारों में क्राईम रिपोर्टिंग पूरी तरह से पुलिस के हाथों का खिलौना बन गई है. क्राईम रिपोर्टर पुलिस के अलावा और कुछ नहीं देखता है, पुलिस के कहे के अलावा और कुछ नहीं बोलता है और पुलिस के अलावा और किसी की नहीं सुनता है. सबसे अधिक आपत्तिजनक बात यह है कि अधिकांश क्राईम रिपोर्टर पुलिस से मिली जानकारियों को बिना पुलिस का हवाला दिए अपनी एक्सक्लूसिव खबर की तरह पेश करते हैं.


इसी का नतीजा है कि आज से नहीं बल्कि वर्षों से पुलिस की ओर से प्रायोजित “मुठभेड़ हत्याओं” की रिपोटिंग में बिना किसी अपवाद के खबर एक जैसी भाषा में छपती रही है. यही नहीं, अपराध संवाददाताओं की मदद से पुलिस हर फर्जी मुठभेड़ को वास्तविक मुठभेड़ साबित करने की कोशिश करती रही है. सबसे हैरानी की बात यह है कि पुलिस की ओर से हर मुठभेड़ की एक ही तरह की कहानी बताई जाती है और अपराध संवाददाता बिना कोई सवाल उठाये उसे पूरी स्वामीभक्ति से छापते रहे हैं. कई मामलों में यह स्वामीभक्ति पुलिस से भी एक कदम आगे बढ़ जाती रही है.


यह ठीक है कि क्राईम रिपोर्टिंग में पुलिस एक महत्वपूर्ण स्रोत है लेकिन उसी पर पूरी तरह से निर्भर हो जाने का मतलब है कि रिपोर्टर ने अपनी स्वतंत्रता पुलिस के पास गिरवी रख दी है. दूसरे, यह पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत यानी हर खबर की कई स्रोतों से पुष्टि या क्रास चेकिंग का भी उल्लंघन है. आश्चर्य नहीं कि इस तरह की गल्प रिपोर्टिंग के कारण पुलिस और मीडिया द्वारा ‘अपराधी’ और ‘आतंकवादी’ घोषित किए गए कई निर्दोष लोग अंततः कोर्ट से बाइज्जत बरी हो गए. लेकिन अपराध रिपोर्टिंग आज भी अपने ‘अपराधों’ से सबक सीखने के लिए तैयार नहीं है.

शनिवार, मई 01, 2010

मोदी, आई.पी.एल और फीलगुड पत्रकारिता का घना होता अँधेरा


“पत्रकारिता का पहला नियम है: कोई भगवान नहीं होता है. और अगर कोई भगवान की तरह दिखता है तो आमतौर पर उसके पैर कीचड़ में सने होते हैं. कुछ यही हुआ, तेजतर्रार, सरपट बोलनेवाले एक ४६ वर्षीय व्यक्ति के साथ जो आज से तीन साल पहले गुमनामी से निकलकर सामने आया और देश में क्रिकेट का भगवान बन बैठा. यह और कोई नहीं, इंडियन प्रीमियर लीग (आई.पी.एल) के कमिश्नर ललित मोदी हैं जो आज विवादों में घिर गए हैं. ‘इंडिया टुडे’ में ऐसा दुर्लभ ही होता है कि जिस महीने में किसी को उसकी शानदार कामयाबियों के लिए कवर स्टोरी का विषय बनाया जाए और उसी महीने में उसकी मुश्किलों के लिए उसे फिर कवर स्टोरी का विषय बनाया जाए.”

- ‘इंडिया टुडे’ के प्रधान संपादक अरुण पुरी (इंडिया टुडे, ३ मई के संपादकीय का अंश)


अरुण पुरी का यह आत्मस्वीकार न सिर्फ ‘इंडिया टुडे’ मार्का फीलगुड पत्रकारिता और उसकी अन्तर्निहित कमजोरियों पर सटीक टिप्पणी है बल्कि यह आज की मुख्यधारा की समूची पत्रकारिता पर भी उतना ही सटीक बैठता है. सच यही है कि आज ललित मोदी को नंगा करने में जुटा समाचार मीडिया अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब उन्हें आसमान पर चढ़ाने में दिन-रात एक किए हुआ था. मोदी को ‘क्रिकेट का भगवान’ बनाने में अकेले ‘इंडिया टुडे’ ही नहीं, पूरा मीडिया लगा हुआ था. मोदी की शानदार सफलता की कहानियां हर अखबार, चैनल और मीडिया पर ऐसे छाई हुई थी, जैसे वह कोई जादूगर हो. आई.पी.एल की कामयाबियों के ऐसे-ऐसे किस्से गढ़े जा रहे थे जो हमारे मीडिया की कल्पनाशक्ति और सृजनात्मकता के बेहतरीन नमूने थे.


