दोराहे पर मीडिया
बुधवार, जनवरी 27, 2010
दोराहे पर मीडिया
मंगलवार, जनवरी 26, 2010
साठ का गणतंत्र
रविवार, जनवरी 17, 2010
मीडियानामा
इस प्रकरण ने साफ कर दिया है कि "पेड न्यूज" यानि पैसा लेकर खबर छापने के लिए कुख्यात हो चुके इस अखबार को प्रेस परिषद् और एडिटर्स गिल्ड से लेकर जाने-माने संपादकों-पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की आलोचनाओं की कोई परवाह नहीं है, पछतावा तो दूर की बात है. इससे यही लगता है कि उसने व्यापक बौद्धिक जनमत को ठेंगा दिखाते हुए अखबार को येन-केन-प्रकारेण पैसा बनाने की मशीन मान लिया है. ऐसा करते हुए उसे किसी पत्रकारीय नैतिकता, आचार संहिता और मूल्यों की परवाह नहीं रह गई है. यह और बात है कि इस अखबार को चलनेवाली कंपनी ने अपनी वेबसाईट पर एक लम्बी चौड़ी आचार संहिता में नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें की हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि अधिक से अधिक मुनाफा बनाने के लिए कंपनी को अपने ही वायदे का ध्यान नहीं रह गया है.
हालांकि इस और ऐसे ही कई दूसरे अखबारों के लिए यह कोई नई बात नहीं है. 80 के दशक में ही ऐसे अधिकांश अखबारों ने अपने रिपोर्टरों/स्ट्रिंगरों को बाकायदा विज्ञापन इक्कठा करने के काम में लगा दिया था. इन रिपोर्टरों/स्ट्रिंगरों को वेतन के बदले विज्ञापन लाने का कमीशन मिलता था. बात वहीँ तक नहीं रुकी. जल्दी ही कई अखबार मालिकों ने अपने संपादकों-पत्रकारों का इस्तेमाल अपने जायज-नाजायज व्यापार-उद्योग धंधों के लिए लाइजनिंग करने में शुरू कर दिया. पिछले डेढ़ दशक में यह प्रवृत्ति एक महामारी का रूप ले चुकी है और शायद ही कोई मीडिया समूह इसका अपवाद रह गया हो. अखबार या समाचार मीडिया की इसी ताकत से आकर्षित होकर पिछले दशक में जायज-नाजायज धंधे से जुड़े न जाने कितने बिल्डर-व्यापारी-नेता और चिट फंड कंपनियों ने अपना अखबार-चैनल शुरू किया जिसका असली मकसद अपने धंधों के लिए सुरक्षा, समाज में सम्मान और सत्ता से लाइजनिंग करना था और है.
जाहिर है कि ऐसे अखबारों-चैनलों से पैसा लेकर खबर छापने या दबाने की ही अपेक्षा की जा सकती है. हालांकि ऐसा करते हुए वे अपना ही नुकसान कर रहे हैं क्योंकि पाठकों-दर्शकों का विश्वास खोकर वे खुद लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकते हैं. लेकिन मुनाफे की हवस ने उन्हें अँधा बना दिया है. वे अपने तौर तरीकों में बदलाव लाने के लिए तैयार नहीं हैं. लेकिन सोचने की बात यह है कि ऐसे अखबारों-चैनलों के कारण पाठक के बतौर हमे और आपको क्या नुकसान हो रहा है? यह सीधे-सीधे हमारे-आपके जानने के अधिकार का हनन है. एक भ्रष्ट और अनैतिक मीडिया से निकलनेवाली आधी-अधूरी और झूठी सूचनाएं हमें नागरिक के बतौर अपनी भूमिका तार्किक तरीके से निभाने के अयोग्य बना देती हैं. साफ है कि ऐसा मीडिया लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत नहीं कर रहा है बल्कि उसकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहा है.
गुरुवार, जनवरी 07, 2010
नए साल में आई.आई.एम.सी
बुधवार, जनवरी 06, 2010
नए साल में अर्थव्यवस्था
नए साल में अर्थव्यवस्था को खुशफहमी नहीं सतर्कता चाहिए
नया साल 2010 अर्थव्यवस्था के लिए क्या लेकर आ रहा है? यह एक ऐसा सवाल है जिसपर हर आमो-खास की नज़रें लगी हुई है. कहने की जरूरत नहीं है कि अर्थव्यवस्था से मनमोहन सिंह सरकार को काफी उम्मीदें हैं. उसे विश्वास है कि इस साल अर्थव्यवस्था न सिर्फ पूरी तरह से पटरी पर आ जाएगी बल्कि वैश्विक मंदी से पहले की तेज रफ़्तार पकड़ लेगी. खुद प्रधानमंत्री और उनकी सलाहकार परिषद का मानना है कि बीते साल में वैश्विक मंदी और देश में सूखे के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने जबरदस्त जिजीविषा का परिचय दिया है और चालू वित्तीय वर्ष (2009-10) में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7 प्रतिशत तक पहुंच सकती है. यही नहीं, उनका यह भी मानना है कि अगले दो सालों में अर्थव्यवस्था फिर से ९ प्रतिशत की सुपर सोनिक गति पकड़ लेगी.
