रविवार, अक्टूबर 23, 2011

इतिहास के पहिये को पीछे ले जाने की कोशिश

जरूरत आर.टी.आई कानून को और मजबूत बनाने की है




सूचना के अधिकार कानून से यू.पी.ए सरकार की नाराजगी किसी से छुपी नहीं है. उसकी नाराजगी की वजह भी किसी से छुपी नहीं है. उसे लगता है कि उसकी मौजूदा राजनीतिक मुश्किलों खासकर भ्रष्टाचार और घोटालों के गंभीर आरोपों की जड़ में यह कानून भी है जिसके कारण कई ऐसे खुलासे हुए हैं जिनसे सरकार की साख को धक्का लगा है.

नतीजा, खुद प्रधानमंत्री भी इस कानून के लागू होने के बाद से पिछले छह वर्षों के अनुभव के आधार पर इसकी समीक्षा की बात कर रहे हैं. उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि इसके कारण सरकार का कामकाज खासकर अंदरूनी चर्चाएँ प्रभावित हो रही हैं, नौकरशाह और मंत्री ईमानदार और बेबाक राय देने से बच रहे हैं.

ऐसी शिकायत करनेवाले वे अकेले नहीं हैं. उनसे पहले यू.पी.ए सरकार के तीन वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री- वीरप्पा मोइली, सलमान खुर्शीद और अम्बिका सोनी भी इस कानून के कारण सरकार चलाने में आ रही परेशानियों का हवाला देकर उसमें संशोधन की वकालत कर चुके हैं.

इन सभी को लगता है कि सूचना का अधिकार सरकारी कामकाज को प्रभावित कर रहा है. इसके कारण न सिर्फ निहित स्वार्थी तत्व फर्जी आर.टी.आई के जरिये अधिकारियों को परेशान कर रहे हैं, उनका सारा समय आर.टी.आई के जवाब देने में निकल जा रहा है बल्कि वे उन सूचनाओं का दुरूपयोग भी कर रहे हैं.

मजे की बात यह है कि प्रधानमंत्री और सूचना के अधिकार कानून में संशोधन की जरूरत बताने वाले सभी कैबिनेट मंत्री एक ओर इस कानून को क्रांतिकारी भी बताते हैं और दूसरी ओर, इस क्रान्ति से डरे हुए भी हैं. यही नहीं, एक ओर वे इस कानून को बनाने का श्रेय भी लेना चाहते हैं और दूसरी ओर, उसे सरकारी कामकाज में बाधा डालने के लिए दोषी भी ठहरा रहे हैं.

असल में, सूचना के अधिकार के आन्दोलनों के दबाव में और अपनी प्रगतिशील छवि बनाने के लिए यू.पी.ए सरकार ने इस कानून को पास और लागू तो कर दिया लेकिन इस कानून के साथ उसकी असहजता और असुविधा शुरू में ही दिखने लगी थी.

आश्चर्य नहीं कि कोई ढाई-तीन साल पहले भी यू.पी.ए सरकार ने इस कानून में संशोधन करने खासकर कथित फर्जी आवेदनों को ख़ारिज करने, सवालों की संख्या सीमित करने से लेकर फ़ाइल नोटिंग को इस कानून के दायरे से बाहर करने की कोशिश की थी. लेकिन उस समय इसका जबरदस्त विरोध हुआ जिसके कारण सरकार को पीछे हटना पड़ा.

यही नहीं, सरकार को मानना पड़ा कि फ़ाइल नोटिंग आर.टी.आई के दायरे में है. इसके बावजूद अंदर-अंदर नौकरशाहों और मंत्रियों का विरोध बना रहा. यही कारण है कि एक ओर वे इस कानून को कामकाज में बाधा की तरह पेश करते रहे और दूसरी ओर, देश भर में आर.टी.आई को लोकप्रिय बनानेवाले और उसके जरिये सरकार और उसके विभिन्न विभागों में चल रही गडबडियों का भंडाफोड करनेवाले कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया. दर्जनों आर.टी.आई एक्टिविस्टों की हत्या कर दी गई.