लेकिन अरुण पुरी का यह कहना बिलकुल सही है कि जो भगवान की तरह दिखते या दिखाए जाते हैं, उनके पांव अक्सर कीचड़ में सने पाए जाते हैं. यह और बात है कि आज के समाचार मीडिया की ‘फीलगुड पत्रकारिता’ उसे देखना नहीं चाहती है या देखकर भी अनदेखा करने की कोशिश करती है. पुरी स्वीकार करें या नहीं लेकिन सच यही है कि मोदी जैसे ‘कीचड़ सने पांवों वाले भगवान’ हवा में नहीं पैदा होते हैं बल्कि मीडिया द्वारा बनाये और गढ़े जाते हैं. उससे भी बड़ा सच यह है कि मोदी जैसे भगवान बनाना कारपोरेट मीडिया की जरूरत बन गया है क्योंकि ऐसे भगवानों से कारपोरेट मीडिया के निहित स्वार्थ जुड़े हुए हैं.


असल में, आज मुख्यधारा की पत्रकारिता पर जिस तरह से शाम के अँधेरे की तरह फीलगुड पत्रकारिता छाती जा रही है, उसमें मोदी जैसे धूमकेतुओं और चमकते सितारों के लिए ही जगह है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि इन सितारों के पीछे के अंधकार को जानबूझकर छुपा कर रखा जाता है. इस फीलगुड पत्रकारिता में यह जानते हुए भी कि हर चमकनेवाली चीज़ सोना नहीं होती, मीडिया उसे सोना साबित करने में लगा रहता है. मोदी भी एक ऐसी ही चमकनेवाली चीज़ थी जिसे कारपोरेट मीडिया ने सोना बना दिया था. लेकिन फीलगुड पत्रकारिता के कोख से जन्मे मोदी कोई अकेले उदाहरण नहीं हैं. हर्षद मेहता, केतन पारीख से लेकर रामलिंगा राजू और मोदी तक ऐसे छोटे-बड़े दर्जनों उदाहरण हैं.


दरअसल, उत्तर उदारीकरण दौर की फीलगुड पत्रकारिता की यही फितरत बन गई है. इस दौर में बड़ी पूंजी के साथ पूरी तरह से नत्थी (एम्बेडेड) हो चुके समाचार मीडिया की खुद की आर्थिक कामयाबी के लिए यह अनिवार्य शर्त बन चुकी है कि वह नई अर्थव्यवस्था और नव उदारवादी अर्थनीतियों की ‘शानदार कामयाबियों’ के झूठे-सच्चे फीलगुड किस्से गढ़े और इन किस्सों को हकीकत का तानाबाना देने के लिए उनके इर्द-गिर्द नायक खड़े करे. इसे ही फीलगुड पत्रकारिता कहते हैं जो नब्बे के दशक से भारतीय पत्रकारिता की मुख्यधारा बन चुकी है. इस पत्रकारिता में सच से ज्यादा सपने बेचे जाते हैं, तथ्य से ज्यादा गल्प परोसा जाता है, संदेह और जांच-पड़ताल से ज्यादा अन्धविश्वास फैलाया जाता है और विफलताओं को छुपाया और आधी-अधूरी कामयाबियों को खूब बढ़ा-चढाकर दिखाया जाता है.


इस फीलगुड पत्रकारिता में सवाल नहीं पूछे जाते हैं. दरअसल, इस पत्रकारिता में सवाल पूछना किसी कुफ्र से कम नहीं है. इसमें सिर्फ कामयाबी की पूजा की जाती है. यह सफलता को ही सबसे बड़ा मूल्य मानती है, चाहे वह जैसे भी हासिल की गई हो. यहां तक कि अगर यह कामयाबी नियमों को तोड़कर और कानूनों की अनदेखी करके भी हासिल की गई हो तो भी फीलगुड पत्रकारिता उसपर कोई उंगली नहीं उठाती है, उलटे वह उन नियमों और कानूनों की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठाने लगती है क्योंकि उसके लिए सफलता ही सबसे बड़ा नियम और कानून है. इसलिए आश्चर्य नहीं कि मोदी की कामयाबी हमेशा से संदेहों के घेरे में होने के बावजूद किसी अखबार/चैनल या वेब मीडिया ने कोई असुविधाजनक सवाल नहीं पूछा और न ही यह जानने की कोशिश की कि इस कामयाबी के पीछे कितना कीचड़ है?


यहां तक कि अब जब मोदी की कामयाबी की पोल काफी हद तक खुल चुकी है, अँधेरा और कीचड़ दिखने लगा है, इसके बावजूद कारपोरेट मीडिया के बड़े हिस्से में अभी भी मोदी और उससे अधिक आई.पी.एल भक्ति जारी है. कहा जा रहा है कि मोदी को उनका बडबोलापन, मनमानी रवैया, हाई-फाई जीवन शैली और ताकतवर राजनेताओं से टकराव ले डूबा यानी मोदी के कामकाज में कोई खास दिक्कत नहीं थी और आई.पी.एल तो विवादों से परे है ही. जाहिर है कि यह फीलगुड पत्रकारिता का ही नया ‘स्पिन’ है. मोदी की विदाई तय देखकर यह कहा जाने लगा है कि मोदी की कारगुजारियों का दंड आई.पी.एल को नहीं दिया जाना चाहिए. तर्क दिया जा रहा है कि यह एक ग्लोबल ब्रांड है. करोड़ों दर्शकों की पसंद है. इसे हर हाल में बचाया जाना चाहिए और फलने-फूलने का मौका दिया जाना चाहिए.


हैरान होने की जरूरत नहीं है. यह फीलगुड पत्रकारिता का नया अपराधशास्त्र है जिसमें बताया जा रहा है कि अपराधी (मोदी) से घृणा करो और अपराध (आई.पी.एल) से नहीं. गोया आई.पी.एल दूध का धुला हो जिसमें मोदी के कारण कीचड़ आ गया हो. जबकि अब यह सच्चाई किसी से छुपी नहीं रह गई है कि खुद आई.पी.एल ही एक कीचड़ है. इसमें क्रिकेट तो सिर्फ एक आवरण भर है. दरअसल, आई.पी.एल के आइडिया से लेकर उसकी संरचना तक में एक खेल के बतौर क्रिकेट से ज्यादा बेनामी निवेश, मनी-लांडरिंग, टैक्स चोरी, मैच फिक्सिंग, धोखा, सेक्स और लूट के आपराधिक खेल के लिए जगह है. उसे इसीलिए खड़ा ही किया गया है. आई.पी.एल के इस कीचड़ में फीलगुड पत्रकारिता की मदद से मोदी जैसे ही कमल खिल सकते हैं.


लेकिन मोदी के अपराधों में काफी हद तक बराबर की भागीदार फीलगुड पत्रकारिता एक बार फिर अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बचकर निकलती दिखाई दे रही है. यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा है कि समाचार मीडिया ने मोदी की कथित कामयाबियों पर संदेह क्यों नहीं किया, सवाल क्यों नहीं पूछे और उनकी छानबीन क्यों नहीं की? क्या यह समाचार मीडिया की जिम्मेदार नहीं है? क्या उसने अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई? क्या यह उसकी विफलता नहीं है? मोदी और आई.पी.एल प्रकरण में ये सवाल जरूर पूछे जाने चाहिए. ये सवाल इसलिए जरूरी हैं कि समाचार मीडिया ही मोदी जैसे क्रिकेट के भगवानों, रामलिंगा राजू जैसे आई.टी के भगवानों, हर्षद मेहता जैसे शेयर बाज़ार के भगवानों से लेकर शाइनिंग इंडिया और भारत निर्माण जैसे बड़े पी.आर भगवान खड़े कर रही है.


सच यह है कि लोगों को मोदी नहीं कारपोरेट मीडिया छल रहा है. यह ठीक है कि इनमें से ज्यादातर भगवान अंततः मुंह के बल गिरे और यह सच्चाई भी अधिक दिनों तक छुपी नहीं रह सकी कि सिर्फ उनके पांव ही नहीं पूरा शरीर कीचड़ में धंसा हुआ है. लेकिन इससे कारपोरेट मीडिया की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा है और न ही फीलगुड पत्रकारिता के जलवे में कोई कमी आई है. वह नए भगवान खोजने निकल पड़ी है. जल्दी ही ये नए भगवान अखबारों की सुर्ख़ियों, पत्रिकाओं के चिकने पन्नों और चैनलों रंगीन पर्दों पर छाए होंगे.


वह इसलिए कि फीलगुड पत्रकारिता मोदी जैसे भगवानों और उनकी कामयाबी की गल्प कथाओं के बिना नहीं जी सकती है. दूसरी ओर, कारपोरेट मीडिया फीलगुड पत्रकारिता के बिना नहीं जी सकता है. असल में, कारपोरेट मीडिया का कारोबार फीलगुड पत्रकारिता पर ही टिका हुआ है क्योंकि नव उदारवादी अर्थव्यवस्था फीलगुड के बिना नहीं चल सकती है. फीलगुड से ही यह अर्थव्यवस्था हमेशा एक बूम का माहौल बनाये रखती है जो उसकी कामयाबी के लिए जरूरी है. अगर यह न हो तो इस नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के लिए भारत जैसे गरीब देशों में पैर जमाना मुश्किल हो जाए क्योंकि इसमें गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों के लिए कोई जगह नहीं है. वह संसाधनों की लूट, सट्टेबाजी और नियम-कानूनों को पैरों तले कुचल कर ही फल-फूल रही है और गैर-बराबरी, वंचना और शोषण का अँधेरा फैला रही है.


जाहिर है कि इस अर्थव्यवस्था को इन सब पर रंगीन पर्दा डालने के लिए फीलगुड पत्रकारिता यानी ‘सब-कुछ अच्छा-अच्छा चल रहा है’ का धुन बजानेवाली पत्रकारिता चाहिए. साफ है कि इस पत्रकारिता के प्राण किसकी नाभि में हैं?

(समाचार फार मीडिया डाट काम, २८ अप्रैल )