तात्पर्य यह कि चिंता की कोई बात नहीं है. जाहिर है कि यह दावा करते हुए यू.पी.ए सरकार न सिर्फ देश को आश्वस्त करने की कोशिश कर रही है कि अर्थव्यवस्था की लगाम और उसका नियंत्रण पूरी तरह से उसके हाथ में है बल्कि अर्थव्यवस्था के प्रबंधन को लेकर अपनी पीठ भी ठोंकने में लगी हुई है. आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के छोटे-बड़े मैनेजर तक देश में और उससे बाहर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में मौजूदा विपरीत परिस्थितियों में भी भारतीय अर्थव्यवस्था की 6.9 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर के मद्देनजर उसके बेहतर प्रबंधन का श्रेय लेते घूम रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर सिर्फ जी.डी.पी की वृद्धि दर के पैमाने पर देखा जाए तो अर्थव्यवस्था ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया है. लेकिन सवाल है कि क्या सिर्फ जी.डी.पी वृद्धि दर को अर्थव्यवस्था की अच्छी सेहत का सूचक माना जा सकता है?
निश्चय ही, नहीं. सच यह है कि अर्थव्यवस्था के कई ऐसे मोर्चे हैं जहां यू.पी.ए सरकार का प्रबंधन न सिर्फ नाकाम रहा बल्कि स्थिति पूरी तरह से उसके नियंत्रण से बाहर दिखी. आसमान छूती महंगाई खासकर खाने-पीने की वस्तुओं और अनाजों-सब्जियों की रिकार्डतोड़ महंगाई पिछले साल भी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी रही और नए साल में भी इस बेकाबू महंगाई पर नियंत्रण पाना एक बड़ी चुनौती बनी रहेगी. कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार पहले ही कह चुके हैं कि रबी की अच्छी फसल आने के बाद ही महंगाई पर कुछ लगाम लग सकेगा. इसका अर्थ यह हुआ कि सब कुछ मौसम के किन्तु-परन्तु पर निर्भर है. अगर अगले तीन-चार महीनों में मौसम ने अपना मिजाज ठीक रखा और रबी की अच्छी पैदावार हुई तो महंगाई कुछ हद तक काबू में आ सकेगी.
यही नहीं, महंगाई के जिन्न को काबू में करने के लिए सिर्फ रबी ही नहीं बल्कि इन्द्र देवता को भी मनाना पड़ेगा. अर्थव्यवस्था के लिए बीते साल की तरह एक बार फिर मानसून की विफलता बहुत भारी पड़ सकती है क्योंकि मौजूदा सरकार सहित अधिकांश सरकारों ने मानसून की विफलताओं से कुछ नहीं सीखा है और न ही उनके पास इससे निपटने की कोई ठोस और दीर्घकालीन योजना और उसे लागू करने की इच्छाशक्ति है. यही कारण है कि यू.पी.ए सरकार निश्चिंत है कि इस साल मानसून अच्छा रहेगा और पटरी पर लौटती अर्थव्यवस्था को इससे और गति मिलेगी. लेकिन साफ तौर पर यह एक जुआ है. सब कुछ मानसून के मिजाज पर निर्भर करता है और उसके बारे में दावे के साथ कोई कुछ नहीं कह सकता है. अगर मानसून इस साल भी गड़बड़ाया तो क्या सरकार के पास इससे निपटने के लिए कोई तैयारी है?