विडम्बना देखिए कि जो सरकार इस कानून को बनाने का श्रेय लेने में सबसे आगे रहती है, वह आर.टी.आई कार्यकर्ताओं की सुरक्षा का इंतजाम करने के बजाय इस कानून की हत्या करने पर आमादा हो गई है. यह सही है कि इस कानून के कारण हाल के महीनों में सरकार की खूब किरकिरी हुई है.

खासकर २ जी मामले में मौजूदा वित्त मंत्री के नोट के सामने आने के बाद पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम भी कटघरे में खड़े हो गए हैं बल्कि प्रणब-चिदंबरम युद्ध में पूरी सरकार की खासी फजीहत हुई है. इसके अलावा भी कई मामलों खासकर २ जी, कामनवेल्थ आदि घोटालों में आर.टी.आई के कारण ऐसी कई जानकारियां सामने आईं हैं जिससे सरकार की मुश्किलें बढ़ी हैं.

लेकिन सवाल है कि क्या अपनी कमियों और गडबडियों के लिए उसे सामने लाने वाले कानून को दोषी ठहराया जा सकता है? क्या सरकार को अपने अपराधों को छुपाने के लिए आर.टी.आई कानून को खत्म करने की इजाजत दी जा सकती है? ये सवाल आज और भी मौजूं हो उठे हैं. एक ऐसे समय में जब पूरे देश में भ्रष्टाचार और घोटालों के खिलाफ लोगों का आक्रोश सड़कों पर आ चुका है और सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने की मांग जोर पकड़ रही है, उस समय इतिहास के पहिये को पीछे लौटाने की यह कोशिश यू.पी.सरकार की रही-सही साख को भी खत्म कर देगी.

मनमोहन सिंह सरकार को जनता का मूड समझना चाहिए. सच पूछिए तो इस समय जरूरत इस कानून को और मजबूत बनाने और सरकारी कामकाज में और अधिक जवाबदेही लाने के लिए उसे पूरी तरह से पारदर्शी बनाने की है. सरकारी कामकाज में सम्पूर्ण पारदर्शिता एक नियम होनी चाहिए और गोपनीयता एक अपवाद.

असल में, आर.टी.आई कानून की असली भावना यही है कि अधिक से अधिक सूचनाओं को बिना मांगे सार्वजनिक किया जाना चाहिए. उलटे हो यह रहा है कि सरकार और उसके महकमे सूचनाएं दबाने और छुपाने में लगे रहते हैं. औपनिवेशिक विरासत के बतौर सरकारी कामकाज में गोपनीयता अभी भी नियम बना हुआ है.

इसे किसी तरह से स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. जरूरत तो यह है कि सरकार केन्द्रीय और राज्य स्तरीय सूचना आयोगों को और मजबूत बनाए. इस सिलसिले में मौजूदा मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानन्द मिश्र की मांग पर जरूर विचार किया जाना चाहिए कि सूचना आयोगों को संवैधानिक दर्जा दिया जाए, उन्हें स्वायत्तता दी जाए और सरकार पर उनकी निर्भरता कम की जाए.

यही नहीं, सरकार को फ़ाइल नोटिंग को आर.टी.आई के दायरे से बाहर करने की कोशिशें छोड़ देनी चाहिए क्योंकि फ़ाइल नोटिंग मांगने का अधिकार इस कानून की आत्मा है. उसके बिना यह कानून निर्जीव और बेमानी हो जाएगा.

इसके अलावा सरकार को आर.टी.आई कार्यकर्ताओं को सुरक्षा देने के लिए व्हिसलब्लोवर विधेयक तुरंत लाना चाहिए. इससे लोगों में इस कानून के प्रति विश्वास पैदा होगा और भ्रष्ट नौकरशाहों-राजनेताओं को सन्देश जाएगा कि वे गोपनीयता की आड़ में अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते हैं.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में २२ अक्तूबर को प्रकाशित लेख)

3 टिप्‍पणियां: