शुक्रवार, सितंबर 03, 2010

अपराध रिपोर्टिंग का अंडरवर्ल्ड

पार्ट-दो

हने की जरूरत नहीं है कि ये रिपोर्टें सुप्रीम कोर्ट के पिछले निर्देश का खुला उल्लंघन हैं. लेकिन हैरानी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्देश के बाद अपनी गलती स्वीकार करने के बजाय चैनलों और अख़बारों के कुछ संपादक पूरी ढिठाई से न सिर्फ अपनी गलती स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं बल्कि वे कोर्ट के फैसले को भी ‘क्षेत्राधिकार से बाहर’ निकलने का मामला बता रहे हैं. यही नहीं, ‘सत्य की जीत’ (लेट ट्रूथ प्रीवेल) का दावा करनेवाले एक अंग्रेजी अखबार मुताबिक यह निर्देश एक तरह से मीडिया का मुंह बंद करने और ‘जिन मामलों में जांच चल रही है, उनमें सूत्रों पर आधारित रिपोर्टिंग पर एक तरह से प्रतिबन्ध लगाने की कोशिश है, जो पत्रकारिता के पूरे परिदृश्य को बदल सकता है.’ उसके अनुसार यह फैसला एक तरह से मीडिया रिपोर्टिंग के लिए ‘गेम चेंजर’ साबित हो सकता है.


यहां सबसे पहले यह स्पष्ट करते चलना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ आरुषि मामले में हालिया गैर जिम्मेदार रिपोर्टों के बाद यह निर्देश दिया है. दूसरे, कोर्ट ने मीडिया को उन खबरों को दिखाने-छापने से मना नहीं किया है जो तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ, दुराग्रह और चरित्र हनन से मुक्त और जांच को न प्रभावित करनेवाली हों. इसके बावजूद मीडिया के एक हिस्से को लग रहा है कि कोर्ट उनकी जुबान बंद करने की कोशिश कर रहा है. इसी मुद्दे पर सी.एन.एन-आई.बी.एन के कार्यक्रम ‘फेस द नेशन’ में हुई चर्चा में उनके ‘जिम्मेदार’ हिंदी चैनल के ‘जिम्मेदार’ संपादक ने न सिर्फ कोर्ट के निर्देश को ‘जुडिशियल ओवररीच’ का एक और उदाहरण बताया बल्कि आरुषि मामले में मीडिया रिपोर्टों का जमकर बचाव भी किया. उन्होंने भी कहा कि ‘सी.बी.आई ने डा. तलवार को अभी भी क्लीन चिट नहीं दी है’ और उनके पास ऐसी चौंकानेवाली जानकारियां हैं कि अगर उन्हें दिखा दिया जाए तो डा. तलवार के समर्थक और उनके वकील ‘हैरान रह जाएंगे.’ उन्होंने यह तक दावा किया कि सी.बी.आई इस मामले को हल करने के बिल्कुल करीब है और जब खुलासा होगा तो डा. तलवार के वकील के लिए उनका बचाव करना मुश्किल होगा.

निश्चय ही, यह एक जिम्मेदार संपादक की भाषा नहीं हो सकती है. इसमें तर्क कम और कठदलीली अधिक है. इसमें एक जिम्मेदार चैनल के जिम्मेदार संपादक के बजाय सी.बी.आई का प्रवक्ता बोलता दिख रहा है. बावजूद अन्य (अपनी नहीं) चैनलों की गलतियां स्वीकार करने के यहां आत्मालोचन की कोई उम्मीद नहीं दिखती है. सवाल है कि अगर चैनलों के पास ऐसी पुष्ट और तथ्यपूर्ण जानकारियां हैं तो उन्हें प्रसारित करने से किसी ने नहीं रोका है और न ही उन्हें इस बात का ख्याल करने की जरूरत है कि उससे कौन ‘मुंह दिखाने के काबिल’ नहीं रह जायेगा. लेकिन अगर ये ‘सूचनाएं’ अपुष्ट हैं, तथ्यपूर्ण नहीं हैं और सिर्फ किसी का चरित्र हनन करती हैं तो उन्हें प्रसारित करने का अधिकार किस स्वतंत्रता के तहत दिया जा सकता है? वह पत्रकारिता होगी या पीत पत्रकारिता? सच पूछिए तो ऐसी धमकी एक तरह का ब्लैकमेल है. अफसोस की बात यह है कि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा और उसकी अपराध रिपोर्टिंग धीरे-धीरे इसी तरह के ब्लैकमेल का नमूना बनती जा रही है.