इस साल सरकार के लिए दूसरी सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि जी.डी.पी कि वृद्धि दर को कैसे बनाये रखा जाए? असल में, सरकार एक दुविधा में फंसी हुई है. दुविधा यह है कि वित्तीय घाटे को काबू में रखते हुए उच्च विकास दर कैसे हासिल की जाए? यह दुविधा इसलिए है कि वैश्विक मंदी और देश में सूखे के बावजूद अर्थव्यवस्था में मौजूदा 7 प्रतिशत के लगभग की वृद्धि दर सरकार के भारी-भरकम प्रोत्साहन पैकेजों के कारण संभव हो पाई है. लेकिन करीब दो लाख करोड़ रूपये के प्रोत्साहन पैकेजों और छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के कारण वित्तीय घाटा जी.डी.पी के ६.8 प्रतिशत से ऊपर पहुंच चुका है. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में अटूट आस्था रखनेवालों के लिए यह किसी कुफ्र से काम नहीं है. यही कारण है कि वित्त मंत्री बार-बार कह रहे हैं कि इतना अधिक घाटा अर्थव्यवस्था के दूरगामी स्वास्थ्य के लिए घातक है और इसे लम्बे समय तक जारी नहीं रखा जा सकता है. लेकिन सवाल है कि इन प्रोत्साहन पैकेजों को कब और कैसे वापस लिया जाए?
जाहिर है कि इस मुद्दे पर सरकार में सहमति नहीं है. हालांकि अर्थव्यवस्था के नव उदारवादी मैनेजर इन प्रोत्साहन पैकेजों को जल्दी से जल्दी वापस लेना चाहते हैं लेकिन मुश्किल यह है कि उन्हें भी पता है कि इन्हें वापस लेने पर अर्थव्यवस्था लड़खड़ा सकती है. निश्चय ही इस मामले में सरकार को हड़बड़ी में कोई फैसला करने के बजाय सोच-समझकर फैसला करना चाहिए. हालांकि फैसले की घडी बिलकुल सामने है. वित्त मंत्री को नए बजट में सरकार का रवैया साफ करना होगा. यही नहीं, उन्हें बजट में इस बारे में भी ठोस फैसला करना होगा कि प्रोत्साहन पैकेजों का फायदा कृषि क्षेत्र को कैसे मिले? पिछले साल के सूखे ने कृषि क्षेत्र के लिए भी एक बड़े प्रोत्साहन पैकेज की जरूरत के सवाल को बहुत शिद्दत के साथ उठा दिया है.
साथ ही, नए वर्ष में सरकार को इस सवाल का भी जवाब जरूर तलाशना होगा कि प्रोत्साहन पैकेजों का फायदा उठाकर लाभ बटोर रहा उद्योग जगत इसका लाभ न सिर्फ उपभोक्ताओं तक पहुंचाए बल्कि औद्योगिक वृद्धि दर का लाभ रोजगार के नए अवसरों के रूप में भी सामने आना चाहिए. मंदी के नाम पर पिछले डेढ़ साल में लाखों लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है और अभी भी अर्थव्यवस्था में सुधार और तेजी के दावों के बावजूद रोजगार नहीं बढ़ रहे हैं. विश्लेषकों का कहना है कि यह वास्तव में "रोजगारविहीन वृद्धि" है. यह चिंता की बात है और इस मामले में "सब कुछ ठीक-ठाक है" की पर्दादारी से काम नहीं चलेगा. सरकार को उद्योग जगत को कड़ी से कहना होगा कि अगर उसे प्रोत्साहन पैकेजों का लाभ आगे भी चाहिए तो छंटनी बंद करने के साथ-साथ नई नौकरियां देनी होंगी.
असल में, सरकार को अपनी पीठ ठोंकने और अर्थव्यवस्था को लेकर खुशफहमी पालने के बजाय इस साल अधिक सतर्कता से काम करना होगा. भारतीय अर्थव्यवस्था में इतने फ़ाल्टलाइन हैं कि वह कभी भी लड़खड़ा सकती है. शेयर बाज़ार में एक ऐसी ही फ़ाल्टलाइन को सक्रिय देखा जा सकता है जहां संस्थागत विदेशी निवेशकों (एफ.एफ.आई) के जरिये आ रही आवारा पूंजी ने बीते साल मंदी के बावजूद बाज़ार को 81 फीसदी से अधिक चढ़ा दिया है. हालांकि अर्थव्यवस्था के मैनेजर इससे अत्यंत प्रसन्न हैं लेकिन यह ख़ुशी और निश्चिन्तता घातक हो सकती है.
रविवार, जनवरी 03, 2010
मीडियानामा
एक सतर्क, सजग और सक्रिय समाचार मीडिया क्या कुछ कर सकता है, इसका एक और चमकीला उदाहरण हम सबके सामने है। रुचिका गिरहोत्रा के मामले में सी।बी।आई कोर्ट के फैसले के बाद मीडिया ने जिस तरह से हरियाणा के पूर्व डी.जी.पी रहे एस.पी.एस राठौर और उसके राजनीतिक संरक्षकों को घेरा है और केंद्र और राज्य सरकार को पूरे मामले को फिर से खोलने के लिए बाध्य किया है, वह एक लोकतान्त्रिक समाज में समाचार मीडिया की शक्ति और प्रभाव का एक और प्रमाण है।
निश्चय ही, ऐसे और भी कई उदाहरण हैं जिनमें मीडिया की सक्रियता और खुलकर स्टैंड लेने के कारण सत्ता, विधायिका और न्यायपालिका को नींद से जगना पड़ा है और न चाहते हुए भी जनमत के डर से कड़े फैसले करने पड़े हैं।
दरअसल, यही समाचार मीडिया की असली भूमिका है। लोकतंत्र में वह आम आदमी यानि गरीबों, कमजोरों, हाशिये पर पड़े लोगों और जिनकी कोई आवाज़ नहीं है, उनकी आवाज़ है। वह उनके हितों का पहरेदार (वाचडाग) है और उससे हमेशा यह अपेक्षा रहती है कि वह सोनेवालों को जगाता रहे।
शनिवार, जनवरी 02, 2010
इस समय जब पूरा देश नए साल और हमारा मीडिया नए दशक के स्वागत में बावला हुआ जा रहा है, मुझसे इस स्वागतगान के बेतुके और कुछ हद तक अश्लील कोरस में शामिल नहीं हुआ जा पा रहा है। मैं आपका नया साल ख़राब नहीं करना चाहता लेकिन क्या करूँ, मानसिक रूप से कल से ही बहुत परेशान हूँ।
सवाल यह है कि क्या कोई इस कड़ाके की ठण्ड में सिर्फ एक कम्बल के लिए किसी की जान ले सकता है? बात बहुत छोटी सी लगती है या कम से कम ऊपर से ऐसी दिखती है। हालांकि बात इतनी छोटी भी नहीं है। पर दिल्ली के अधिकांश अख़बारों ने उसे इसी तरह देखा। उनके लिए यह एक कालम की अपराध डायरी जैसी छोटी सी खबर थी, जो अन्दर के पन्नों पर रूटीन खबर की तरह डाल दी गई थी।
पता नहीं आपने दिल्ली के लगभग सभी अख़बारों में अन्दर के पन्नों पर छपी उस खबर को पढ़ा या नहीं लेकिन मैंने जब से पढ़ी है, नए साल का जश्न अश्लील सा लगने लगा है। खबर कुछ इस तरह से है- 27 और २८ दिसंबर की रात जब दिल्ली ठण्ड से कांप रही थी और पारा ५ डिग्री तक लुढ़क गया था, देशबंधु गुप्ता रोड इलाके में सोनू नामके एक १५ वर्षीय लडके की हत्या कर दी गई थी। वह दिल्ली में सड़क पर बीडी-सिगरेट आदि का एक छोटा खोका लगाकर गुजर-बसर करता था। वह सड़क पर ही सोता भी था। ठण्ड से बचने के लिए उसने एक नया कम्बल ख़रीदा था। लेकिन हत्या के बाद कम्बल गायब था।
पुलिस जाँच में यह बात सामने आई है कि उस इलाके में एक और बेघर श्रवण के पास कल से नया कम्बल दिख रहा है। पुलिस ने उसे पकड़कर पूछताछ की तो पता चला कि उस रात कड़ाके की ठण्ड से बचने के लिए उसे कोई ठौर नहीं मिल रहा था। उसके पास कम्बल भी नहीं था। ठण्ड बर्दाश्त से बाहर थी। श्रवण ने रात में सोनू का कम्बल उठाने की कोशिश की. लेकिन सोनू जग गया। इसके बाद श्रवण ने उस कम्बल के लिए पत्थर मारकर सोनू की हत्या कर दी। श्रवण को सोनू की हत्या के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया है और वह जेल में है।
कहानी सिर्फ इतनी सी है। लेकिन मेरे लिए यह तय करना मुश्किल हो गया है कि मैं किसे अपराधी मानूं? क्या नया कम्बल खरीदना सोनू का गुनाह था? या हाड़ कंपानेवाली ठण्ड से बचने के लिए कम्बल हथियाने की कोशिश में हत्या तक कर देनेवाले श्रवण को अपराधी मानूं?
उम्मीद है कि उसे जेल में एक ठीक-ठाक कम्बल जरूर मिल गया होगा। यह भी कि अब उसे दोनों जून खाना भी मिल जाता होगा। हमारी-आपकी तरह न सही लेकिन श्रवण को कड़ाके की ठण्ड से कुछ राहत जरूर मिल गई होगी।
क्या आप बता सकते हैं कि अपराधी कौन है? मुझे तो लगता है कि अपराधी हम सब हैं जिन्होंने खुद की ठण्ड से आगे देखना और सोचना बंद कर दिया है ।