इस पूरे प्रसंग में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या अपराध रिपोर्टिंग की कोई एथिक्स नहीं होनी चाहिए? क्या अपराध रिपोर्टिंग का अर्थ किसी को भी बिना सुबूत और तथ्यों के अपराधी घोषित कर देना है? क्या अपराध रिपोर्टिंग के नाम पर पुलिस और जांच एजेंसियों की सेलेक्टिव लीक को बिना किसी क्रास चेकिंग और जांच-पड़ताल के प्रसारित करना उचित है? निश्चय ही, सूत्र आधारित रिपोर्टिंग के अधिकार को खत्म कर दिया गया तो पत्रकारिता का एक सबसे असरदार उपकरण हाथ से निकल जायेगा और इससे पत्रकारिता बहुत कमजोर हो जायेगी.

लेकिन सवाल है कि सूत्र आधारित रिपोर्टिंग का अर्थ यह नहीं है कि आप एक सूत्र से खासकर गुमनाम सूत्र से मिली ऐसी जानकारी को जो किसी का चरित्र हनन करती हो, उससे संबंधित दूसरे, तीसरे और चौथे सूत्र और अन्य आधिकारिक सूत्रों से पुष्टि, छानबीन और क्रास चेकिंग किये बिना इस तरह से उछालें जैसे वही सत्य हो. यह तो प्रोफेशनल पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों के खिलाफ भी है जो कहती है कि किसी भी विवादस्पद सूचना को बिना दो या तीन स्रोतों से पुष्टि किए और दूसरे पक्ष को अपने बचाव का मौका दिए प्रसारित नहीं किया जाना चाहिए. क्या अपराध रिपोर्टिंग में एक्यूरेसी, वस्तुनिष्ठता, फेयरनेस और संतुलन का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए?
रअसल, अपराध रिपोर्टिंग के बारे में जितना कहा जाए, कम है. कई बार ऐसा लगता है कि अपराध रिपोर्टिंग की पत्रकारिता और आम रिपोर्टिंग से बिलकुल अलग एक स्वतंत्र, स्वायत्त और खुद तक सीमित दुनिया बन गई है. इस दुनिया में उसका पत्रकारिता के सामान्य नियमों और उसूलों से अलग अपना खुद का नियम और उसूल चलता है. उसके अपने तौर-तरीके हैं और उनमें से ज्यादा का पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों और आचार संहिताओं से कोई सम्बन्ध नहीं रह गया लगता है. कई बार तो ऐसा लगता है कि जैसे अपराध की दुनिया का अपना एक अंडरवर्ल्ड है, वैसे ही पत्रकारिता में अपराध रिपोर्टिंग का अपना एक अंडरवर्ल्ड बन गया है.

सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि पत्रकारिता का यह अंडरवर्ल्ड आमतौर पर किसी के प्रति जवाबदेह नहीं दिखता है. लगता नहीं कि उसपर संपादकों/गेटकीपरों की पुलिसिंग चलती है. अलबत्ता ऐसा लगता है कि संपादकों ने भी उनके आगे घुटने टेक दिए हैं. असल में, अपराध रिपोर्टिंग के साथ सबसे बड़ी समस्या यह हो गई है कि वह पूरी तरह से पुलिस और अन्य जांच एजेंसियों की प्रवक्ता बन गई है. वह पुलिस के अलावा कुछ नहीं देखती है, पुलिस के कहे के अलावा और कुछ नहीं बोलती है और पुलिस के अलावा और किसी की नहीं सुनती है. इस तरह अपराध रिपोर्टिंग पुलिस की, पुलिस के द्वारा और पुलिस के लिए रिपोर्टिंग हो गई है. स्थिति यह हो गई है कि अधिकांश क्राईम रिपोर्टर पुलिस की आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग या कानाफूसी में दी गई आधी-अधूरी सूचनाओं, गढ़ी हुई कहानियों और अपुष्ट जानकारियों को बिना किसी और स्रोत से कन्फर्म या चेक किये “एक्सक्लूसिव” खबर की तरह छापने/दिखाने में कोई संकोच नहीं करते हैं.

हालांकि यह पत्रकारिता का बुनियादी उसूल है कि किसी भी ऐसी आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग से मिली जानकारी या सूचना को बिना किसी स्वतंत्र स्रोत से पुष्टि किये नहीं चलाना चाहिए. यह ठीक है कि अपराध रिपोर्टिंग में पुलिस सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है लेकिन हाल के वर्षों में जिस तरह से खुद पुलिस की साख गिरी है और पुलिस ने मीडिया को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, उसे देखते हुए क्राईम रिपोर्टरों को खुद अपनी तरफ से अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए लेकिन इसके उलट हो यह रहा है कि क्राईम रिपोर्टरों की पुलिस पर निर्भरता और बढ़ती जा रही है. इस कारण अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि अपराध रिपोर्टिंग बहुत सुस्त, एकल स्रोत आधारित और इस कारण कई बार बहुत घातक रिपोर्टिंग बनती जा रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि अपराध रिपोर्टिंग को अपनी प्रकृति के मुताबिक सबसे सावधान, सतर्क और जांच-पड़ताल करनेवाली रिपोर्टिंग होनी चाहिए. इसके लिए जरूरी है कि वह रिपोर्टिंग और पत्रकारिता के बुनियादी नियमों और उसूलों – एक्यूरेसी, वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता, संतुलन और स्रोत के उल्लेख का पालन करे. लेकिन अफसोस की बात यह है कि सबसे अधिक लापरवाह, असावधान और सुस्त रिपोर्टिंग के लिए अगर कोई पुरस्कार देना हो तो अपराध रिपोर्टिंग को दिया जाना चाहिए. उसे तथ्यों की कोई परवाह नहीं रहती है. वस्तुनिष्ठता का तो लगता है कि अपराध रिपोर्टरों ने नाम ही नहीं सुना है. वे हमेशा एक पूर्वाग्रह और झुकाव के साथ रिपोर्टिंग करते हैं. वैसे भी, पुलिस के साथ नत्थी (एम्बेडेड) हो चुकी अपराध रिपोर्टिंग से निष्पक्षता की अपेक्षा करना वैसे भी संभव नहीं है. रही बात स्रोत के उल्लेख की तो संबंधित पुलिस अफसर/अफसरों के बजाय ज्यादातर मामलों में पुलिस के सूत्रों से काम चला लिया जाता है.
स प्रक्रिया में अपराध रिपोर्टिंग वास्तव में तथ्यपूर्ण रिपोर्टिंग के बजाय गल्प रिपोर्टिंग हो गई है जिसमें तथ्यों से अधिक जोर कहानी गढ़ने पर होता है. इस मायने में अपराध की खबरें सचमुच स्टोरीज बना दी जाती हैं. सच पूछिए तो कहानी गढ़ने में क्राईम रिपोर्टर पुलिस से भी आगे हैं. खासकर समाचार चैनलों के आने और उसमे अपराध की खबरों को अत्यधिक महत्त्व मिलने के बाद स्थिति बिलकुल नियंत्रण से बाहर हो गई है. चैनलों के बीच तीखी प्रतियोगिता के कारण हमेशा ‘एक्सक्लूसिव’ और सनसनीखेज दिखाने के दबाव के बाद तो अपराध रिपोर्टिंग जैसे बिलकुल बेलगाम हो गई है. अधिकांश चैनलों की अपराध रिपोर्टिंग में २० प्रतिशत तथ्य और ८० प्रतिशत गल्प के साथ ऐसी-ऐसी कहानियां गढ़ी जाती हैं कि आप बिना अपने तर्क और समझ को ताखे पर रखे उसपर विश्वास नहीं कर सकते.

लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि पुलिस के साथ पूरी तरह से नत्थी हो चुकी अपराध रिपोर्टिंग अब पुलिस के लिए सुपारी लेकर काम करने लगी है. पुलिस अपनी गलतियों और अपराधों को सही ठहराने के लिए अपराध रिपोर्टरों का सहारा लेने लगी है. ये रिपोर्टर ऐसे मामलों में पुलिस की गलतियों पर पर्दा डालने के लिए पुलिस की आधी सच्ची-झूठी कहानियों को सच की तरह पेश करने लगते हैं या खुलेआम उसके बचाव में उतर आते हैं. यहां तक कि निर्दोष लोगों को जबरदस्ती दोषी साबित करने में भी ये रिपोर्टर पुलिस से पीछे नहीं रहते हैं. यही नहीं, आपराधिक मामलों की जांच में पुलिस की नाकामियों को छुपाने के लिए सच्ची-झूठी कहानियां फ़ैलाने में भी क्राइम रिपोर्टर पुलिस के पीछे खड़े हो जाते हैं.

यह ठीक है कि कई बार चैनल और अखबार पुलिस और उसकी ज्यादतियों के खिलाफ भी बोलने लगते हैं लेकिन वह तब जब पुलिस के खिलाफ विरोध या लोगों का गुस्सा सामने आने लगा हो. अन्यथा अपराध रिपोर्टिंग पुलिस से आगे उसकी आफ द रिकार्ड ब्रीफिंग या सेलेक्टिव लीकिंग को क्रिटिकली जांचने-परखने, खुली छानबीन करने और स्वतंत्र रिपोर्टिंग करन कब का भूल चुकी है. अफसोस की बात यह है कि इसका खामियाजा सैकड़ों निर्दोष लोग भुगत रहे हैं जबकि पुलिस और अपराधी मौज में हैं.

दरअसल, अपराध संवाददाताओं का यह ‘अपराध’ नया नहीं है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर चैनलों और अखबारों में क्राईम रिपोर्टिंग पूरी तरह से पुलिस के हाथों का खिलौना बन गई है. क्राईम रिपोर्टर पुलिस के अलावा और कुछ नहीं देखता है, पुलिस के कहे के अलावा और कुछ नहीं बोलता है और पुलिस के अलावा और किसी की नहीं सुनता है. सबसे अधिक आपत्तिजनक बात यह है कि अधिकांश क्राईम रिपोर्टर पुलिस से मिली जानकारियों को बिना पुलिस का हवाला दिए अपनी एक्सक्लूसिव खबर की तरह पेश करते हैं.

इसी का नतीजा है कि आज से नहीं बल्कि वर्षों से पुलिस की ओर से प्रायोजित “मुठभेड़ हत्याओं” की रिपोटिंग में बिना किसी अपवाद के खबर एक जैसी भाषा में छपती रही है. यही नहीं, अपराध संवाददाताओं की मदद से पुलिस हर फर्जी मुठभेड़ को वास्तविक मुठभेड़ साबित करने की कोशिश करती रही है. सबसे हैरानी की बात यह है कि पुलिस की ओर से हर मुठभेड़ की एक ही तरह की कहानी बताई जाती है और अपराध संवाददाता बिना कोई सवाल उठाये उसे पूरी स्वामीभक्ति से छापते रहे हैं. कई मामलों में यह स्वामीभक्ति पुलिस से भी एक कदम आगे बढ़ जाती रही है.

आश्चर्य नहीं कि इस तरह की गल्प रिपोर्टिंग के कारण पुलिस और मीडिया द्वारा ‘अपराधी’ और ‘आतंकवादी’ घोषित किए गए कई निर्दोष लोग अंततः कोर्ट से बाइज्जत बरी हो गए. लेकिन अपराध रिपोर्टिंग आज भी अपने ‘अपराधों’ से सबक सीखने के लिए तैयार नहीं है.
(कथादेश, सितम्बर'10)

1 टिप्पणी:

Aditya Raj ने कहा…

अपने आप को मीडिया के पुरोधा और टॉप सेलेब्रिटी कहने वाले पत्रकारों को आपने आइना दिखा दिया है आशा है सुप्रीम कोर्ट और सरकार आपके इस आलेख का संज्ञान ले...धन्यवाद्